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"सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी " - सारंग उपाध्याय 30 जून 20323



 "सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी

एक महत्वपूर्ण और विस्तृत समीक्षा-
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अल्लाह का दिया पेट पहले भरो, फिर दुनिया की दी हुई जेब, जैसी नसीहतों से भरा
सारंग उपाध्याय का नवप्रकाशित चर्चित उपन्यास

मुंबई एक शहर नहीं, देश की व्यवसायिक राजधानी भी नही - बल्कि अपनी तरह का एक अनूठा नॉस्टैल्जिया है, जिसे भारत के 50 % और दुनिया भर के 10 % लोग अपने अंदर महसूस करते हैं. इस शहर को जिसने एक बार देख लिया उसके सपनों को पंख लग जाते हैं और फिर जब कोई व्यक्ति घर से भागता है तो ज्यादातर वह दिल्ली, कोलकता नहीं - मुम्बई की ओर भागता है. यह भागा हुआ व्यक्ति मुंबई में जाकर किसी बात का आगाज करता है तो लगता है मुंबई उसकी दिलरुबा बन गया है और वह फिर वहां से कभी लौटता नहीं. यूं तो मुंबई अपने आप में कुछ नहीं है बल्कि कई गाँवों, कस्बों और छोटे बड़े शहरों का एक सम्मिश्रण है जिसे कुल मिलाकर मुंबई कहते हैं -
इसमें भावनाएं हैं, अपराध हैं, किस्से - कहानियां है, राजनीति है, व्यवसाय है, धंधा-पानी है, लोगों के संघर्ष है, समुद्र है, पानी है, लहरें है, ज्वार - भाटा है और जीवन के उतार-चढ़ाव है. देश के हर कोने से पहुंचने वाली हर ट्रेन से उतरने वाला शख्स यहां पर मुंबई जीत लेने का ख्वाब लेकर आता है और आहिस्ता -आहिस्ता उसे पता चलता है कि वह माया नगरी में ऐसा रच बस गया है कि वह यहाँ से निकल नही पाता है, ना भाग पाता है और एक दिन छोटे-छोटे संघर्ष करते हुए अपनी अस्मिता बचाकर, अपने भीतर धड़कते शहर और कस्बे को या किसी छोटे से गांव को रिश्ते और भावनाओं के कोमल तंतु के साथ जोड़ने की अधूरी कोशिश में खत्म हो जाता है. मुंबई में किसी को कुछ मालूम नहीं पड़ता और जीवन जीने का आसन्न संकट या सन्नाटा उसकी मौत को करीब ला देता है और शांत भाव से गुजर जाता है और मुम्बई का समुद इस मौत को बहुत जल्दी भुला देता है.
मुंबई अपने आप में छोटा भारत भी है और बहुत संवेदनशील भी जहां एक और भिवंडी से लेकर तमाम तरह के दंगों की एक तस्वीर मुंबई को लेकर उभरती है, वही बरसात के मौसम में जब पानी जाम हो जाता है तो मुंबई के लोग दिल खोलकर सामने आते हैं और हर जाने-अनजाने व्यक्ति को अपने घर में आसरा देकर उसकी देखरेख ऐसे करते हैं जैसे कोई कृष्ण किसी गरीब सुदामा को हृदयंगम करके अपने रंगीन और चकाचौंध वाले महल में आवभगत कर रहा हो.
इस मुंबई में ढेर कहानियां हैं, ढेरों किस्से हैं, बल्कि यूं कहें कि मुंबई के हर क्षण में हर कदम पर लाखों-लाखों किस्से हैं जो लोगों के संघर्ष और सुख-दुख को बयां करते हैं. जिसने मुंबई को बहुत बारीकी से देखा है, जिसमें बारीकी से अवलोकन किया है -जिसने मुंबई को अपने भीतर धड़कता हुआ पाया है और मुंबई को शिद्दत से महसूस किया है - वह उस मुंबई को कभी छोड़ नहीं सकता - चाहे फिर वह देश के किसी सुदूर कोने में चला जाए या विदेश में जाकर स्थाई रूप से बस जाए. मुंबई, मुंबई है - जैसे कहते हैं कि “दिल्ली दिल वालों को मिलती है”, वैसे ही कहते हैं कि मुंबई सिर्फ मुंबईकर वालों को ही रास आती है.
9 जनवरी 1984 को महाराष्ट्र के भुसावल में जन्मे युवा पत्रकार, कवि और उपन्यासकार सारंग उपाध्याय बाद में मप्र के हरदा में आ बसे और यही पर उनकी आरम्भिक शिक्षा हुई. बाद में देवी अहिल्या विवि , इंदौर से पढाई की. पिछले 15 वर्षों से इंदौर, मुंबई, नागपुर, औरंगाबाद, भोपाल और अब दिल्ली के अमर उजाला में काम कर रहें है.
"सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी' उनका पहला उपन्यास है जो राजकमल पेपर बैक, नईदिल्ली से आया है. यूं तो मुंबई को लेकर कई लोगों ने लिखा है और कई तरह से मुंबई हिंदी, मराठी, अंग्रेजी, गुजराती साहित्य में उभर कर आया है, बॉलीवुड की अमूमन अधिकांश फिल्मों का बैकग्राउंड और पृष्ठभूमि मुंबई और मुंबई का अपराध जगत रहा है.
पारसी और मराठी थियेटर की उत्पत्ति मुम्बई में हुई और इन कहानियों ने मुम्बई को अलग अंदाज़ में पेश किया तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. मराठी साहित्य में भाऊ उपाध्याय जैसे लेखक हुए हैं जिन्होंने मुंबई की नस को पकड़ा है, नामदेव ढसाल और नारायण सुर्वे जैसे कवियों की पंक्तियों में भी मुंबई की गूंज और धमक सुनाई देती है. शैलेश मटियानी का “बोरीवली से बोरीबन्दर “ तक और जगदंबा प्रसाद दीक्षित का “मुर्दाघर” उपन्यास भी मुंबई को आधार बनाकर ही लिखे गए हैं.
इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में ज्यादा नहीं मुख्य रूप से पांच – छः किरदार हैं जो प्रेम – मोहब्बत, संघर्ष, आपसी प्रतिस्पर्धा, जलन, बाजार, समुद्र, मुंबई का चरित्र, लोकल, स्टेशन और अलग-अलग टुकड़ों और हिस्सों में बसी हुई मुंबई को जीते हैं - महसूस करते हैं, अभिव्यक्त करते हैं और अपनी कहानी कहते हैं.
हिंदी उपन्यास मुख्य रूप से प्रेम की भूमि पर ही पुष्पित और पल्लवित होते हैं और यही बात इस उपन्यास में भी घटती है - जहां पर मछुआरा परिवार है जो कि मूल रूप से मुस्लिम परिवार है, उसके बेटी की कहानी है. उसकी बेटी सायरा किस तरह से एक कनफ्लिक्ट में फंसे हुए माता-पिता के बीच में पैदा होती है, बड़ी होती है और मछली पकड़ने के हुनर में पारंगत होकर अपने पिता के व्यवसाय को मजबूरी में संभालती है और किस तरह से उसे एक ऑटो चालक रघु से प्यार होता है.
इसी कहानी के समानांतर उसके मां-बाप की प्रेम की कहानी, उस लड़की के नाना - नानी की कहानी, मालेगाव से मुंबई में आकर बसने की कहानी और इस लम्बे दौर की दास्स्तान के रूप में किस तरह से मुंबई में 1986, 1992 से लेकर 2006 और फिर मुंबई विस्फोटक की घटनाओं को देखा है, भुगता है और इस सबके बीच में छोटी-छोटी घटनाएं छोटे-छोटे संदेश, छोटे-छोटे विश्वास और छोटे-छोटे भरोसे कैसे इंसानियत को परिभाषित करते हैं. प्रेम को उसकी ऊंचाई तक ले जाते हैं, मानवता किस तरह से सर्वोच्च शिखर पर पहुंचती है और किस तरह से बिछोह, विरह, वेदना अवसाद, तनाव, आर्थिक संघर्ष के बीच में मृत्यु और जीवन का आना - जाना इन किरदारों के आंगन में लगातार चलता रहता है यह दिखाने में सारंग बहुत खूबसूरती से कामयाब हुए हैं.
सारंग ने मुंबई के निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों में काम करते हुए और अपनी मेहनत के रूपयों पर जीते हुए कैसे लोग अपनी खुशियां और अपने छोटे- छोटे सपने पूरे करते हुए जीवन जीते हैं - इस पर कलम चलाई है.
परंतु इस सब की पृष्ठभूमि में वे लगातार चिंतित रहते हैं कि कैसे एक बड़े धड़कते हुए शहर को जिसे भारत जैसे विशाल देश की औद्योगिक राजधानी कहा जाता है, जहां पर कोई भी आदमी भूखा नहीं सोता है, उस शहर में राजनीति - सामाजिक बदलाव आर्थिक तंत्र, गुंडागर्दी, दाऊद से लेकर छोटा राजन और अरुण गवली तक जैसे लोग मुंबई की धड़कते हुई नब्ज़ को प्रभावित करते हैं और किस तरह से पुलिस, प्रशासन एवं राजनेताओं की तिकड़ी मिलकर आम लोगों के जीवन को प्रभावित करती है.
सारंग लगभग दस साल तक मुंबई के अखबारों में काम करते रहे हैं, पानी और समुद्र उनकी कमजोरी लगता है, इसलिए वे बहुत बारीकी से उन इलाकों की पड़ताल करते हैं जहां किसी की नजरें नहीं पड़ती.
उनकी तगड़ी अवलोकन क्षमता यह दिखाती है कि वे मुंबई की दूरदराज की बस्तियों में खास करके केवट और मछुआरा समुदाय के लोगों के साथ समाज के दलित और वंचित समुदाय के साथ मुस्लिम समुदाय के साथ मुंबई जैसे शहर में क्या-क्या घटित होता है. इस सब को वह बहुत अच्छे तरीके से उभारते हैं. उपन्यास में 11 किस्से 11 कविताओं के साथ शुरू होते हैं और एक प्रश्न छोड़कर हर किस्सा खत्म होता है.
यह प्रश्न जिजीविषा को लेकर है, यह प्रश्न हम सबकी अस्मिता और मानवता को लेकर है, मूल्यों को लेकर है, और यह प्रश्न खड़े करते समय वे ना मात्र चरित्र के व्यवहार पर बात करते हैं, बल्कि वे हम सबकी सामूहिक चेतना पर भी सवाल खड़े करते हैं - जो हमें आपस में जोड़ती है और पूछती है कि क्या महानगर में या किसी गांव - देहात में मनुष्य का जीवन सिर्फ संघर्ष करने के लिए ही है या कभी उसके उसके प्रश्नों के उत्तर मिलेंगे या उनके जीवन में कभी उजाला होगा.
पूरा मुंबई घूमते हुए हमें अलग-अलग स्टेशन, अलग-अलग बाजार और मुम्बई की लाईफ लाईन लोकल के बहाने मुंबई की पूरी अर्थव्यवस्था पर टिप्पणी करते हैं. ऑटो रिक्शा से लेकर लोकल में चलने वाले लोगों की आदतों और व्यवहार पर भी बहुत बारीकी से वे कलम चलाते हैं.
सारंग ने हालांकि मुंबई की मेट्रोपॉलिटन भाषा को पकड़ने की कोशिश की है, परंतु मराठी लिखने और मराठी से हिंदी के अनुवाद में कहीं-कहीं में वे चूक गए, जिसका उन्हें उपन्यास की अंतिम पांडुलिपि तैयार करने के पहले किसी को दिखा लेना था. हालांकि यह बात दीगर है कि मराठी के भी अपने अपने प्रकार है और मानक है.
मुंबई की चलताऊ भाषा, हालांकि कोई मानकीकृत नहीं है और इससे मुंबईकर ही समझ सकता है परंतु मुंबई के बाहर रहने वाले लोगों के लिए, खास करके मराठी भाषी लोगों के लिए भाषागत त्रुटियां इंगित करती है.
भाषा सरल, सहज है परन्तु कही कही वे इतना विस्तार देते है कि चिढ होने लगाती है और बाज़ दफे वे पाठक को कोई छोटा सा नादाँन बच्चा समझकर ज्ञान भी देने की कोशिश करते है, अनावश्यक वर्णन से बचा जाना चाहिए ताकि पढ़ने में रूची बने रहें.
11 किस्सों में इस उपन्यास का हर किस्सा एक पृष्ठ से शुरू होता है, यह रिवाज़ भी है पर यहाँ अमूमन दो किस्सों के बीच में दो या तीन पृष्ठ खाली छोड़ दिए गए हैं जोकि कागज का व्यर्थ नुकसान है और एक संवेदनशील लेखक को कम-से-कम पर्यावरण का इतना भान तो रखना ही चाहिए था हालांकि इस समय दुनिया में कागज बर्बाद हो रहा है प्रकाशन के नाम पर ही पर सारंग जैसे संवेदनशील आदमी और राजकमल जैसे प्रकाशन यह बात ध्यान रखना थी, इस बहाने कम से कम एक छोटी डगाल ही बच जाती किसी जंगल की तो बहुत एहसान होता प्रकृति पर.
बरहाल उपन्यास अच्छा है, 142 पृष्ठों के हिसाब से बेहद साधारण कागज़ पर छपा उपन्यास बहुत महँगा है जिस पर बात की जाना चाहिए.
यह उपन्यास एक बड़ी पृष्ठभूमि पर लिखा गया है, परन्तु इसका जितना प्रचार-प्रसार हो रहा है उस हिसाब से कंटेंट बहुत साधारण है और जिस तेजी से उपन्यास शुरू होता है - उतनी ही तेजी से खत्म भी हो जाता है जिसकी वजह से पाठक को अंत में लगता है कि यह क्या हो गया. बहुत छोटा उपन्यास, परंतु पढ़ने में रोचक, एक बैठक में समाप्त करने लायक है और इसे अन्य उपन्यासों की तरह पढ़ा जाना चाहिए.
हालांकि सारंग से इससे ज्यादा उम्मीद थी और उस उम्मीद पर यह उपन्यास खरा नहीं उतरता है. दूसरा मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि हिंदी में अभी बड़े आलोचक और वरिष्ठ गंभीर किस्म के उपन्यासकार, कहानीकार उपलब्ध है तो इसकी प्रस्तावना गीत चतुर्वेदी जैसे कवि से नहीं लिखवाना थी, अखिलेश से ही लिखवा लेते जिन्होंने अपनी ही पत्रिका “तद्भव” में इसे सबसे पहली बार छापा.


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उपन्यास : सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी
लेखक: सारंग उपाध्याय
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
प्रकार : पेपरबैक संस्करण
मूल्य: ₹250 लोग
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◆ संदीप नाईक मुसाफिर जगत इस प्यारी / खरी और बेबाक समीक्षा के लिए शुक्रिया और आभार. पहला उपन्यास था सो उम्मीद टूट सकती है. प्रयास रहेगा की और अच्छा लिखा जा सके-
पुस्तक मंगवाने का लिंक है

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