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Khari Khari, Drisht KAvi, Man ko Chhiththi, Kuchh Rang Pyar Ke and other Posts from 13 June to 8 July 2024 Dr [Ankit Dwivedi and Dr Govind Madhav ]

न उदास हो, न मलाल कर किसी बात का, न ख़याल कर,
कई साल बाद मिले हैं हम, तेरे नाम आज की शाम है
◆ बशीर बद्र
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अपनी समझ को बार-बार साफ़ करता हूँ, आँखों को पानी से धोता हूँ, हाथों का मैल निकालता हूँ रगड़-रगड़कर, नाखून काटता हूँ कि पाशविकता कम हो थोड़ी, भाषा में गालियों का प्रयोग कम करता हूँ कि मुलायमियत बनी रहें, शब्दों को जतन से वापरता हूँ कि जख्मों से ना भर दूँ किसी को, ईर्ष्या, द्वैष, जलन जैसे भावों को समेटकर भीतर रख लेता हूँ कि व्यवहार में ना झलके कम-से-कम, हिंसा से दूर रहता हूँ कि विवादों की जड़ कही मुझ तक ही ना आ जाये, शिद्दत से मिलता हूँ हरेक से कि मनुष्यता बनी रहें और गुरूर टूटते रहें - हर क्षण पर, इस सबके बावजूद भी ना जाने क्यों लगता है बहुत कुछ छूट रहा है, मुस्कुराहट चुभती है हरेक को और अंत में मेरी झोली में विषाद ही आता है
जीवन तो बीत गया और अब जो चल रहा वह मौत तक बने रहने और उदर पूर्ति का सायास प्रयत्न भर है जिसमें रोज़ जीना- मरना पड़ता है और अपनी ही नज़रों में अपमानित होना पड़ता है
खुशियों के बरक्स संघर्ष, अवसाद और तनावों के बीच से अपनी नैया खिवा ले जाना एक कौशल है जो हम कभी नही सीख पाते हैं, यह ऐसा पड़ाव है जहाँ नैराश्य, कटुता, उदासी और एक तरह का तटस्थपन शेष बचें जीवन का स्थाई भाव है
12.48 भोर / 8 जुलाई 24
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Attending the 5-day workshop in Bhopal on Social Behavior Change Communication for CDPOs and Supervisors of WCD Govt of MP was an exceptional opportunity. This initiative, long overdue, finally came to fruition, offering invaluable learning experiences. The workshop extensively covered two strategic documents and a module, with the highlight being the engaging practice sessions. These sessions allowed all participants to demonstrate and enhance their field proficiency effectively.
Moving forward, the department plans to train 1000 CDPOs and Supervisors within the next 6 months across the state through these Master Trainers. The envisioned outcomes are promising, and we eagerly anticipate seeing these plans unfold successfully.
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देश के प्रधान को जब पद की गरिमा का भान नही, भाषा बोलने और समझने की तमीज नही और किसी का सम्मान करने की शिष्टता नही तो क्या उम्मीद करेंगे कि ये लोग कुछ ढंग का काम करने की मंशा भी रखते है, एकमात्र एजेंडा है कि विपक्ष को टारगेट करना, यूपी में डेढ़ सौ से ज्यादा लोग मर गए उसके बारे में बोलने के बजाय छिछोरों की तरह से भाषण दे रहा है
निहायत ही घटिया भाषा लोकतंत्र के मंदिर में बोलकर जो precedence ये बना रहे है वह कुल मिलाकर खीज है और लोकसभा में अपने जैसे उजबक लोगों के इशारे पर नाचने वाली कठपुतलियों का ना होना है, डेढ़ लाख ज़्यादा वोट से जीते आदमी से क्या समझ की उम्मीद करेंगे, कुपढ और लठैत लोगों को चुनने का यही नुकसान है
इन्हें लगता है कि ये ही हर जगह रहें और एक आदमी हेडमास्टर की तरह तानाशाही चलाता रहें और जब यह नही हो पाया तो शिष्टता की हदें पारकर आज तो संसदीय परम्परा का मखौल ही बना दिया, बेहद शर्मनाक है यह सब, राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद देने के बजाय विपक्ष के सर्वमान्य नेता पर अपनी खीज और घबराहट का परिचय देकर अपनी कमजोर और "वृद्ध बुद्धि" का परिचय दे रहा है
शर्मनाक इससे ज्यादा यह है कि प्रबुद्ध कहें जाने वाले शिक्षक, वकील, और पढ़े-लिखें गंवार इस तरह से समर्थन कर पोस्ट लिखकर इनका खुलकर सहयोग कर रहें है जोकि ज्यादा दुखद है
देश की हालत जितनी इन लोगों ने बर्बाद की है उतनी तो भगवान भी नही कर सकता था
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"आदमी है बिकाऊ तो होगा ही"
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[ एक निजी विवि में पत्रकारिता विवि के प्रमुख का कथन ]
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कल उसने पूछा था - "आख़िरी बार कब भरपूर सोये थे, कब खूब ज़ोर से बेमतलब हँसे थे और कब जी भरकर दिन जिया था, रोते तो रोज़ ही हो - सच बताना"
कभी - कभी हमारे पास कोई जवाब नही होते, प्रश्नों के उत्तर आजकल प्रश्न ही होते है, उत्तरों पर प्रश्न उठाने लगा हूँ और बाकी इन तीन सवालों ने झकझोर दिया था
जीवन एक तो वैसे ही कच्चा है ऊपर से मेरा सब कुछ भी बहुत कच्चा - एक गिलहरी की आहट से नींद खुल जाती है, हँसना तो दूर एक मुस्कुराहट चेहरे पर लाने के लिये शरीर की मांस - पेशियों को इतना श्रम करना पड़ता है मानो कोई पहाड़ खोदना हो, कोई घूर कर देख लेता हूँ तो काँप जाता हूँ मानो कोई खून कर बैठा हूँ, दर्ज़नों अपराध बोध सालते है और फिर खोल में सिमट आता हूँ लौटकर पुनि पुनि
हम कल देर रात, बल्कि अलस्सुबह तक बातें करते रहें, मोबाइल की बैटरी डाउन हो गई तो बातें बन्द कर दी, थोड़ी देर में फिर एक सन्देश चमका स्क्रीन पर - "साथ रहने का प्लान करते है हम लोग, भरोसा रखना और इंतज़ार करना" बस ....
सपने भी वायवीय हो जाते है कभी - कभी, इतनी शिद्दत से कमबख्त आते है कि आँख खोलने का मन ही नही करता, लगता है बस यूँही पड़े रहो और जीवन का अंत हो जाये इन स्वर्णिम पलों में
रातभर तो जागा ही था, आँखों में नींद है, एक दिन और बोनस में मिल गया है, कैसे होगा अंत, बेचैन हूँ, अवसाद से भरा हुआ, बातचीत को सिलसिलेवार याद करता हूँ, सब कुछ धूमिल हो रहा है, स्क्रीन पर वो सन्देश खोज रहा हूँ पर कुछ नज़र नही आता, स्क्रीन जीवन का ही तो अक्स है
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जब भी भीड़ भरे शहरों से अपने शहर लौटता हूँ तो सुकून मिलता है, शहर तो सब एक जैसे ही होते है - हर जगह गाडियाँ, भीड़, पसीना, उमस, शोर, जाम, ट्रैफिक, वाहन, हल्ला, जल्दी, दौड़, प्रतिस्पर्धा और अंत में मशीनीकृत इंसान - जो बस किसी तरह इस सबसे निकलकर दूर किसी कोने में बसे दड़बे में जाकर सुस्ताने का जतन कर लेता है और यह जुगाड़ ना जमीन पर है और ना आसमान में - किसी त्रिशंकु की भांति लटका हुआ बत्तीसवें माले पर देह को लटकाये उदर पूर्ति करता हुआ सुबह के काम सोचते हुए सो ही जाता है देर सबेर, इस अवनी पर सबका जीवन ऐसी ही आपाधापी में गुज़र रहा है, पता ही नही कि हम क्यों जन्मे, क्या कर रहें, कहाँ जाना है, क्या हासिल करना है - बस एक रैला है और हम बहें जा रहें हैं
मैं बहुत घबराने लगा हूँ आजकल, अजीब सी कोफ़्त होती है - प्लेटफॉर्म हो, बस अड्डा या हवाई अड्डा , बाज़ार हो या होटल का कमरा - लगता है एक भीड़ है जो मेरा सब कुछ नष्ट करने पर आमादा है, एक भीड़ है जो मेरा सब कुछ छीन लेना चाहती है, एक शोर है जो मेरा सुकून और चैन छीन लेना चाहता है, चारो ओर का ट्रैफिक मेरे ऊपर चढ़ा आ रहा है और मैं जान बचाकर भाग रहा हूँ और लोग है कि अट्टाहास करते हुए दौड़े चले आ रहें है बड़े - बड़े वाहन लेकर
मैं और घबराता हूँ, उम्र के ऐसे दौर में आ गया हूँ कि अब बाकी सब चीजों से ज्यादा अपना एकांत प्रिय है, बाकी शोर से ज़्यादा अनहद का निरंतर गूँजता संगीत प्रिय लगता है, भीड़ के बजाय किसी अनजान और संघर्ष करते आदमी की कथा सुनना ज़्यादा लुभाता है, ऊँची इमारतों और चमक - दमक के बजाय सुनसान पगडन्डी पसंद है, जुगनुओं की चमक के आगे पाँच सितारा रोशनी की क्या औकात - यह समझ आया है
अपने शहर लौटना किसी अश्वमेघ यज्ञ में सितारे बुलंद कर लौटने सा सुख है, अपने मुहल्ले की गलियों की खुशबू को पहचानकर रिक्शे से उतरना सुख है, घर की चौहद्दी में घुसना किसी अभेद्य किले के भीतर प्रवेश करने जैसा है, घर में घुसकर अपने कमरे में मिट्टी और धूल झाड़ते हुए बर्तनों और किताबों को निहारना किसी विश्व विजयी सम्राट होने का परम सुख है, रात को अपनी छत से तारों को ताकना और भोर तक कुर्सी पर सर डाले शुक्र तारे का इंतज़ार करना स्वर्गिक अनुभव है और कही मद्धम गति से स्व अरूण दाते का अमर गीत "भातुकली च्या खेलामधले राजा आणि राणी, अर्ध्यावर्ति डांव मोडला अधूरी एक कहाणी" सुनना जीवन को सम्पूर्ण रूप से पा लेना है
जीवन भीड़, शोर, चमक से परे है, जीवन एकांत, शांति और भीतर की यात्रा का प्रारब्ध है और यह पा लेना ही सम्भवतः इसी धरा पर मोक्ष है, बाकी तो मृत्यु की आहट को सुनना और उसके स्वागत के लिये बाँहे फ़ैलाकर खड़े रहना, इंतज़ार करना - इससे श्रेष्ठ कर्म क्या हो सकता है
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सफ़र में होता हूँ तो अक्सर एक समय या ज्यादातर समय फ़ल खाता हूँ - मौसमी फ़ल , महुआ, तेन्दुफल, सिंघाड़े, बेर, आंवला, आलू बुखारा, जामुन, इमली से लेकर लीची, स्ट्रॉबेरी, सेवफ़ल, खजूर, करौंदा, अचार, अमरूद, पपीता, आदि खाता रहता हूँ
खाने के बाद सारे बीज सुरक्षित रख लेता हूँ एक थैली में और घर जाकर सीड बॉल बनाकर रख लेता हूँ, घर में सब्जियों के बीज भी इसमें शामिल हो जाते है - अगले सफ़र पर निकलता हूँ तो ये सीड बॉल कही दूर फेंक देता हूँ या घर पर ही गमलों में पौधे उगाकर आसपास के बगीचों में लगा देता हूँ या बाँट देता हूँ
पिछले आठ दिनों की कमाई


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साहित्य ना दक्षिणपंथी होता है ना, ना वामपंथी, ना दलित - ना स्त्री विमर्शी, यदि आप इस तरह से देख- समझ रहें है तो आपको अपने लिखें और पढ़ें होने पर संदेह करना चाहिये और अपनी दृष्टि पुनः साफ करनी चाहिये, साहित्य के उद्देश्य पर जाइये और टुच्ची स्वार्थी बहस के बजाय वृहद दृष्टिकोण रखना होगा
अंततः "साहित्य का काम प्रतिपक्ष रचना है", और इस मौजूदा दौर में जब हमारे सामने एक आम व्यक्ति के संघर्ष, जिजीविषा, गरिमा, अस्मिता, आजीविका और जीवित रहने के ही वैश्विक सवाल खड़े हो गए है, तो ऐसे में बेकार की बहस करके आप एक नालायक प्रकाशक, तीन - चार उच्छृंखल लेखकों (जो सिर्फ़ और सिर्फ़ धंधेबाजों की तरह से अपनी किताबें बेचकर एक दूसरे के ख़िलाफ़ लिखकर एक गर्भनाल से जुड़ी यारियाँ निभा रहे है और लड़वा रहे है), उनके घर परिवार के पैरविकारों और ट्रोलबाजों को साहित्य के प्रतिनिधि ना मानें, फेसबुक पर अधकचरे, अर्धसाक्षर, उजबक और कुपढ़ों की सँख्या बहुत ज़्यादा है, दुनिया बहुत बड़ी है और इन जैसों से बचकर रहिये
पुनः स्मरण करवा दूँ - "साहित्य का काम प्रतिपक्ष रचना है" और प्रतिपक्ष मतलब वामपंथ या दक्षिण या दलित, स्त्री विमर्श नही होता, बड़े हो जाइए, सोशल मीडिया भी अब किशोरावस्था पार कर चुका है
मूर्खता भरी बहस और चर्चाओं पर आख़िरी टिप्पणी - क्योंकि दिमाग़ की शांति और जीवन मे सुकून बड़ी चीज है
ज्ञान ना दें
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"अबै तू क्या कह रहा था, अब बोल" - दिन में चार फोन आ गए थे साले के जब मैं हिंसा बनाम वीगन की बहस पढ़ रहा था
"गुरू जी, सरकार बन गई, मन्दिर बन गया, 370 की धारा हट गई , तो बताओ क्या लिखूँ अब साला पल्ले नई पड़ रियाँ, क्या लिखूँगा और किसको टारगेट करूँ, राहुल की इमेज वो पप्पू वाली ना रही" - परेशान था लाइवा
"अबै बेटा लाइवा, कोरोना भी खत्म हो गया, एक काम कर तू इन विषयों पर लिख - सुन कागज़ पर बिंदुवार नोट कर लें -
वीगन
● हिंसा
● पशुबलि
● ओवैसी का फिलिस्तीन प्रेम
● मोदी को सँविधान दिखाना - आईना नही
● केजरीवाल
● उप्र में बाबा के बाद कौन
"बहुत है रे मेरे पास विषय - तू तो लिख, बस कविता का पापड़ बड़ी उद्योग बन्द नही होना चाहिये" - मैंने सांस ली और रूक गया
"पर गुरूजी, ज्जे सब तो राजनीति है, किताब बेचने की टेक्निक है फिर" - लाइवा चिंतित था
"फिर एक काम कर - तू है तो भक्त और चाय प्रेमी, तो पुराने और मरे - खपे संगीतकारों जैसे सलिल चौधरी पर लिख, जोहराबाई अम्बालेवाली जैसी अदाकारा पर लिख, हेमंत कुमार पर लिख, सत्यजीत रे जैसे निर्देशक पर लिख - तेरे को कामधाम तो करना है नही, मक्कारी करके, ओह सॉरी, मास्टरी करके 40 साल तो निकाल दिये और अब पाँव जीपीएफ की कब्र में लटके है, पेंशनभोगी बन जीवित होने के प्रमाणपत्र बटोरेगा, या दिमाग़ के किवाड़ खोल और दो सौ साल पुरानी फिल्मों की समीक्षा कर, निदेशक एवं कलाकार सब तो मर गए तो कोई डर नही कि कोई क्रूरता करेगा तेरे ख़िलाफ़, बस लिख - भयंकर लिख और यही सब ना काम आएगा" मैं बोला
"जी, गुरूजी मज़ा आ गया, आप तो ना हिंसक है - ना वीगन और ना आत्ममुग्ध, एकदम इस्ट्रेट फारवर्ड हो" - लौट गया ससुर लाइवा
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"कहानी की पूँछ"
●◆●
यात्राएँ बहुत कुछ देती है, कल झाँसी आ रहा था पंजाब मेल से तो थोड़ी देर बाद किसी ने पूछा आप संदीप है ना - एकलव्य वाले ? मैं अंकित आपका फेसबुक और टाटा संस्थान वाला दोस्त, हम लम्बे समय से जुड़े है, खूब बातें फोन पर हुई पर मिलना पहली बार हुआ था
"अरे तुम, मज़ा आ गया", बस गले लग गए हम दोनों, अंकित ने हाल ही में कहानी कहने की कला पर टाटा सामाजिक संस्थान मुम्बई से पीएचडी की उपाधि ली है, और संयोग से उनकी गाइड हमारी बहुत पुरानी बेहतरीन मित्र, ख्यात शिक्षाविद प्रो पदमा सारंगपाणी रही है - जो धीर-गम्भीर और उदार चित्त वाली महिला है, पदमा खूब मेहनत करवा लेती है शोधार्थी से, पर अंत में हीरा निकलता है - पीएचडी के बाद शोधार्थी - यह भी लिखकर रख लो, यह संस्थान मेरा भी रहा है एक ज़माने में
अंकित से चार घण्टे जमकर बातचीत हुई, बचपन, पढ़ाई, ललितपुर, टाटा संस्थान, बैंगलोर, काम, इंग्लैंड, बोस्टन , MIT, उच्च शिक्षा और सबसे महत्वपूर्ण कहानी कहने की कला जिसमे वो निपुण और पारंगत है और देशभर में घूम-घूमकर बच्चों, किशोरों और शिक्षकों के साथ करते है, दिल्ली से पत्रकारिता करके, टाटा सामाजिक संस्थान मुम्बई तक का रोचक सफर और अब वही वे घुमंतू सहायक प्राध्यापक है
शमीम, अनुराग, स्व इलीना सेन, Dr Binayak Sen, आदि के साथ प्रो कृष्ण कुमार से लेकर पुराने ढेर सारे साथियों के बारे में बातें हुईं, सबसे बढ़िया यह था कि भविष्य में हम संग-साथ कैसे काम करें - इसपर भी गहन चर्चा हुई तसल्ली से, जल्दी ही अंकित देवास आयेंगे और फिर हम दो जटिल यायावर मिलकर नई ट्रेन बनाकर कोई रोचक साहसिक यात्रा शुरू करते है

ललितपुर आने पर आगे लम्बा चलने के वादे के साथ वे उतर गए, पर ये जो चार घण्टे थे - वे अदभुत इस मायने में थे कि मैं जो इस समय कहानी कहने की कला की बात कर रहा हूँ, देशभर में घूम-घूमकर मित्रों के साथ सीखना-सिखाना हो रहा है, उसके अकादमिक पहलुओं और नए आयामों पर एक युवा मित्र के इनसाइट्स मिलें, यूट्यूब पर "कहानी की पूंछ" में उन्होंने गिजु भाई की पुस्तक "दिवास्वप्न", ख्यात पुस्तक "तोत्तोचान" को अभिनीत कर रखा है जिसका उपयोग शिक्षक करते है
और इस सबमें यह बताना भूल ही गया कि Dr Ankit Dwivedi का आज जन्मदिन है, अंकित को खूब दुआएँ, शुभाशीष, प्यार और इतना कि वो जीवन में सदैव सर्वश्रेष्ठ हासिल करो
ये तस्वीरें सहेज ली थी - चलती ट्रेन में कि सनद रहे हमने भी एक दूसरे को अपनी - अपनी राम कहानी सुनाई थी और यह पुनः कहना चाहूंगा कि इसी फेसबुक ने सैंकड़ों अजब-गजब दोस्त दिए है जो धरोहर है और इंसानियत की मिसाल है, कई मित्र पूछते है कि इतनी यात्राएँ कैसे कर लेते हो धड़ाधड़ तो जवाब है कि यात्रा में दोस्त मिलते हैं और यही दोस्त मेरी संजीवनी है, बाकी तो और रख्खा क्या है जीवन में
और फिर सब एक दिन अपने रास्ते चुन लेते है - दोस्त, रिश्तेदार, परिचित और संगी-साथी,जीवन की आपाधापी में पता ही नही चलता कि हँसते खेलते हुए, सर्ग और पर्व के बीच, उल्लास और ठहाकों के बीच कब दुख के पल धीरे धीरे बीत ही जाते है, और उन सभी रास्तों के अंत भी किसी अँधेरे कुएँ में आकर खत्म हो जाते है
जूझना, संघर्ष करना, अक़्सर औंधे मुँह गिरना, असफलाओं की शिदोरी लेकर ख़ुश रहने के उपक्रम में हम नैराश्य के गहरे गर्त में खो जाते है, ऐसी कंदराओं में गुम जाते है जहाँ से वापसी का कोई मोड़ नही होता दूर-दूर तक, पर इस सबके बाद भी जीवन के हरे - हरे पृष्ठ, लहलहाती खुशियाँ हमें आकर्षित करती है कि एक जतन और अभी - एक जतन और, रोशनी उगाने का एक जतन और
लौट आते है हम उनके पास जिनके होने से साँसें धड़कती थी और अपने होने का एहसास पुख्ता होता है, पर हम उस चौराहे पर खड़े हो जाते है जहाँ सिवाय हमारी आवाज़ों के घेरे के कोई नही है, सब विदा हो चुके होते है और हमारी बेचैनियाँ प्रतिध्वनि के रूप में आकर टकराती है, हमारे पास कुछ नही होता
बस ठीक इसी समय आपको अपने जीवनानुभवों और दृष्टि, भोगे हुए सच और अपनी सीखों से सब कुछ साफ़ कहने का साहस ही ज़िंदा रखता है, इसलिये डरिये मत और वह बोलिये जो सबके भले के लिये है, जो सबके लिये सबक हो सकता है, जो शाश्वत है - इस वायवीय दुनिया और समाज को जोड़ने वाले माध्यम पर ब्लॉक होना, ब्लॉक करना बहुत सहज और स्वाभाविक है और इतने वर्षों में हम यह समझ ही गए है कि लोग वैसे होते नही जैसे यहाँ भौंडा प्रदर्शन करते है
फ़िलहाल, सुकून से जी लीजिये, घड़ी की सुई टिक टिक कर आगे बढ़ रही है, इसके पहले कि वह अपने मूल स्थान पर पुनः आगे बढ़ने को लौटे आपके पास इस क्षण की भरपूर स्मृति होना चाहिये मज़े और खुशी की
यात्रा में 24 जून 24 / प्रातः 10.12
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कब से कह रहा हूँ इन घाघ लोगों के चक्कर में मत पड़ो, सब मिलें हुए है जी - सिर्फ और सिर्फ किताब बेचने का धंधा है, बाकी तो चारों - पाँचों का गर्भ नाल एक ही जगह गड़ा हुआ है जहाँ चुड़ैलों और प्रेतों के साये है और नीचता के बीज पनपते है और इसी से इन जैसे नरपिशाच विकसित होते है
आप-हम जबरन खून जलाकर आपसी रिश्ते खत्म कर रहें हैं, मणिशंकर अय्यर ने सिर्फ़ अलाने - फलाने जी को थोड़े ही कहा था - उस नीच शब्द के अर्थ बहुत दूर तलक आते है
छोड़ो, सब बकवास है ये मुगालता दूर कर लीजिये कि साहित्य से समाज सुधर सकता है, ऐसे घटिया लेखक, हरामखोर प्रकाशक और मार्केटिंग के वीभत्स जीव-जंतु,फेलोशिपजीवी आत्ममुग्ध फर्जी लेखिकाएँ जब तक जिंदा है - कुछ नही बदल सकता
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यही तक लिखा था यहाँ का दाना-पानी, यही तक बंधे थे भाग और यह भी दर्ज होगा किसी मिट्टी में जब लिखी जायेगी यायावरी की कहानी
बहुत गम्भीरता से सोचता रहा रातभर कि पता नही क्यों अंदर से लग रहा है जीवन में यह राँची की आख़िरी यात्रा है, पिछले दस - बारह वर्षों में कई बार आया और कई मित्र बनाएं, पुराने संगी - साथियों से मिला, इसलिये अबकी बार पूरा एक दिन तसल्ली से रहा और सबसे मिल लिया, घूमना था - घूम लिया, जो देखना करना था - कर लिया, बल्कि अब सारी ही यात्राएँ और मिलना - जुलना सम्भवतः क्षणांश हो
अब लगने लगा है कि जिससे भी मिलो एक स्मृति की तरह मिलो - जैसे एक सूखे पेड़ के पास रह जाती है वसंत की याद, जैसे चातक और चकोर के पास रह जाती है पहली बरसात की बूंदों की महक और जैसे रह जाये किसी धरती पर आसमान का साया सदा के लिये
सबका शुक्रिया और सबको शुभेच्छाएँ - सृष्टि रही तो किसी मोड़ पर मुलाकात हो
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यात्राओं से हम सीखते है, यात्राओं से हम जीवन के बुरे अनुभव लेते है, यात्राएँ हमारी पहचान बनाने और समझ विकसित करने में मदद करती है, पर एक समय बाद हमें ठहरकर इन दुर्गम यात्राओं का विश्लेषण भी करने की जरूरत होती है कि हमारा ध्येय, मार्ग और पड़ाव कितने पठनीय है, कितने रोचक और संवादों से भरे हुए है - यदि हमें लग रहा है कि हम किसी भी यात्रा में किसी बेताल के शव को ढोते हुए किसी और मक़सद या किसी और की ज़िंदगी जीने के उपक्रम में यात्रा करते हुए खुशियाँ तलाश रहें है तो फिर सारी यात्राओं के मार्ग अवरुद्ध कर भीतर की ओर चलना शुरू कर देना चाहिये
राँची / प्रातः 430 / 23 जून 24
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हाल ही में हुई यात्राओं में आये अनुभव और विभिन्न शहरों जैसे नागपुर, इंदौर, भोपाल, पूना, राँची, मुम्बई से लेकर देश के हर छोटे बड़े शहर में ट्रैफिक की समस्या को देखते हुए निम्न सुझाव है
◆ मन्दिर, मस्ज़िद, गिरजाघरों और गुरुद्वारों की जमीन को छोटा किया जाए और उन जगहों से सड़कें निकाली जाएं - अमूमन ये शहरों के बीचोबीच स्थित है और एकड़ों में जगह घेरकर जमे हुए है, सँविधान भी धर्म को व्यक्तिगत आस्था मानता है तो पूजा पाठ, नमाज, प्रार्थना, अरदास घरों में क्यों नही - हर पचास कदम पर मजार , मन्दिर या चर्च सड़कों पर होने की क्या आवश्यकता है (एक कुएँ में रहकर कुंठित किस्म की महिलाएँ और पुरुष ज्ञान ना दें इस मुद्दे पर )
◆ इनके आसपास के बाजार, वेंडर जोन्स आदि को दूर दराज के इलाकों में स्थानांतरित किया जाए
◆ कलेक्टर से एसपी लेकर छोटे अधिकारी, न्यायाधीशों और विधायक, सांसदों, मंत्रियों के बंगलें छोटे किये जायें, जब एक बड़ा परिवार तीन बैडरूम के फ्लैट या डुप्लेक्स में रह सकता है तो ये कौनसी ऐसी सेवा कर रहें कि इनके बंगलों में खेती लायक जगह हो, चार पांच लोग अधिकतर परिवार के सदस्य होते है तो फिर इनको इतनी जमीन क्यो, सीहोर में कलेक्टर के बंगले में खेती होती है, इंदौर में एमजी रोड पर न्यायाधीशों ने करीब 5 वर्ग किमी की जगह घेर रखी है जबकि सबसे ज़्यादा ट्रैफिक जाम इसी रोड पर होता है, भोपाल में मंत्रियों और मुख्यमंत्री के निवासों ने हजारों एकड़ जमीन घेर रखी है, बल्कि मुख्यमंत्री निवास ने तो पहाड़ी घेर रखी है, राज्यपाल भवन ने बीचोबीच कबाड़ा कर रखा है, बड़े बंगलो में ये कौनसा तीर मारने का काम करते है आख़िर
◆ निज उपयोग के लिये खरीदी जाने वाली कार और बड़े वाहनों पर तुरंत प्रभाव से प्रतिबंध लगाया जाए , पुल वाहनों को प्रोत्साहित करें
◆ रोड पर खड़े रहकर सामान बेचने वाले और चाट बेचने वाले अतिक्रमणकर्ताओं को सामान सहित छह माह के लिये जेल में डाला जाए ताकि सही नज़ीर बने तो लोग बीच सड़क पर खड़े होकर बेचने की हिम्मत ना करें
और सुझाव आमंत्रित है
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चिकित्सा पेशे में अच्छे डॉक्टर तो बहुत है, अपने काम में दक्ष - कौशल में परिपूर्ण, परंतु व्यक्ति अच्छा होना सबसे महत्वपूर्ण है, फेसबुक की दुनिया ने बहुत अच्छे डॉक्टर मित्र भी दिए हैं जिनमें Dr Avyact Agrawal, Dr Ajoy Sodani, Dr Sanjay Chaturvedi, डॉक्टर स्कंद शुक्ला और साहित्य के डॉक्टर ज्ञान चतुर्वेदी यानी ज्ञान दा है ही

अनुज और डॉक्टर Govind Madhaw , MD, DNB, MD (Neuro) एक बेहतरीन न्यूरोलॉजिस्ट ही नही, पर अच्छे लेखक और बहुत ही परिपक्व व्यक्तित्व है, वे जब पढ़ रहे थे - तब से उनकी लेखनी और व्याख्यानों का मुरीद रहा हूँ, राँची से स्नातक करके वे पटना, AIIMS ऋषिकेश और राँची में पढ़ते - पढ़ाते रहें, फिर राँची में ही उन्होंने अभी अपना एक न्यूरो अस्पताल शुरू किया CNS, मात्र 36 वर्ष की उम्र में इतनी उपलब्धियां हासिल करना विशिष्ट योग्यता है
पिछले आठ - दस वर्षों से उनसे मिलकर बात करने का मन था, अबकी बार यह तय करके आया था, आख़िर परसो शाम को उनके व्यस्त समय में से आधा घण्टा लिया और खूब गप्प की, मेडिकल साइंस से लेकर दवाएं, जाँच, मेडिकल का इतिहास, समाज और साहित्य के साथ झारखण्ड की स्थितियों पर बातचीत हुई
अपने दिमाग़ का भी इलाज पूछ लिया जो अक्सर खराब रहता है, डॉक्टर गोविंद ने बहुत रोचक और शैक्षिक बातें करते हुए बताया कि सन 1600 के बाद हमारा दस्तावेजीकरण लगभग ठप्प हो गया है और जो कुछ भी लिखा जा रहा है वह बहुत प्रामाणिक नही है, खासकरके मेडिकल के क्षेत्र में पश्चिम ने जो तरक्की की उसके पीछे उनकी लेखनी और रिपोर्टिंग की मेहनत ज़्यादा है इसलिये वे ज्यादा प्रामाणिक प्रतीत होते है , आयुर्वेद और बाकी समानांतर इलाज की पद्धतियों की बात करते हुए कहा कि ये कारगर है पर सिर्फ मन को समझाने जैसा है पर जटिल केसेस में आपको एलोपैथी की तरफ आना ही पड़ेगा बेहतर हो कि आप शुरू से इस ओर आयें

राँची के मेडिकल हब वाले क्षेत्र यानी RIMS के पास ही छह मंज़िला अस्पताल बनाया है और वे लगभग 24 घण्टे ही मरीजों के लिये उपलब्ध होते है - एक संवेदनशील डॉक्टर और मददगार के रूप में
गोविंद के अनुज यानी Anand Keshaw एक काबिल इंजीनियर है जो गत चार वर्षों से Texas, US में थे, पर जब अस्पताल का नया प्रकल्प आरम्भ किया तो वे मदद करने आ गए और अब अस्पताल का पूरा प्रशासनिक काम देखते है, आनंद ने पूरा अस्पताल दिखाया और आवभगत की
इस समय में जब हम अपने लोगों से बात करने, मिलने के लिये तरस जाते है - ऐसे समय में डॉक्टर गोविंद ने समय दिया, दिल खोलकर बहुत स्नेह और अपनत्व से बातें की और सलाह दी, ताकि मैं आगे का अपना भविष्य, लेखन, सामान्य बातें और मेडिकली भी ठीक रख सकूँ - वह अदभुत है, वे राँची के श्रेष्ठ न्यूरोलॉजिस्ट है यह कहने में मुझे कोई गुरेज़ नही है
जब हम तस्वीरें खिंचवा रहे थे तो मैंने ध्यान से देखा कि गोविंद की कुर्सी के पीछे गौतम बुद्ध का एक बड़ा सा पोस्टर लगा था और गोविंद के चेहरे पर भी वही शांति और मुस्कुराहट थी - जो बुद्ध के चेहरे पर थी, एक बीमार के लिये यह मुस्कुराहट और शांति एक बड़ी उम्मीद है, तसल्ली और जीवन के कष्टों से निजात पाने की आश्वस्ति है - यह भरोसा और आस्था हमेंशा बनी रहें - ये दुआएँ देते हुए मैं बाहर आया
दोनों भाइयों का बहुत - बहुत आभार और धन्यवाद, खूब स्नेह और दुआएँ - हम जैसे साधारण लोगों के पास इसके सिवा है ही क्या, पर किस्मत जरूर है जो ऐसे विलक्षण, दक्ष और विद्वजन के साथ जुड़े है
Pradeep Gupta के बिना यह असम्भव थी मुलाकात और इस शाम का अंत प्रदीप की अर्धांगिनी मनु से मिलकर समपन्न हुई जो स्थानीय राजकीय महाविद्यालय में अंग्रेज़ी की प्राध्यापक है
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वह गांधीवादी है
वह वीगन है
वह शुचिता और लोकव्यवहार का धनी है
सदी का स्वघोषित सबसे बड़ा लेखक है
नैतिकता का पुजारी है - जो अपने सगों और सहोदरों से रिश्ता ना निभा पाया और आज भी संसार जोड़ने की बात करता है
सोशल मीडिया पर मर्सिया गाता है और सबका नैतिक और आचरणगत खून करके लौट जाता है धंधे पर और बाद में यहाँ जुलाहों में लठ्ठम लठ्ठा होता रहता है
स्त्रियां विलाप करती है, पढ़ी - लिखी डेढ़ दो किलो मेकअप पोतकर महफ़िल दर महफ़िल दिनभर घूमने वाली बूढ़ी तितलियाँ अपनी मूर्खता में ही सरोबार हो जाती है, संवेदनशील प्रबुद्ध कहलाने वाली कुंठित और साहित्य में अस्वीकार्य स्त्रियाँ अपनी सड़कछाप भाषा पर उतरकर विलाप करती है और जगत को कोसती है - क्योंकि काम धँधा है नही कुछ
उधर वह किताब का हिसाब करता है आज कितनी बिकी, प्रकाशक के साथ मुर्गे की टाँग चबाते हुए सोमरस की गंगा में नहाता है और फिर अगले उत्सव की तैयारी करता है
विद्वान व्यस्त है कुतर्क देने में और रोज लिखकर अपनी ऊर्जा जाया कर रहें है, युवा कवि और फेलोशिपजीवी उजबक किस्म की फर्जी लेखिकाएँ जो अनुवाद और विकिपीडिया का कॉपी पेस्ट इस्तेमाल कर बौद्धिकता का संजाल बिछाकर आतंक पैदा करना जानती है, जिन्हें हिंदी से ज्यादा विदेश के भड़ैत ज़्यादा रास आते है - अपने आपको कोस रही कि इस धरा पर क्यों जन्मी और हिंदी के मूर्धन्य लोग इस मुर्गा लड़ाई का मज़ा ले रहे - जैसे बस्तर के तोकापाल में साप्ताहिक हाट में सल्फी या महुआ की कच्ची दारू पीकर हँसते है और शाम को पुट्ठे की धूल झाड़कर घर लौट जाते है
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मप्र हिंदी साहित्य सम्मेलन का 14 से 16 जून 2024 तक भोपाल में आयोजित "नीलम जयंती समारोह" इतिहास में दर्ज हो गया है, देशभर के रचनात्मक और सक्रिय साहित्य, फ़िल्म और संस्कृति की विधाओं से जुड़े लोगों ने इसे स्वर्ण अक्षरों में लिखा है
दर्जनों पुस्तकों का लोकार्पण, दर्शनीय और वैचारिक फिल्मों का प्रदर्शन, सम-सामयिक विषयों पर बातचीत, उदबोधन, मेल-मिलाप, चर्चा, माकूल इंतज़ाम और बगैर विवादों के इतना बड़ा आयोजन तीन दिन में कब खत्म हो गया - मालूम ही नही पड़ा, इस अवसर पर विभिन्न प्रकार के पुरस्कारों से मित्रों को अतिथियों द्वारा नवाज़ा गया - उन सबको बधाईयां, वर्चुअल और सोशल मीडिया के कई मित्रों से मुलाकात एक बड़ी उपलब्धि है और जो सम्बन्ध बनें, इन तीन दिनों में वह भी याद रहेंगे
मप्र हिंदी साहित्य सम्मेलन ने इस अवसर पर "मप्र के इतिहास में महिलाएं" नामक वृहद ग्रन्थ प्रकाशित किया है जिसमें मप्र की सभी क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं के बारे में विस्तृत आलेख और उनके कामों की जानकारी है, यह सुघड़ और सुपठित कार्य सारिका ठाकुर जी के लगभग दो साल की मेहनत, श्रम और कई रातें कुर्बान करने के साथ श्रेष्ठ सम्पादन में सम्पन्न हुआ, इसमें विदुषी स्व वसुंधरा कोमकली जी के बारे में एक आलेख मेरा भी है
इस पूरे आयोजन का श्रेय श्री Palash Surjan जी के संयोजन और अनुभव को जाता है जो एक कुशल नायक की तरह से आयोजन की परिकल्पना से लेकर अंत तक हर जगह उपस्थित थे और यह बेहद जटिल और श्रम साध्य काम पूरा किया, पलाश जी ने प्रदेश में घूम -घूमकर जो टीम बनाई है और काम किया है वह इधर देश में कही देखने को नही मिलता
उनकी टीम में भाई और संगठन मंत्री द्वय सर्वश्री Mani Mohan , Santosh Kumar Dwivedi, Bhavesh Dilshaad , राग तेलंग Arun Pathak, Sarika Thakur जी, एवं साथीगण अभिषेक वर्मा से लेकर Sharbani Banerjee, अरूण डनायक जी और पूरा कार्यालयीन स्टाफ शामिल है
Sudeep Sohni की फ़िल्म "यादों में गणगौर" अदभुत फ़िल्म थी और प्रत्यूष बाबू से मिलना नोबल पाने जैसी उपलब्धि, शुक्रिया सुदीप
मप्र के हर जिले की इकाइयों से आये साथी, देशभर से पधारें साहित्यकार, फ़िल्म निर्देशक, स्थानीय साथी, मीडिया के साथी भी धन्यवाद के पात्र है
साहित्य उत्सवों और अन्य कार्यक्रमों के बरक्स यह आयोजन बहुत ही सार्थक, सफल और वैचारिक रूप से हिंदी और विभिन्न भाषाओं को समृद्ध करने में कामयाब रहा है, इसकी अनुगूंज आने वाले कई वर्षों तक गूंजती रहेगी, अभी इसका खुमार कब तक रहेगा मालूम नही, थोड़ी फुर्सत होते ही सबसे फोन और बातें होंगी और होती रहेगी यह वादा है, आज से 6 जुलाई तक लगातार बाहर हूँ
कहा - सुना माफ और सब भूलकर मधुर स्मृतियों को बचाये रखियेगा मित्रों, बाकी तो जो है - हइये है
पुनः धन्यवाद सबका और बधाईयाँ
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मृत्यु अवश्यम्भावी है और इसका कोई भरोसा नही है - कब आ जाये, पर जीवन जब तक है भरोसेमंद है - अपने कर्मों पर भरोसा रखिये, इसलिये जब तक है तब तक संघर्ष करते रहिए, लगे रहिये
हम सबके साथ कुछ न कुछ लगा रहता है, दौड़भाग, समस्याएँ, अवसाद, तनाव, खुशियों के छोटे अस्थाई पल आते है बरसात की बूंदों की तरह पर जीवन सरपट भागता रहता है, बस थोड़ा ठहरे, विचारे, सुस्ता लें और फिर लग जाये
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जीवन भर हम गलतियाँ करते है पर एकाध गलती जीवन भर के लिये घाव बन जाती है जिसे हम बार-बार ठीक करते है पर वह नासूर की तरह हमेंशा बढ़ते रहती है और यही द्वंद और प्रयास जीवन का सच्चा अर्थ है, और ऐसा नही कि यह गलती हो जाती है, हम उपलब्ध विकल्पों में से खुद यह चुनते है और फिर सदा के लिये दुखी होते रहते है, विकल्पों की बहुलता भी एक बड़ा कारण है और अधिकांश विकल्प नकारात्मक होते है जो क्षणिक सुख ही देते है पर हम इन सस्ते विकल्पों को चुनकर संताप मोल ले लेते है, प्रसन्नता और दुखों के दानावल के बीच का जीवन ही संघर्ष का परिचायक और उम्मीदों का सत्व है जो हमें लगातार आगे बढ़ाता है

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