भारत ही नही दुनिया में हर जगह पढ़े लिखें युवाओं को नौकरी नही मिल रही, लगातार प्रतियोगी परीक्षाओं में असफल हो रहें है, यहाँ - वहाँ एडहॉक पढ़ाकर, कुछ बनिये की नौकरी कर, अदालतों में वकीलों की मुंशीगिरी करके, आर्किटेक्ट के यहाँ नक्शों की कॉपी बनाकर, आर टी ओ एजेंट के यहाँ कागज़ इकठ्ठा करके, डॉक्टर के यहाँ पर्चे फाड़कर जैसे तैसे कमा रहे है दस - बीस हज़ार, कुछेक के लिये यह रकम भी बहुत बड़ी है
इस सबमें उम्र बढ़ रही है, शादी - ब्याह हो नही रहें, किराए के दड़बों और अँधेरे सीलन भरे मकान में अडाणी-अम्बानी बनने के सपने फलीभूत नही होते और फिर घर - परिवार की जिम्मेदारियां, माँ बाप की, बहनों और भाईयों की अपेक्षाओं का बोझ, असफल प्रेम और कुल मिलाकर उम्र के चौथे दशक तक आ गए घिसटते हुए
यह सारा परिदृश्य भयावह है, दूसरा योग्यता के नाम पर डिग्रियों की माला है पर ज्ञान एक कौड़ी का नही, एक वाक्य हिंदी - अंग्रेजी में लिखने की कूबत नही, हर जगह राजनीति, चापलूसी, अतिरेक, और जुगाड़ सेटिंग से हर लड़ाई लड़ने का माद्दा घातक है
ऐसे में भारत की युवा पीढ़ी जो 21 से 38 - 40 वर्ष की है - इस समय भयानक डिप्रेशन और फ्रस्ट्रेशन में है, बहुत बीमार है, सरकार की 1 करोड़ युवाओं को इंटर्नशिप देकर प्रशिक्षित करने की योजना भी 21 - 24 वर्ष तक के युवाओं के लिये है, पर इससे ज़्यादा वालों का क्या करें जो आधे -अधूरे है और नितांत औघड़, यही कारण है कि ये लोग पढ़े - लिखें होने का फायदा उठाकर आईटी का इस्तेमाल कर सायबर अपराधों की दुनिया के बेताज़ बादशाह बनें हुए हैं
मेरी चिंता इनके फ्रस्ट्रेशन, गहरे डिप्रेशन और भविष्य को लेकर है - क्योंकि जीवन में जो पाना था, वो तो पा नही सकें और अब जिस तरह से ये सब मानसिक रोगी बन रहे है वह आने वाले समाज और पीढ़ियों का भयानक नुकसान करेगा, धार्मिक आस्था हो या पहचान के मुद्दे पागलपन की हद तक जाकर ये युवा पीढ़ी बौरा गई है
इनका इलाज किसी के पास नही है, अयोग्यता का कोई इलाज होता भी नही, सच में थोड़े भी योग्य या कुशल होते तो मैकेनिक ही बन जाते या बहुउद्देश्यीय स्वास्थ्य कार्यकर्ता या ग्राम पंचायत में सचिव, पर वही ना कि ना कौशल और ना दक्षता और राजा बाबू झमाझम
शिक्षा व्यवस्था को कोसना भी बेकार है, आख़िर हम सब भी तो इसी के प्रोडक्ट्स है इतनी बुरी ज़िंदगी तो नही जी हमने
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बार - बार पलटता हूँ और अपनी दृष्टि दूर तक फैलाता हूँ - जहाँ तक हो सके, फिर बहुत गहराई से देखने - समझने की कोशिश करता हूँ, ज़िंदगी में आने वाले उतार - चढ़ाव को विश्लेषित करने की चेष्टा करता हूँ और हर बार असफल होता हूँ, झल्लाता हूँ, खीजता हूँ, चिढ़ता हूँ और गुस्सा भी करता हूँ क्योंकि यह सब मेरी मनुष्यगत कमजोरियां है जिन्हें मैं बहुत उदारता से कहता हूँ, स्वीकारता हूँ और इसकी संस्तुति करके प्रतिपुष्टि करता हूँ, कोई अनुतोष नही और कोई प्रतिफल नही लेता अपने आप से इस हेतु
फिर लगता है यही सब तो हरेक के साथ हुआ है - मेरे सामने महावीर आते है, बुद्ध आते है, श्रीकृष्ण है, श्रीराम है, जीसस है, मरियम है - दुनिया भर के धर्म, साहित्यिक ग्रन्थ, प्रवचन, सदवचन, किस्से, कहानियाँ इन्ही दानावलों और कष्टों से भरे पड़े है पर एक बात सबमें सबसे ज़्यादा सांझी है कि ये सब लोग ज़माने से बहुत अलग रहें और हमेशा सच बोलें, बगैर भय और किसी स्वार्थ के और सच के साथ ही ख़त्म हो गये
और यही लड़ाई का सार भी है और कहना भी है कि हम लोग जो रोज़ आपस में लड़ कर अपने स्वार्थ सिद्ध कर रहें हैं, अज्ञानता वश और दुर्भावना से प्रेरित होकर अपने अलावा सबको नीचा या कमतर दिखाने का कुत्सित प्रयास कर रहें है वह हमें तनाव, अवसाद और अपराध बोध के अलावा कुछ नही दे रहा, पर एक अंधी दौड़ का हिस्सा बनकर इस आकाशगंगा के किसी अनजान कोने में जहाँ हमारी किसी सूक्ष्म जीव जितनी औकात नही वहाँ हम अपने को ब्रह्मण्ड समझ बैठने का गुरूर पाल रहें हैं
मैं अपने आप से शुरू करता हूँ और फिर अपने पर ही लौट आता हूँ और इस पूरे चक्र में लगता है कि हर बिंदु पर बुद्ध, नानक, महावीर, कृष्ण, राम, जीसस, जरथ्रूस्त या हर वो व्यक्ति खड़ा है जिसके पास सिर्फ सच कहने का साहस है और यह सच सापेक्ष है - सबका अपना सच और अपने मानकों पर कसा हुआ सच है जो दूसरों के लिये गलत, झूठ, बकवास, बनावटी और अश्लील है
दुख होता है जब हम बहुत छोटे मुद्दों से शुरू होते है और एक भयावह अंत पर जाकर खत्म हो जाते है, और इस पूरी यात्रा में जितना नुकसान हम स्वयं का करते है - वह अकल्पनीय है और इसकी क्षतिपूर्ति कोई नही कर सकता, लगता है कि बार - बार हमें ही खुद को परिष्कृत करने और माँजने की जरूरत है और इसके लिये मन को निर्मल करना होगा - छल - कपट और दोषरहित करना होगा
आवश्यकता है कि हम बहुत संतुलित हो जाये, हर जगह को त्यागकर अपने सीमित स्थान में सिमट जाये और एक आविर्भाव मौन ग्रहण कर लें - तभी विरेचन भी होगा, एषणा भी छूटेगी और शायद हम कोई अर्थ खोज पायेंगे अपने होने के
महावीर हो या बुद्ध - जब मौन हुए तभी संसार को एक नया धर्म और भाषाई समझ दे पायें, कृष्ण का तटस्थ भाव ही गीता रच पाया , जीसस को कहना पड़ा कि प्रभु इन्हें माफ कर दो ये नही जानते कि ये क्या कर रहें है और तमाम गुरुओं की लड़ाई सबसे पहले अपने - आप से ही थी
अंग्रेज़ी में एक शब्द है Mutiny और यह शब्द मुझे बहुत आकर्षित करता है - इसे समझता हूँ तो Epilogue और Epitaph भी याद आते है , बहरहाल, चिंतन और व्यवहारिकता के बीच इन्ही लोगों और द्वंदों के साथ जब तक जीना है तब तक रहना है, न हम लोगों को बदल सकते है ना खुद बदलना चाहते है, और आख़िर बदलना या बदलाव भी महज़ शब्द ही है, असली चीज़ है परिवर्तन - जो नामुमकिन है और इसके लिये बुद्ध के समान लम्बी यात्रा करना होती है, बाकी मौत के बाद तो ये सब लोग भी आँख की शर्म के लिये उस भीड़ का हिस्सा होंगे जो कहेगी -
ओम शांति
राम नाम सत्य है
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