नरेश सक्सेना जी की पोस्ट काफी वायरल हो रही है कि उन्हें 6 घण्टे डिजिटल बंधक बनाकर रखा गया
मैंने सुना है कि कोई युवा (विनय मिश्रा शायद) उनके सारे अकाउंट्स मैनेज और मॉडरेट करता है
और वे खुद मप्र के एक जिले से वरिष्ठ इंजीनियर के पद से रिटायर्ड हुए है, काफी बड़ी वैश्विक दृष्टि है उनकी और दुनिया की खबर रखते है, उस ज़माने के जबलपुर इंजीनियरिंग के उत्तीर्ण छात्र है जब जिले में एकाध इंजीनियर होता था
कुछ तो गम्भीर लोचा है - यह सब इतना सरल और सहज नही है
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भयानक रूप से आत्म मुग्ध होकर अपनी किताबें बेचने और प्रचार के लिये जितना पाखंड, गोरख धँधा और घटियापन हिंदी में है उतना कही नही है, लोग रिश्तेदारों तो दूर अपने कुत्ते - बिल्लियों और घर में पल रहे शुकर देवों और नीलगाय से भी प्रचार करवा लें रहें है, घर में काम करने वाली बाईयाँ, रसोइए, माली, ड्राईवर भी किताबें वाट्सएप्प से लेकर इंस्टाग्राम पर बेचने लग जाये तो आश्चर्य नही होगा - सवाल किताबों और साहित्य का नही पर आप इस पूरे घटियापन, छिछोरेपन और टुच्ची राजनीति के क्रम को समझें ज़रा
इतना शर्मनाक है यह सब कि ना किसी को पढ़ने समझने का मन है ना किसी से बात करने का, मतलब हद यह है कि विचारधाराओं के अंत की घोषणा के बाद लोग एक्ट्रीम पर जाकर लिखने को आमादा है और बाकायदा इस बेचवाली के लिये युद्ध स्तर पर पहले माहौल बनाया जाता है, सोशल मीडिया पर ये स्वयंभू माफिया बाकायदा पूर्व निर्धारित तरीकों से लड़ते है, कुतर्क करते है, फिर प्रकाशक आता है, फिर दस्तावेज़ दिखाये जाते है, फिर फ़िल्म और संस्कृति की बात होती है और अचानक से हिन्दू मुस्लिम एकता की कहानियाँ आती है और एक शाम नई किताब की घोषणा, प्री बुकिंग होना शुरू होता है - क्रोनोलॉजी समझिये गम्भीरता से इनकी
प्रकाशक तो निहायत ही धूर्त और मक्कार है उसे इस बंदर और बिल्ली लड़ाई में अपना फायदा लेना है - सब बिकेगा और जो जितना कुतर्क से अपनी बात रखेगा या ठेठ देशी भाषा में कहूँ तो जो इस बाज़ार में घर खानदान सहित जितना नँगा होगा वह उतना ही यश, कीर्ति के साथ धन उगाही करेगा, जयपुर से लेकर दिल्ली, प्रयागराज, बनारस के कुछ प्रकाशकों को तो अपनी सूची से बाहर किया ही था, अब फिर से छँटनी करनी पड़ेगी
अफ़सोस सिर्फ़ यही है कि जो लोग एक प्रिंट आउट निकलने पर पेड़ हत्या का पाप अपने सिर ले लेते थे, वो आज टनों से कूड़ा लिखकर कमाने की हवस में विशुद्ध बाज़ार में खड़े है
धिक्कार है इन संगठित गुंडों - मवालियों पर जिनके घरों में हिंदी या मातृभाषा की किताबें कम अंग्रेजी का रायता ज्यादा है, हर हगे-मूते पर अंग्रेजी लेखक का नाम लिए बिना इनका कब्ज़ साफ नही होता, अपने वीभत्स प्रदर्शनों में हिंदी का एकाध पन्ना अंग्रेजी के बीच यूँ लगता है जैसे रज़िया फँस गई गुंडों में
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इससे तो ना बनाते, और जिस पूर्वांचल की कुर्सी की बात हो रही, वह तो खुद ही अब खतरे में है, दावेदारों का क्या, अवध हो या मेरठ, जौनपुर हो या गाजियाबाद - कालीन भैया विक्षप्त हो गए है गुरू, दिल्ली तो छोड़ो - लखनऊ इनके बस का नही रहा
एकदम घटिया #मिर्जापुर3
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बढ़िया
जिनका ज़िक्र इस किस्से में है, वे भाई स्व चंद्रकांत को मेरी बुआ उषा ब्याही थी, चंद्रकांत जी उम्र भर हाईकोर्ट इंदौर में रहें और बुआ जिला कोर्ट से रिटायर्ड हुई , बुआ का बेटा उदय भाभा परमाणु केंद्र मुम्बई से निदेशक के पद से सेवानिवृत्त होकर अब पूना में रहता है
बचपन की स्मृतियाँ धुंधली हो गई है वरना यादें तो बहुत है, दिवाकर दादा से कभी कभी बात हो जाती है , जो रायपुर रहते है
आपने बढ़िया संस्मरण उठाया है
Vishnu Nagar's Post on 8 July on FB
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