Skip to main content

छोटी आँखों की पुतलियों से दुनिया सहेजते युवा लेखक - देवेश पथसरिया Post of 27 July 2023

 छोटी आँखों की पुतलियों से दुनिया सहेजते युवा लेखक 

देवेश पथसरिया




साहित्य का अर्थ ही विविधता है और जितनी विविधता होगी, उतना ही लिखना-पढ़ना रोचक और ज्ञानवर्धक होगा. आवश्यक है कि हम न मात्र अपने परिवेश के बारे में लिखें - पढ़ें और समझें, बल्कि अपनी मिट्टी के अलावा अपने देश - प्रदेश के साथ-साथ दूसरे देश-प्रदेश और भाषा संस्कृति को भी समझें. भारत से बाहर जाकर बहुत सारे लोगों ने कई प्रकार की विधाओं में प्रयोग किए और विविध प्रकार का साहित्य लिखा. आजकल इस विधा को एक नया नाम और टैग यानी “प्रवासी भारतीय साहित्य” मिला है और यह खुशी की बात है कि काफी सारे साहित्यकार जो काम - धंधे की तलाश से लेकर वृद्धावस्था में जाकर बाहर बस गए, वे तो लिख ही रहे हैं, साथ ही साथ बहुत सारे युवा जो पढ़ने और शोध करने के लिए देश के बाहर गए, वे भी साहित्य को एक विदेशी चश्मे के साथ देख कर लिख रहे हैं और हिंदी के साथ भारतीय भाषाओं को समृद्ध कर रहे हैं.  

भारतीय परिवेश के साथ-साथ वे बाहर के परिवेश से एकसार होकर लगातार अच्छा और उत्कृष्ट रच रहे हैं जिसकी प्रशंसा की जानी चाहिए. हम जानते हैं कि सलमान रुशदी, नेहरू, गांधी, उषा प्रियंवदा से लेकर तेजेंद्र शर्मा जैसे तमाम वे लोग हैं जो कालजयी साहित्य रच कर अमर हुए. स्व निर्मल वर्मा भी लंबे समय तक बाहर रहे और उन्होंने कई भाषाएं सीखकर उन भाषाओं के उत्कृष्ट साहित्य का अंग्रेजी और  फिर हिंदी में अनुवाद किया जो आज हम सबके लिए अमूल्य धरोहर है. भीष्म साहनी जो रूसी साहित्य अनुदित किया और मास्को के रादूगा प्रकाशन से सस्ता साहित्य बेचा वह अब शायद इस संसार में कभी संभव नहीं है. सोवियत नारी जैसी बड़ी सुन्दर पत्रिकाएं घर में आती थी – माँ सरकारी विद्यालय में शिक्षिका थी तो उन्हें मिलती थी, कालान्तर में बड़े होने पर रीडर्स डायजेस्ट हममें से लगभग सभी लोगों ने पढ़ा होगा जिसमें विश्व साहित्य की झलक मिला करती थी, इसलिए विदेशी साहित्य हमारे लिए कोई नया नही है, बहरहाल. 

11 फरवरी 1986 को जन्मे देवेश पथसरिया ऐसे ही एक युवा कवि और गद्यकार है जो राजस्थान में जन्मे और  भौतिक शास्त्र के अंतर्गत खगोल शास्त्र में पीएचडी करके ताइवान चले गए और वहाँ से अपने ही विषय में वे पोस्ट डॉक्टरेट कर चुके हैं. देवेश इधर हिंदी समकालीन परिदृश्य के स्थापित कवि के रूप में उभरे हैं,  साथ ही साथ कविता के साथ कविताओं से मुठभेड़ कर समालोचनात्मक टिप्पणियां और कविता के शिल्प और कथ्य पर बहुत जरूरी बातें करके वे कविता के चिन्तक के रूप में भी सामने आए हैं. देवेश के दो काव्य संकलन "नूह की नाव" और "हकीकत के बीच दरार" प्रकाशित हैं. उन्होंने अनेक कोरियाई और ताइवानी कवियों की कविताओं का हिंदी अनुवाद किया है. वरिष्ठ ताईवानी कवि ली मिन - यूंग के कविता संग्रह का हिंदी अनुवाद किया है. देवेश की कविताएं और अनुवाद हिंदी के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं. उनके कविता संग्रह का अंग्रेजी अनुवाद हाल ही में आया है. राजस्थान के अलवर जिले से संबंध रखने वाले देवेश अपनी मिट्टी और देश के लिए बहुत सम्मान रखते है, स्वभाव से बहुत विनम्र और शीलवान कवि हिन्दी कविता के लिए प्रतिबद्ध व्यक्तित्व है. 

छोटी आंखों की पुतलियों में नामक पुस्तक में वे अपनी ताईवान की डायरी का प्रकाशन हिन्दी में लेकर आए हैं - जिसे सेतू प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. “ताइवान में चेरी ब्लॉसम के फूल मार्च के अंत तक झड़ चुके होते हैं, उनका झडना मेरे लिए त्रासदी की तरह होता है, मैं वर्षभर फूल खिलने के इंतजार में उन पेड़ों को देखता रहता हूं. वर्ष के शेष समय में वह पेड़ कभी पत्तों सहित और कभी बिना पत्तों के खड़े रहते हैं. ताइवान में प्राकृतिक सुंदरता प्रचुर मात्रा में है, किंतु चेरी ब्लॉसम उस पर वही असर करता है जो भारत में रह रहे कवियों पर हरसिंगार का होता है”, जैसी खूबसूरत पंक्तियों के माध्यम से अपनी वृहद चिंताएँ खोलते हुए उन्होंने ताईवान के दैनिक जीवन को बहुत सरल एवं प्रांजल भाषा में अभिव्यक्त किया है. पूरे ताईवान की यात्रा, वहां रहने के अनुभव और समाज, लोगों के जीवन और शैली की बातचीत को इस पुस्तक में दो खंडों में प्रस्तुत की है - पहले खंड में 16 और दूसरे खंड में 4 अध्यायों के माध्यम से यह पुस्तक लगभग 160 पृष्ठों में फैली है. पुस्तक की भूमिका मनीषा कुलश्रेष्ठ ने लिखी है. मनीषा अपने आमुख में कहती है “एक अंतर्मुखी, ईमानदार, मूल्यों के प्रति निष्ठावान, युवा वैज्ञानिक लेखक के गहरे और अनूठे ऑब्जर्वेशन इन संस्मरणों को सघन बनाते हैं. पाठक इन संस्करणों में रपट नहीं स्तरीय साहित्य पायेगा - मैं इस बात की आश्वस्ति गहराई से महसूस कर रही हूँ” यह कहकर मनीषा कुलश्रेष्ठ पाठकों में जो आशा जगाती है - वह कुछ हद तक सफल होती है किताब खत्म होने के बाद, और आगे जानने के लिए जिज्ञासा भी प्रकट करती है, यही कौतुक और जिज्ञासा का जागना और सतत नया पढ़ने के लिये अनुसंधान करना ही साहित्य का अन्ततोगत्वा लक्ष्य होता है.  

देवेश कहते है “मै मूल रूप से कवि हूँ, परन्तु वे कवितायें लिखते रहें है पर जैसा उनका क्राफ्ट है कविताओं में कुछ बातें नहीं आ पाती है, उन्हें कहने के लिए किस्सागोई का सहारा लेना पड़ता है”. वैसे भी हिंदी में इन दिनों कथेतर का प्रभाव ज्यादा है और विश्व फलक पर कथेतर साहित्य ही लगभग स्वीकारा जा रहा है और पुरस्कृत भी हो रहा है. यह पुस्तक उनके कविता कर्म के अतिरिक्त एक तरह का कथेतर साहित्य ही है. 

इस संग्रह में देवेश ने ताइवान में जाने पर पहले साल के अनुभव, साइकिल, वहां के घड़ीसाज, सड़कों पर चलते हुए जिस तरह से वह वहां के समाज, नागरिक, बच्चों, और महिलाओं विशेषकर युवतियों की स्थिति को देखते हैं और अपने देश के साथ तुलनात्मक रूप से जब बोलते हैं तो उसमें देवेश का तगड़ी अवलोकन क्षमता नजर आती है. कोरोना ने पूरी दुनिया को जिस तरह से प्रभावित किया था उस तरह से ताइवान को भी किया,  इस समय के बारे में ताइवान को लेकर उन्होंने जो वर्णन किया है वह रोचक तो है ही पर अनूठा भी है. ताइवान में भारतीय त्योहार कैसे, किस तरह से मनाए जाते हैं, इसका खूबसूरत वर्णन ‘ताइवान में दुर्गा पूजा’ के अध्याय में आता है. नववर्ष मनाने की परंपरा और नववर्ष से जुड़ी हुई किवदंतियों के बारे में भी देवेश अपनी कलम चलाते हैं. ताईवान के साहित्य के बारे में भी देवेश ने काफी उम्दा काम किया है, किस तरह से वहां का पूरा साहित्यिक परिदृश्य है, लोग किस तरह से लिखते - पढ़ते हैं, समझते हैं और साहित्य उनके जीवन को कैसे प्रभावित करता है - इसके बारे में भी देवेश ने इस पुस्तक के दूसरे खंड में लिखा है. 

साहित्य में अकादमिक बहस अपने आप में बहुत विस्तृत है और इसलिये लंबी बात करने की गुंजाइश हमेशा रहती है. असल में इस बात की आवश्यकता भी है और खास करके जब आप विश्व साहित्य के बरक्स विदेशी भाषा से अंग्रेजी में अनुवाद करते हैं और फिर अंग्रेजी से हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद कर प्रस्तुत करते हैं तो किसी भी विधा का साहित्य हो उसका मर्म निश्चित रूप से बदलता है. अनुवादक के सामने सबसे बड़ी मुश्किल यह होती है कि जितना हो सके “लॉस्ट इन ट्रांसलेशन” होने से रोकना है.  देवेश कहते हैं - “एक बात और है जो कभी-कभी किसी अनुवाद को पढ़ते समय मुझे अखरती है वह कृत्रिमता. कोई बनावटीपन या नकली शास्त्रीता अनुवाद में ना ठूंस दी गई हो". 

देवेश की यह किताब हिंदी साहित्य के और प्रवासी भारतीय साहित्य में आई एक अलग तरह की किताब है और यह पढ़ने - समझने के लिए एक अलग तरह के माइंडसेट की मांग करती है. असल में जो युवा लेखक इन दिनों हिंदी में उभरे हैं - उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना या किसी भी विधा को जब अपनाया है तो उन्होंने अपनी पढ़ाई क्लासिक्स से आरम्भ की है और वहां से पढ़ते हुए वे सभी कालों की रचनाओं को समझते हुए वर्तमान परिदृश्य के होने और रचे जाने पर ना मात्र परिपक्वता से टिप्पणी करते हैं, बल्कि वे उस में घुसकर अपनी पैठ भी बनाते हैं, इसलिए वे समकालीन परिदृश्य में बहुत कुछ सार्थक लिख पा रहे हैं या पढ़ पा रहे हैं, और उनका नियमित रचना और सक्रीय होना यह साबित करता है कि देश की जमीन पर अपने परिवेश, संस्कृति और परंपरा से जुड़े हो या पूर्णतया कटकर वे  पाश्चात्य संस्कृति में डूब गए हो, परंतु उनका लेखन निश्चित ही महत्वपूर्ण है और उसे आप नकार नहीं सकते -  ना ही उनकी उपेक्षा कर सकते हैं. देवेश इसी समकालीनता और परिदृश्य में बहुत तेजी से उभर कर आए हैं और हिंदी के समकालीन वरिष्ठ लेखकों से संपर्क रखते हुए अपनी बात पूरी दृढ़ता से कविता और गद्य में कहते हैं और मेरे हिसाब से इसी दृढ़ता से कहना और विनम्रता से समकालीन हिंदी की सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में अपनी कविता, टिप्पणियों, आत्मकथा और कविता की समालोचना के साथ-साथ आलेख एवं विदेशी भाषाओं की कविताओं का हिंदी में अनुवाद कर बने रहना ही उन्हें समकालीन युवा लेखकों में अलग करता है. हिंदी में वर्तमान शोध की स्थिति खास करके भारतीय विश्वविद्यालयों में हिंदी के जो शोधार्थी हैं उनमें कुछ गिने-चुने नाम ही हैं - जो कुछ सार्थक कर रहे हैं, बाकी तो बहुत ही बेजा और उजबक किस्म का लिख रहे है या अलित - दलित और बौद्ध और हिन्दू मुस्लिम में पड़कर अपनी ऊर्जा बर्बाद कर रहें हैं और ये युवा जो कुछ भी कचरा रच रहें है वह विशुद्ध वितंडावाद का प्रतीक है. इन सबके बीच में देवेश पथसरिया बहुत बेहतर ढंग से अपनी बात कह पा रहे हैं यह आश्वस्ति है. 

उम्मीद की जाना चाहिए कि हमें हिंदी में देवेश के मार्फत अच्छी कविताएँ, गद्य साथ ही ताइवान के साथ-साथ अन्य जगहों का भी विदेशी साहित्य भी पढ़ने को मिलेगा और हिंदी के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि होगी. यह पुस्तक पढ़ी जाना चाहिए और अपने संग्रह में भी रखी जाना चाहिए - ताकि हमें विश्व साहित्य और समकालीन भारतीय साहित्य के बीच घुसपैठ करते हमारे प्रतिभाशाली युवाओं की पैनी दृष्टि और समाज के बारे में मालूम हो सके, खासकरके जो वैज्ञानिक दृष्टि से समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था और साहित्य को देखते हैं, समझते हैं और वैज्ञानिक विधियों से इनका विश्लेषण करके अपनी रचनाएं रखते हैं. देवेश को मैं उसी क्रम में एक सशक्त लेखक के रूप में देखता हूँ



Subah Sawere 01 Aug 2023  
•••••
पुस्तक - छोटी आंखों की पुतलियों में 

प्रकाशक - सेतु प्रकाशन 

संस्करण -पेपरबैक 

मूल्य - ₹299

Comments

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी व...