"A Suitable Boy"
अपनी अयोग्यता के ठीकरे फोड़ने की मानसिकता
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अनंत अम्बानी की शादी पर सोचा था कि नही लिखूँगा और आज तक नही लिखा पर अब जब शादी हो गई तो लग रहा है कि लोग सिर्फ़ खीज़, अपराध बोध, पीड़ा, और अपनी अक्षमताओं से उपजी गरीबी को लेकर अपनी कुंठाएँ व्यक्त कर रहें है, अरब से लेकर अमेरिका तक मे अमीर लोग बच्चों की शादियाँ ऐसी ही करते है, अम्बानी ने कुछ नया नही किया, ये वास्तव में बिजनेस डील्स है और नए क्षेत्रों में होने वाले समझौतों की नींव और सब विशुद्ध व्यवसाय है और रुपया कमाना और खर्च करना कोई अपराध नही
एक रईस परिवार में यह सब होना शामिल है, जिसे बुलाया गया है वह निमंत्रण से गया है फिर वह कोई भी हो, आपकी औकात ही नही थी, उम्र के 40 से 70 साल तक ऐसा कोई काम ही नही कर पाए कि आपको कोई अपनी खुशी में शामिल करें, आपको तो अपने मुहल्ले वाले या रिश्तेदार भी नही बुलाते होंगे, यह तो औकात है आपकी, दो कौड़ी की न्यूज या कविता - कहानी लिखकर बड़े शेर समझते है, दो कौड़ी का मास्टर बनकर अपने आपको खुदा मान लिया क्या
हर आदमी अपनी औकात के हिसाब से खर्च करता है, इतनी गरीबी और भुखमरी के बाद भी बाजार अटे पड़े है भीड़ से - सोना 72000/- पार होने के बाद मोह छूट रहा क्या लोगों का, शादियों में भोजन की बर्बादी हर जगह है - किसी को शर्म है, अपने आपसे पूछ लीजिये कितना भकोसते और फेंकते है आप, फ्री का मिलने पर, अभी लगातार प्रशिक्षण कर रहा हूँ तो देख रहा कि होटल्स में लोग इतना खाते है कि अमेरिका का पुराना आरोप सही लगता है कि भारतीय बोझ है पृथ्वी पर, सारा अन्न खा जाते है
डांस, मस्ती, मिलना - जुलना, गिफ्ट्स, जेवर, मेहमानों की आवभगत, आदि कोई आज नया तो नही हो रहा अनन्त की शादी में पहली बार, आपके घरों में रात भर दारू, ढोल और अश्लील गानों पर घर भर थिरकता है तब आप भी तो धनपशु हुए ना, आपकी महिलाएँ भी ठुमका लगाती है, आप भी पार्षद से लेकर अड़े सड़े नेता को बुलाने के लिए आतुर रहते हैं फिर गाली उसे क्यों, हमारे झाबुआ, अलीराजपुर और मंडला - डिंडौरी में एक आदिवासी परिवार जिसके घर में दो सौ रुपये का सामान नही वो डेढ़ दो लाख की महुआ पिला देता है बारात को और चार पाँच लाख खर्च कर देता है, दलितों के यहाँ आठ दस लाख खर्च होना सामान्य हो गया है, हमारे खाती, पाटीदार, मराठा, राजपूत, बनियों, जाट, गुर्जर, विश्नोई, सिंधी, यादव, साहू, जायसवाल और ब्राह्मणों में एक शादी आजकल 30 से 40 लाख की पड़ती है, तो आप भी धनपशु है ना
जियो के भाव बढ़ने को शादी से जोड़ना और व्यंग्य करना भी कमजोर समझ का द्योतक है, जब देश के प्रधान ने जियो का टीशर्ट पहनकर प्रचार किया या BSNL, MTNL आदि पर संकट था - कितने लोग सड़क पर समर्थन में आये और क्या मुकेश अम्बानी पीले चावल लेकर घर आया था आपके घर कि कनेक्शन ले लो, फ्री की चूल किसको थी, बहुत साल पहले एक छोटा सा फ्री रिलायंस आया था तब सबसे ज़्यादा किसने लिए और सब्जीवाले से लेकर मोची- बढाई, सुतार या सफाई कर्मचारी ने मोबाइल क्रांति को जन्म दिया था, जरूरत क्या थी सबको मोबाइल लेने की, बिस्तर पर पेशाब करते बच्चों को मोबाइल की आदत किसने डाली, पाँच साल के बच्चे को आईपैड लाकर जियो की सिम किसने डाली
लैंडलाइन किसने कटवाए, क्या दिक्कत थी लैंडलाईन में - हमको तो संडास में, छत पर, रजाई में और कार चलाते हुए भी मोबाइल चाहिए ना - तो बाजार तो Demand & Supply पर काम करता है ना, अब क्यों रो रहे हो, यही समझ है आपकी, बिजनेस की डेस्क है आपके पास अपने टुच्चे अख़बार में, क्या पढ़कर आये गोबर गणेशों
शर्मनाक है कि आप एक नवयुगल युवा दम्पत्ति को धनपशु से लेकर तमाम तरह की वीभत्स गालियां देकर अपनी अक्षमता और कुंठा भड़ास के साथ निकाल रहें है, आप अपनी शादी को याद करें कि आपके अभिभावकों ने क्षमता से ज्यादा खर्च किया और मरने तक कर्ज भरते रहें - आपको शर्म है
सरकारें तो बैठी ही धँधा करने है - मोदी हो, केजरीवाल, कांग्रेस, ममता, अखिलेश या कोई और - निवेशक सम्मेलन क्या है जो हर राज्य कमोबेश पूरी बेशर्मी से हर वर्ष आयोजित करता है, किसी वेश्या की तरह बड़े लोगों को आमंत्रित करता है - आपके जिगर - गुर्दो में दम हो तो जाइये नये आइडिया लेकर, बेचिए - कमाइये और ऐश करिये - किसने मना किया है, लीजिये रिस्क, लोन उठाइये बैंक से, किश्त भरिये, नही तो सेटिंग करके देश से भाग जाइये, सँविधान में रोजगार के विकल्प सबके लिये उपलब्ध है - किसी डॉक्टर ने आपको मना नही किया है
हिंदी के सहित्यकारगण जो अव्वल दर्जे के धूर्त लोग है - यहाँ फोटो लगा रहें है, एक - एक का नाम बताकर कह सकता हूँ कि इन भ्रष्ट लोगों ने अपनी निकम्मी औलादों के लिए कितना दहेज दिया, लिया, और खर्च किया, खुद इन्होंने एक नही , दो - तीन शादियां की और इफ़रात में धन खर्च किया, कहाँ से लाते हो इतनी बेशर्मी कम्बख्तों
मैं कोई अम्बानी का समर्थक नही, ना विरोधी हूँ, बस न्यूट्रल होकर कह रहा कि किसी के निजी जीवन और उनकी personal constituency में दखल का किसी को अधिकार नही, साले दो कौड़ी के पत्रकार जो कलेक्टर , नायब तहसीलदार की चाय पीने को मरते है, थानों से देशी पव्वे की उम्मीद करते है, मंत्रियों से 8 जीबी की पेन ड्राइव की उम्मीद करते है, लोकसभा अध्यक्ष के घर पूरण पोळी खाकर अपना ईमान बेच देते है, वे घटिया लोग धनपशु जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते है तो इनकी बुद्धि और समझ पर तरस आता है, और Bodyshamig कर रहें है, यही समझ है तुम्हारी - नीचता की हद है
कुल मिलाकर बात इतनी है कि अपने भीतर योग्यता पैदा करो, अडाणी-अम्बानी के घर की शादियों को कोसने के बजाय, अपने खर्च भी देखों - जितने रुपये एक आम आदमी मजदूरी में रोज नही कमाता - उतने तो तुम गुटखा, सिगरेट, दारू में उड़ा देते हो, पेट्रोल पी जाते हो, तुम्हारे कालीन की कीमत पांच हजार मजदूरों की एक हफ्ते की मजदूरी के बराबर है
जिसको मुद्दा ना समझें और कम अक्ल का हो वो कमेंट ना करें, दूसरों के निजी जीवन में झाँकने या उंगली करने के बजाय दुष्यंत को याद कर लो -
"तुम्हारे कदमों के नीचे जमीन तक नहीं
और कमाल यह है कि तुम्हें यकीन भी नहीं"
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Juna Furniture
अमेजॉन प्राइम पर मराठी में अत्यंत रोचक, सामयिक और महत्वपूर्ण फ़िल्म है, पहली फुर्सत में देख लीजिए
वृद्धजनों की समस्या पर है अदभुत फ़िल्म और महेश मांजरेकर का अभिनय, निर्देशन और परिपक्व संवाद आपको रूला देंगे
"कैसे बच्चे अपने जीवन में मस्त होकर रह जाते है, आप फोन लगाओ तो उठाते नही, काट देते है, या फिर दस सेकेंड का रटा-रटाया जवाब होता है, वे जवाब देते है - "पाँच मिनिट में कॉल बेक करता हूँ", पर पाँच दिन बीत जाते है, हफ़्ते और महीनों गुजर जाते है पर वे बात नही करते, क्या चाहिए हमें - ना उनका रुपया चाहिए, ना धन दौलत, बस एक बार बात कर लें, पूछ लें हाल चाल, और यह अपेक्षा गलत तो नही, जिनके लिए हमने जीवन के सुख - दुख दांव पर लगा दिए, एक - एक पैसा कुर्बान कर दिया, खुद हमने कभी अपने लिए कपड़े या जूते नही लिए या कोई सुविधाजनक जीवन नही जिया कि बच्चों को सर्वश्रेष्ठ देना है, तिल- तिलकर अपने सपनों का गला घोंटते रहें कि वे सुख से रहें, आज हमें उनसे सिर्फ़ बात करने की अपेक्षा है , क्या यह अपेक्षा करना गलत है, साल-छह माहों में वे घर भी आते है तो मोबाइल में घुसे रहते है और हमसे बात करने के बजाय छतों पर या बाहर निकल जाते है मोबाइल लेकर, जिसने भी यह उपकरण बनाया वह संसार का सबसे बड़ा दुश्मन रहा होगा"
महेश मांजरेकर जब कोर्ट में यह लम्बा आख्यान देते है तो हाथ के बालों पर झुरझुरी होती ये, रोयें कांपने लगते है, और लगता है यह हम सबकी संयुक्त व्यथा है, एक उम्र में आकर उपेक्षा का दंश हम सब भुगतते है - बच्चों की अपनी ज़िंदगी है, महानगरों में वे खुद बेहद अकेले है और इमोशनली टूटे हुए, पर इसका इलाज है बातचीत और सम्बल, कस्बों से लेकर छोटे शहरों में घर वृद्धाश्रम बन गए है, बड़े मकान है पर भुतहा हो गए है, तटस्थ चेहरे, इंतज़ार करती आँखे और बच्चों के इंतज़ार में जी रही देह शिथिल होते जा रही है
यह फ़िल्म कई मोड़ लेती है पर अंत ज़ोरदार है, सभी को यह देखना चाहिए
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