अक्सर रातों को जागता हूँ, नींद की खुराक कम हो चली गई, एक दिन यानी चौबीस घण्टों में 3 घण्टे भी भरपूर सो लिया तो अपने आप पर गर्व होने लगता है, दिन में दस मिनिट की झपकी, शाम को एक टप्पा, और रात डेढ़ से साढ़े तीन बजे तक, बस बाकी समय दिमाग़ चंचल रहता है और हाथ - पाँव सक्रिय
यह पहले नही था, जुलाई 2008 की बात थी जब माँ को सिर में दो ट्यूमर होना कन्फर्म हुआ था, और फिर जाँच, एमआरआई आदि के बाद ऑपरेशन करवाने का निर्णय लेना पड़ा, इंदौर के ख्यात चिकित्सक और सर्जन्स से सलाह करने के बाद तिथि निश्चित की गई थी, सम्भवतः 10 जुलाई को ऑपरेशन हुआ था - ठीक ठाक ही किया था, उन दिनों पूरे समय मैं ही साथ रहता था, उस मनहूस अस्पताल में, दिनभर रिश्तेदार मिलने - जुलने वाले आते जाते तो समय कब गुजर जाता , पर रात बहुत ही भारी पड़ती थी
शाम सात बजे से ही आवाजाही बन्द कर दी जाती और यह मरीजों के आराम का समय होता, दस-पंद्रह दिनों में माँ के साथ जो जीवन जिया था वह अकल्पनीय है - इतनी बातें, इतनी कि सबका बखान करना नामुमकिन है अब, स्मृतियाँ क्षीण हो गई हैं, यादें धुंधला गई है, माँ अस्पताल में थी और छोटे भाई का हफ़्ते में दो बार डायलिसिस होता, उसको खून लगता था, उसका इंतज़ाम करना हफ्ते में दो बार, माँ के लिए ओ निगेटिव समूह का खून जुगाड़ना - जो दुर्लभ होता है, का इंतज़ाम करना कि ऑपरेशन और पोस्ट केयर में कमी ना पड़े
रात सारी दवा देने, बातचीत करने, हाथ-पाँव दबाने और माँ का ध्यान पीड़ा से हटाने में गुजर जाता था, खूब बातें करता - उसके पीहर की, भाई - बहनों की, संघर्ष की, मंडलेश्वर की, नर्मदा की, निमाड़ में नौकरी और कसरावद की, मालवा के भौंरांसा में की नौकरी की, स्कूल के स्टॉफ की, माँ की शादी, ससुराल, सास, महू और बाकी सारे देवर और ननदों के ब्याह की, उनके जापे और इलाज की, परिवार के गरीबी की और नब्बे - ढाई सौ के वेतनमान में जीते हुए इतने बड़े परिवार को पालने की, पिता के साथ जिम्मेदारियां निभाने की और कालांतर में हम तीन भाइयों के बचपन, पढ़ाई - लिखाई और शैतानियों की
ये सब बातें करते हुए वह ख़ुश होती जब बात नर्मदा की होती, पीहर की होती, पिता के साथ जिम्मेदारी निभाने की होती या हमारे बचपन की होती, वह संघर्ष के दिनों को याद नही करना चाहती थी, वह उन योद्धाओं में थी जो जीत के सेहरों में बंधी खुशियों को याद रखना चाहती थी और संघर्ष को याद कर मुस्कुरा देती थी कि इन्ही से तो सीखकर हम आगे बढ़ते है, वह कहती कि बचपन सबका बहुत अच्छा होना चाहिये, हर माँ - बाप अपनी क्षमता से ऊपर उठकर बच्चों को सर्वश्रेष्ठ देते है, वे भूखे रह जाते है, वे दो जोड़ी कपड़ों में जीवन निकाल देते है, नँगे पाँव घूम लेते है पर अपने नौनिहालों को सब दे देते हैं - जो उनकी कूबत के भी बाहर होता है - यह कहते हुए वह अक्सर आँखें नीचे कर लेती थी शायद इसलिये कि एक मध्यम वर्गीय परिवार में वह अपने बच्चों को पीहर और ससुराल में बड़े परिवार की जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए साथ ही नौकरी करते हुए समय नही दे पाई, सबके लिये वह शिक्षक रही, पर अपने बच्चों को सीधे - सीधे शिक्षा नही दे पाई और यह कमी उसे अब खलने लगी थी, किसे पता था कि माँ के जीवन के ये पन्ने आख़िरी कहानी बनकर उभरेंगे
जब जुलाई आता है और अपनी कम नींद के बारे में सोचता हूँ तो यह सब सिलसिलेवार किसी फिल्म सा गुज़रता है, मई, जुलाई और सितंबर माह मेरे लिये बहुत भारी होते है, बेचैनी अपने उरूज़ पर होती है और मैं कुछ भी सोचने - विचारने को तैयार नही होता
लिख रहा हूँ सब धीरे - धीरे कि अंदर जो है वह सब स्वसंस्तुति के रूप में आ जाये, इसलिये जागता हूँ, छत पर घूमता हूँ, भोर में शुक्र तारा देखकर सोने की नाकाम कोशिश करता हूँ, कभी दिखता है, कभी नही पर उस खाली जगह को देखकर तसल्ली होती है - वैसे ही जैसे किसी बच्चे को समझाते है कि माँ या पिता आसमान में तारा बन गए है और वह बच्चा जब रोता है तो आसमान में तारें देखते हुए सो जाता है, सुबह उसके गालों पर आँसूओं का नमक समुद्र के खारे नमक से ज़्यादा जम जाता है
उस दिन भी 25 तारीख थी जब माँ की आखिरी रात थी, कुछ दिनों से इंदौर में डॉक्टर्स को लग रहा होगा कि मामला हाथ से निकल रहा है और अब इनके पास कुछ है भी नहीं, उन्होंने एक रात बुलाकर मुझे समझाया कि देखो ऑपरेशन हो गया है, दस से ज़्यादा दिन बीत गए है, आप लोग या तो घर ले जाओ या देवास के ही किसी अस्पताल में दो चार दिन रख दो, माताजी नॉर्मल है, थोड़े दिन बाद फॉलोअप के लिये ले आना
मैंने भाइयों से बात की और अपनी ही कॉलोनी में बाल मित्र सुनील से बात की जिसका अस्पताल घर के एकदम नजदीक था और वो खुद एमडी था, बोला - "ले आ, मम्मी को मैं सम्हाल लूँगा, अपने पास आईसीयू भी है और टीम भी है", सो माँ को लेकर देवास आ गए हम लोग, सन 2008 में मेडिसिन का क्षेत्र इतना भी भ्रष्ट नही था, डॉक्टर और अस्पतालों पर भरोसा था, डॉक्टर श्रीकांत रेगे, न्यूरो सर्जन मराठी थे, डॉ सुनील मालपानी का अस्पताल था, सरल व्यक्ति थे सिंधी थे पर कभी धंधे जैसी बात मन में नही आई उनके, पूरा स्टाफ बहुत शिष्ट था, आते समय सबको वादा करके आया था कि फॉलोअप के लिये आऊँगा तो देवास की रसभरी लेकर आऊँगा, दो नर्स जो केरला की थी, खूब रोई भी थी, नई उम्र की लड़कियाँ थी और दस बारह दिनों में माँ से उनके सम्बन्ध अच्छे बन गए थे
देवास में जब कॉलोनी में घुसे तो माँ बहुत खुश थी, पिता की मृत्यु इंदौर में बुआ के घर ही हुई थी, वे मरने तक घर आने की जिद करते रहे थे, पर नही आ पाये - उनकी देह को ही हम ला पाये थे और चंद घण्टों बाद ही उठाकर चल दिये थे, जिस घर को पसीने से सींचकर बनाया था उसमें वे दो वर्ष भी रह नही सकें थे, माँ की खुशी को मैं देख रहा था, जब अस्पताल के सामने रुके तो वह चिढ़ गई तब समझाया कि बस दवाई लेते है, एक दो जाँच करके फिर घर चलते है, पर वह मान नही रही थी, बड़ी मुश्किल से आईसीयू में ले जाकर भर्ती किया
फिर वही रात भर जागने का क्रम, बातचीत - पर अबकी बार वह अपनी बहनों को याद कर रही थी, मंडलेश्वर के अपने परिवार की सबसे छोटी बहन शोभा को याद कर रही थी जो लगभग 1948 - 49 में गुजर गई थी, स्मृति दुरस्त थी -"शोभा को टीबी हो गई थी, भयानक बीमारी, इंदौर के सात मंज़िल अस्पताल एम व्हाय में भी नाना (पिताजी) लेकर आये, हाथों पर लेकर दौड़ते रहें पर इलाज नही मिला, और वह खत्म हो गई", यह कहते हुए रो पड़ी थी उस रात ; फिर बोली - "तू तो कसरावद में कितनी बार मरने को पड़ा था, भागामाँ ताजियों के नीचे से निकालती, तेरह रुपये लगाकर थाल भरकर रोट नवाजती थी, तब बचा, नर्मदा का पानी जमा नही तेरे को, मालवा का हवा पानी ही बचाता है तेरे को, देवास छोड़कर जाना मत कभी कही" भागा माँ मतलब हमें बचपन में सम्हालने वाली उम्र दराज़ एक निमाड़ी महिला जिसके पास प्रेम के अलावा देने को कुछ था ही नही, वो कभी देवास आती तो भुट्टे या सब्जियां ले आती खेत की और कहती शहरों में सब नकली मिलता है और ये बात 1978 तक रही बाद में जब वो गुजर गई तो मुझे लगा था कि यशोदा गुजर गई
दो रात बीत चुकी थी, सोडियम पोटैशियम का स्तर बिगड़ रहा था, और बहुत बड़बड़ाने लगी थी, बार - बार हाथ पकड़कर बैठ जाती और कहती कि छोटे भाई का इलाज करवाना तेरी जिम्मेदारी है, उसे छोड़ना मत, वादा कर ...कभी कहती दिवटे मैडम को बुला दें, मंदा निम्बालकर को, रेगे बहनजी को या छोटी बहन कुंदा को बुला, पिता को लेकर उसकी स्मृतियाँ लौट आई थी जैसे - छैगांव माखन, मनावर, ग्वालियर, टोंकखुर्द आदि जगह जहाँ-जहाँ पिताजी रहें, उन सब जगहों और वहाँ के लोगों को याद करती थी, अपनी छात्राओं को याद कर रही थी , घर में कहां क्या है, कुलधर्म कब-कब करना होते है, कैसी पूजा पद्धति है अपने कुल में, सालभर के त्योहार बताते जाती और मैं चुपचाप सुनता रहता
बस उस 25 जुलाई 2008 की रात को कह रही थी कि अब मन नही लग रहा, घर ले चल, अस्पताल के एकदम पीछे ही था घर, खूब देर तक जिद करती रही, ड्यूटी डॉक्टर ने नींद का एक इंजेक्शन दिया, पर रात दो बजे फिर उठ गई, पिता को याद किया, दोनो भाइयों से, दोनो बहुओं से, अपने तीनों पोतों से मिलने की इच्छा प्रकट की और बोली अभी बुला, एकदम अभी, मुझे मिलना है - मैंने कहा अभी दो बजे रहें है, सुबह खुद जाकर ले आऊँगा, बाहर तेज बरसात थी
कहते है दीया बुझने के पहले बहुत तेज भभकता है - वैसे ही शायद वह बहुत बड़बड़ा रही थी, सबको याद कर रही थी, मेरे हाथों में था उसका सिर और अचानक से एक ओर लुढ़क गई, मैं चिल्लाया, डॉक्टर दौड़े, वेंटिलेटर पर रखा, सुबह हुई, शाम फिर हमने वेंटिलेटर हटाने का निर्णय लिया - क्योंकि जब हंस उड़ ही गया है तो कैसा लगाव, देह से क्या मोह, "काया गार से काची" - कबीर कहते है
कभी लगता है कि उस दिन ऑपरेशन के लिये मैं हाँ नही करता तो शायद ठीक रहता, उसे अस्पतालों की पीड़ा, जाँच और अपने सिर के सारे सुंदर घने बाल कटवाने का दुख नही झेलना पड़ता, घर के जिस दीवान पर उसका सारा सामान सजा रहता था उसी पर सुख - शांति से आँखें मूंद लेती तो एक पीड़ा से मैं नही गुजरता, आज जब यह सब दर्ज कर रहा हूँ तो अपने आपको जघन्य अपराधी मानता हूँ, बहुत साल पहले मनावर में पिताजी के पास कोई ज्योतिष आया था तो उसने मेरी कुंडली देखकर कहा था कि यह बालक आप दोनो पति - पत्नी की मृत्यु का कारण बनेगा, यह गलत समय में पैदा हुआ है, यह जिस योग में है, वह पिता और माँ को ग्रस लेता है ..मैं सब नही मानता, मेरी कुंडली कहाँ है मुझे नही मालूम, ना मैं यकीन करता हूँ, पर ...
कहा ना जीवन के भयानक कष्टों से गुजरकर यहाँ तक आया है और अब इतना ढीठ हो गया हूँ कि किसी के तानों से या उलाहनों से कोई फर्क नही पड़ता, और बाकी तो यह है कि जब माँ - बाप ही नही रहें कहने - सुनने को, डाँटने को या पुचकारने को तो किसी की ना परवाह है ना डर, अपने तरह से अपनी शर्तों पर अपनी ज़िंदगी जी रहा हूँ, लगभग 56 वर्ष बीत गए और थोड़े - ये भी गुज़र ही जायेंगे, दुख - दर्द की आदत है बल्कि वही सच्चे साथी है, एक खोल में अपने आपको समेट लिया है जिसके भीतर प्रवेश करने की इजाज़त किसी को नही है - जैसा भी हूँ वैसा ही हूँ और मैं किसी के लिये अपने आपको बदल भी नही सकता
26 तारीख शुरू होने वाली है, मोहित उस दिन ट्रेन से रूड़की जा रहा था, उसके लिये कुछ कैसेट रखी थी खरीद कर कि ट्रेन पर दे दूँगा, आईआईटी के हॉस्टल में सुन लिया करेगा, सारी कैसेट्स लगभग जगजीत और मेहंदी हसन साहब की थी - क्या पता था कि वो दर्दभरे नग़मे जीवन का सुमधुर संगीत बन जायेंगे एक दिन
अब तटस्थ हो गया हूँ, ना सुख मिलता है ना दुख की अनुभूति होती है, जब अपने लोग ही ना रहें - तो किसके सामने नखरे करने हैं , जैसा मिलें - वैसा जी लो और चुपचाप इंतज़ार करो, प्रार्थनाएं करो कि चलते - फिरते ही मौत आ जाये, शरीर को पीड़ा देना और सहना बहुत दुखद है,पहले पिता फिर माँ और फिर छोटे भाई को अस्पतालों की लम्बी पीड़ादायी प्रक्रियाओं में तिल-तिल मरते देखा है और इस समय खुद बीमारियों का घर बना हूँ क्या कहते है Multiple Organ Failure शुरू हो गया है, ख़ैर मैं परवाह नही करता - अपने जाये दुख है तो किसी को।दोष क्यों दें
माँ या पिता सिर्फ़ भौतिक रूप से संग - साथ नही है, पर मैं रोज बातें करता हूँ देर रात तक, जागता हूँ तो सब बातें होती है और दुनिया को समझने - समझाने की कोशिश करता हूँ कि जब नया सूरज सुबह उगे तो मैं एक कदम आगे खड़ा मिलूँ अपने-आपको
दुनिया भर घूमा, जगह - जगह नौकरी की पर अंत में मालवा आकर ही रह गया, घर आया कि ठीक हो जाता हूँ पता नही जैसे माँ का आँचल हर बीमारी को हर लेता है, अपने आपसे यह वादा है कि अस्पताल में नही जाऊँगा यही उसी दीवान पर प्राण तजूंगा जिसपर पिता, माँ और भाई की अंतिम समय में देह रही
Comments