और यह नैहरवा अब ज्यादा सताता है...... जीवन से लगाव और भटकाव अब खामोश होने को है, रंग-रंगीली गाड़ी चलाकर बहुत भटक लिए, अब इस पार से उस पार देखने का समय आ गया है जो कबीर कहते है, वही खुसरो कहते है कि कि गोरी सोई सेज पर, सर पर डारे केश, चल खुसरों घर आपणे, रैन भई चहूँदेस...........यह चलाचली की बेला है, यह समय तपते सूरज के बीच से गुजर जाने का समय है, यह निस्तब्ध रात मे पुरे चन्द्रमा के सानिध्य मे से हलके से गुजर जाने का समय है. पूरी धरती एक सन्नाटे मे है और बेचैन.... जिस तरह से कही से दूर आवाजों के घेरे पास आ रहे है, कोलाहल भयभीत कर रहा है, कही दूर गहरे पानी मे से सुबकियों का दर्द पानी की सतह को अपने निर्वात से भर दे रहा है, क्योकि मन पूरी तैयारी से एक निर्विघ्न यात्रा पर निकल पड़ा है, उसमे लगता है कि अब बस यही निर्वाण है क्योकि प्रारब्ध भी यही था था ........वो कहते है कि "सुपने में प्रीतम आवै, तपन यह जिय की बुझावै" तो अब क्या बचा है यहाँ.........
और पं कुमार गन्धर्व जी ने जो इसे गाया तो मन के सारे द्वंद भी खत्म हो गये, कुछ समझने को शेष नहीं रहा............
नैहरवा हम का न भावै
सांई की नगरी परम अति सुंदर, जहं कोई जा ना आवै,
चांद सूरज जहं, पवन न पानी, कौ संदेश पहुंचावै,
दरद यह सांई को सुनावै ... नैहरवा
आगे चलुं पंथ नहीं सूझै, पीछे दोष लगावै,
केहि बिधि ससुरे जाउं मोरी सजनी, बिरहा जोर जरावै,
विषय रस नाच नचावै.... नैहरवा
बिन सतगुरु अपनो नहीं कोई, जो यह राह बतावै,
कहत कबीरा सुनो भाई साधो, सुपने में प्रीतम आवै,
तपन यह जिय की बुझावै ... नैहरवा।
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