अभी जब शमशाद बेगम का इन्तेकाल हुआ तो बहुत कुछ पढ़ा उनके बारे मे कल युनुस भाई ने भी भास्कर मे उन्हें शिद्दत से याद किया. मैंने इस बीच महिला गायिकाओं के बारे मे थोड़ा टटोला, तो पाया कि हमारे यहाँ बड़ी महान गायिकाएं हुई है फ़िल्मी दुनिया से लेकर कच्चा और पक्का गाने वाली. ऐसी ही परम्परा मे भारतीय शास्त्रीय संगीत मे भी इधर कई गायिकाएं पिछले तीन दशकों से बेहद सक्रीय नजर आती है परन्तु उनका काम बहुत ज्यादा दिखता नहीं है. अधिकांश गायिकाओं की समस्या है कि वे या तो अपने गुरु के साथ लगाकर गाती रही और खत्म हो गई या किसी महान संगीतकार गायक के परिवार मे होने से संगीत सीखा और फ़िर पति, पिता, भाई या पुत्र का साथ देते देते गाने लगी और फ़िर कुछ अपने स्तर पर छोटे-मोटे काम करके या रचकर धीमे धीमे खत्म होती गई. कुछ अपवाद जरुर है पर व्यापक तौर पर यह लगा कि शास्त्रीय संगीत मे अपनी पहचान बनाने के लिए जिस स्तर पर काम करना था - वो नहीं किया गया या हो सकता हो उन्हें अवसर नहीं मिला. फिल्मों की बात अलग है नूरजहां, सुरैया, लता, आशा, उषा, वाणी जयराम, सुलक्षणा पंडित, सलमा आगा, अलका, कविता, सुनिधि, रुना लैला, उषा उत्थप या ऐसी अन्य कलाकारों के लिए कोई उस तरह का ना तो संघर्ष था, ना जद्दोजहद, पर हाँ, उनमे आपस मे ज्यादा खींचतान थी और आज भी है. खैर शास्त्रीय संगीत मे परवीन सुल्ताना, गंगू बाई हंगल से लेकर शुभा मुदगल या अश्विनी भिडे देशपांडे या देवकी पंडित तक एक लंबा संघर्ष है. पर ये ही वो चार छह महिला गायिकाएं है जो आज भी याद की जाती है अपनी ठेठ गायकी के लिए और इन्होने आडम्बर नहीं रचा, ना ही कोई छद्म व्युतपत्तियाँ की है जो इन्हें विशिष्ट बनाए पर जो इनका श्रम साध्य कार्य है वही इन्हें संगीत की दुनिया मे एक अलग सम्मान और कीर्ति देता है.इनके साथ सबसे अच्छी बात यह थी कि इन्होने अपनी दुनिया खुद बनाई ना कि एक समृद्ध विरासत के भरोसे अपनी नैया पार लगाई.
शुभा
मुदगल शायद भारतीय शास्त्रीय संगीत मे अपने तरह की अनूठी कलाकार है. जब वे
एक ठसके से गाती है तो सारा जगत छोड़कर दिल करता है कि उन्हें सुना जाये.
शुरुआत तो ठीक थी, जो सीखा- वो ही गाया या परम्परा निभाई, पर इधर जो वो गा
रही है, नए प्रयोग कर रही है और जिस तान से सुर साधती है वो शायद ही कोई गा
पाए अपने यहाँ. बहुत विलक्षण और स्वनामधन्य विदुषी कलाकार है जो भारतीयता
मे रची बसी है और निश्चित ही एक दिन भारतीय
संगीत को वे बेहद ऊँचा ले जायेगी. शुभा जी ने संगीत मे लोक शैली, पारंपरिक
गीतों और दिलकश धुनों का जो खजाना तैयार किया है वह अपने आप मे बेमिसाल
है. ऐसी ही कलाकार अश्विनी भिडे देशपांडे है, जिन्हें सुनकर रूहानी सुकून
मिलता है और यह आश्वस्ति होती है कि महिलायें इतनी तल्लीनता से जो गा रही
है, प्रयोग कर रही है, बेहद बारीकी से अकादमिक संगीत, शास्त्रीयता और लोक
शैली के बीच महीन सा ताना-बाना बुनकर जो कुछ भी सार्थक रच रही है वह आने
वाले इतिहास मे स्वर्णाक्षरों मे लिखा जाएगा.
अच्छी बात है कि काल से परे होकर मंच पर जब ये विदुषीयाँ मंच पर सप्तसुर छेडती है तो संगीत और पूरा समष्टि का माहौल अपने आरोह अवरोह के बीच से एकाकार होकर श्रोताओं को चकित कर देता है यहाँ शब्दों का साफ़ उच्चारण ही नहीं, बल्कि गायकी, आलाप, स्वर की शुद्धता, लचक, और सुरों के उतार-चढ़ाव के संस्कार साफ़ दिखाई देते है. कोई बनावटीपन या आडम्बर और दिखावा नहीं होता. ना ही हमें कही यह गूँज सुनाई देती है कि संगीत के बहाने किसी दर्प मे कोई सुर सुर की शुद्धता को प्रभावित कर रहा है. मंच के चारों कोनों और आठ दिशाओं मे स्वर लहरियाँ मंद मंद गूंजती रहती है और श्रोताओं को यह महसूस होता है कि संगीत जो मुश्किल भले ही हो पर उनकी समझ मे आ रहा है और वे इसे सुन और समझ सकते है क्योकि राग की जटिलताएं खत्म हो जाती है और सिर्फ कर्ण प्रिय संगीत ही रहता है वहाँ घुल जाता है तो इगो, आडम्बर या सदियों से ढोते आ रहे घरानों का बोझ और रह जाती है तो मिश्री सी आवाज और यह शायद गायकी का अपना एक अंदाज है जिसे सुनकर- देखकर रंजकता और पुरजोर सुकून महसूस होता है. अफसोस यह है कि संगीत की इस महान परम्परा मे बहुत कम महिला गायिकाएं है जो भारतीयता को एक सहज संगीत से अवगत करा रही है, नया रच रही है और नित नूतन परम्पराओं का अध्याय लिख रही है, बजाय किसी घराने और थोपी गई संस्कृति को निभाते हुए कालजयी संगीत को आम लोगों मे "पापुलर" कर रही है. मै ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि अंततः हर ललित कला जो मनुष्य को सुख और शांति दें उसे लोक के अनुरूप और सहज सरल होना ही चाहिए और जो इस बात से इनकार करता है वह सिर्फ किताबों के सुनहरे हर्फों मे ही बंद होकर रह जाता है. ऐसी सभी महिला संगीतज्ञों को बधाई और शुभकामनाएं............
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