सारे सुख दुख से गुजरने के बाद भी ज़िंदगी के मूल स्वरूप में कभी फ़र्क नही आता और ना हमारे व्यवहार में, हम जैसे है वैसे ही रहते हैं - यदि सच में कभी कोई फ़र्क घटनाओं, समय या परिस्थितियों का पड़ता तो इस समय हम सब एक बेहद संवेदनशील और बेहद उम्मीदों भरी दुनिया में जी रहें होते
हम सब चतुर सुजान है और पहुँचे हुए कलाकार है, बल्कि यूँ कहूँ कि मंजे - घुटे हुए लोग जो प्रतिक्रियावादी है और इतने माहिर है कि हर घटना, दुर्घटना या सुखद संयोग के बाद नेपथ्य में जाकर यवनिका के पीछे आसरा ले लेते है और यही कला हमें अक्षुण्ण और शाश्वत रखती है, इसी सबके बीच से तमाम तरह के प्रभावों को झटका देकर हम पुनः जीवन की मौज मस्ती में लौट आते है और अपना ही जीवन जीते है बजाय किसी और के साथ एकाकार हुए या सांगोपांग रूप से किसी और का कल्याण करने के
स्वार्थीरूप से जीने की यही अमर और अजर कला हम बचपन से अपने-आप सीखते है, कोई नही सीखाता इसे और धीरे-धीरे इसमें पारंगत हो जाते है पर अफ़सोस कि मृत्यु के सामने यह अभिनय धरा का धरा रह जाता है और हम अपने सारे जीवनास्त्र, अभिनय कौशल, उम्मीदों की पोटली, नीरभ्र आकाश में उड़ने की इच्छाएँ, उद्दाम वेग से बहने वाली भावनाओं का ज्वार और जीने की अकथ कहानी मृत्यु के सामने डालकर सब कुछ सर्वस्व भी कर देते है और एक विदा ले लेते है सदा के लिये - यह कहकर कि इस सच्चाई से मुंह मोड़ना नामुमकिन है जिसे हम विदाई कहते है
विदाई उस मंच से जिसे जादू का खिलौना कहा गया है
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