अकेला ही था वो उस भीड़ में घाट पर......बाकी लोग अपने काम कर रहे थे, दिए जलाकर पानी में बहा रहे थे, अगरबत्ती जलाकर माँ नर्मदा की आरती बुडबुडा रहे थे, सुहागिनें अपने सर पर एक लंबा सा पल्लू खींचकर फूल पत्ती बहा रही थी, कुछ लडके और लडकियां एक कोने में प्रेम कर रहे थे, एक तरफ बूढी विधवा महिलायें भजन गाते हुए अपने परिजनों को घर से दूर रहकर सुख दे रही थी, पानी अपने निर्बाध वेग से बह रहा था नर्मदा का .........एक दूर कोने में वो जोर- जोर से बडबडा रहा था हाथों में ढोल, फटे कपडे, चेहरे पर बेतरतीब सी बढ़ी हुई दाढी, आँखे धंसी हुई, सर के बाल जो सदियों से सूखे हुए थे, शर्ट जो किसी पंद्रहवीं शताब्दी का वस्त्र होने का सबुत था, आवाज ऐसी थी जो लगता था कि किसी दूर ग्रह के किनारे से गूंजते हुए आई है जो पूरी मशक्कत के बाद भी निकल नहीं पाती थी. कह रहा था कि समाज में सबके लिए भोजन पानी की व्यवस्था है, कन्या पूजा है, लड़कों को ब्राहमण बनाकर भोजन दिया जा सकता है पर एक अकेले आदमी के लिए कही कोई व्यवस्था नहीं, उम्र निकल गई अकेले रहते हुए, एकाकी जीवन की सारी त्रासदियाँ भुगत ली पर कही कोई ठौर ठिकाना नहीं....और त...