हे राम
सर्व सेवा संघ,बनारस में जो हो रहा है वह अति निंदनीय तो है ही, इसकी जमकर भर्त्सना की जाना चाहिये, सुप्रीम कोर्ट को स्वतः संज्ञान लेकर रेलवे पर रोक लगाना चाहिये, केंद्र और योगी सरकार को फटकार लगाना चाहिये, पर अब इस समय गांधीवादियों को भी सोचना चाहिये कि अब उनकी आपसी लड़ाई जो हद से ज्यादा घटिया हो चुकी है, को बंद करके संगठन को मजबूत करें, मोहमाया और संपत्ति का लालच छोड़े, अपनी निकम्मी औलादों को सेट करना बंद करें गांधी के नाम पर
मप्र के भोपाल के गांधी भवन की लड़ाई हो, सर्वोदय आश्रमों की लड़ाई हो, विसर्जन आश्रम की हो, वर्धा के सेवाग्राम की, कस्तूरबा ग्राम, इंदौर की हो या संगठनों पर कब्ज़े की, दुखद यह है कि ये तथाकथित शांतिप्रिय लोग ही जनता के बीच लड़ने लगे है, इनके चरित्रों की असलियत सामने आ रही है, ढीले नाडों को कसकर बांधे रखें - परस्त्री गमन के अलावा जीवन में बहुत काम है, छोटी जगहों पर बने आश्रमों में इन्होंने कब्ज़े कर लिए है और मामले पुलिस और एफआईआर के आगे निकल कर बैंक खाते सीज करने तक आ गए है
मोटा खादी का चोगा ओढ़कर बारह - पंद्रह लाख की गाड़ी में घूमने वाले सेटिंगबाजों से गांधी को बचाने की ज़रूरत है , मैं जानता हूँ कि इस समय में स्वैच्छिक संगठनों की छबि खराब है और सरकार ने इन संस्थाओं को ध्वस्त करने में कोई कसर नही छोड़ी है पर इससे ज्यादा दुखद यह है कि जिस निर्माण और संघर्ष का साझा स्वप्न गांधी या विनोबा ने देखा था - वह बुरी तरह से टूट चुका है, हर बार वर्धा जाने पर मगन संग्रहालय या सेवाग्राम की लड़ाइयों का ज़िक्र सामने आता है, भोपाल के गांधी भवन की खींचतान जनता के सामने है ही, सप्रेस फीचर की स्थिति हम सबने देखी ही है - आगे क्या कहा जाए, लोग इन वादों की सीढ़ियां चढ़ते हुए शिखर पर पहुँच गए है
ईसाई मिशनरियों के बाद सबसे ज्यादा कब्जा जमीनों पर गांधी आश्रमों का है पूरे देश मे उत्तराखंड हो या केरल या पूर्व - पश्चिम और इसे इने - गिने लोग भोग में ले रहे है, गुजरात मे आप इनकी जमीन देखकर चौंक ना जाये तो कहना ; निहायत ही निजी सत्ता और साम्राज्य की तरह से इस्तेमाल की जाने वाली यह अचल संपत्ति कुछ लोगों के पंजे में है और ये लोग करोड़पति है - इसमें कोई शक नही, इन झब्बे पहनने वालों की एफडी मैंने प्रत्यक्ष देखी है, जमीनों के मालिकाना हक वाले दस्तावेज़ भी, तो शेष बचा क्या
आज समय और आवश्यकता इस बात की है कि ईसाई मिशनरी हो या गांधीवादी या विनोबावादी या कोई और भी जमीन सरकार के पास हो और सरकार उसका इस्तेमाल आम जन, गरीबों के हित या शिक्षा स्वास्थ्य के लिए आधारभूत ढाँचे बनाने के लिए इस्तेमाल करें
और मेरी व्यक्तिगत राय में आजादी मिलने के उपरांत और गांधी हत्या के बाद गांधीवादी सिर्फ़ पूजा - प्रार्थना का ढोंग ही करते आये है और समाज निर्माण में इनका कोई सकारात्मक योगदान नही है - गांधी की एक खादी ही थी हम जैसे गरीब और आम लोगों के पास - वो भी मुनाफाखोरों ने इतनी महंगी कर दी कि ना पहनी जाती है - ना खरीदी जाती है
बहरहाल, यह नितांत निजी राय है जो पिछले 45 वर्षों में इन्हें गहराई से देखकर बनी है , ज्यादा क्यों दूर जाए अनेक गांधीवादियों की संतानें आज कार्पोरेट्स में जमकर कमा रही है और ऊपरी लेबल - चाशनी वही है गांधी
तभी शील ने लिखा था बहुत निराश होकर -
"इनके हाथ बड़े लंबे हैं
पांव नहीं इनके खंभे हैं
गांधी का चरखा चबा गए
भरे पेट परदेश खा गए
फिर भी ये भूखे के भूखे
मांग रहे अनुदान
दमन की चक्की पीस रही इंसान"
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हिंदी के साहित्यकार सबसे नीच है, अभी भी किताबें बेच रहे और आत्ममुग्ध है ससुरे, सेटिंग में लगे है, विज्ञापन बटोर रहे है, किसी विवि के या महाविद्यालय के प्राध्यापक सामने आए क्या ; उदभव, तद्भव से लेकर हंस या वागर्थ या समकालीन अनमत जनमत के सम्पादक सामने आए क्या कही झंडे लेकर - शातिर और घाघ है ये सब लोग, कोई प्रकाशक सामने आया - एक साल में हजार शीर्षक छापने वाला, पंडिताई से लेकर लेखकों को सेट करने वाला या तेंदुलकर की बायोग्राफी से ज्यादा किताबे बेचने वाला फेंकूँ सामने आया क्या
और दूसरे आज के साहित्यकार है जो कुछ करने के बजाय घर में बैठे है , आज भोपाल में कुछ पत्रकार और एनजीओ वालों के साथ दो - चार खड़े हो गए और फोटो खिंचवाकर शहीदों में नाम लिखवा दिया - पूरा आयोजन कुछ और ही लोगों का था जिसमे कॉमरेड भी थे और ज़मीनी लोग भी, ख़ैर कम से कम ये लोग आए तो पर बाकी निठल्लों का क्या
मुझे कही बनारस, अलीगढ़, इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली, गांधीनगर, मुम्बई, इंदौर, भोपाल, पटना, चंडीगढ़ या किसी राजकीय महाविद्यालय के फेसबुकिया माड़साब लोग्स भी नही दिखें, अनिता, सुनीता, सीता, गीता, अंजू, मंजू के ट्रोल गैंग या तमाम छम्मक - छल्लों कवयित्रियाँ कहां गई, किस सम्पादक को फोन पर लटके - झटके से रीझा रही है, राधा - कृष्ण से लेकर नूरजहाँ और फूलन देवी पर कविताएँ लिखने वाले या अश्लील चित्र परोसने वाले छर्रे कहाँ गए - दिल्ली के वाणी में समा गए या राजकमल में तलुएँ चाट कर अपनी अगली किताब का जुगाड़ कर रहें है
इन बेहया लोगों का बहिष्कार शुरू करो तभी ये और इनकी हक़ीक़त सामने आएगी, नीच एवं बेशर्म है ये लोग - ना ज़मीर बचा है - ना लाज शर्म, बस अपनी नौकरी बनी रहें, हिंदी का समकालीन परिदृश्य बहुत घिघौना और घृणास्पद है - आप इनसे समाज बदलाव की उम्मीद करते है - ये सब मंजे हुए गिरगिट है
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