चुनाव और बलात्कार
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सोचा नही लिखूँगा, मणिपुर सिर्फ़ एक शब्द नही - सरकार की हर मोर्चे पर विफलता, सत्ता के लिए उच्च महत्वकाँक्षा और नीचता की हद का प्रतीक है
मई में हुए बलात्कार अब वाइरल हो रहे है जब तीन राज्यों में चुनावों का नशा और सारी हड़बड़ शुरू हो गई है, बेशर्मी चरम पर है, मणिपुर पर बोलने, जाने या ठोस कदमउठाने, एक्शन लेने के बजाय छग और राजस्थान का उदाहरण देकर घटिया राजनीति कर क्या कहना चाहते है मोदी
हंस में राजेंद्र यादव ने लिखा था "हर परिवर्तन का झंडा स्त्री की योनि में गाड़ा जाता है और वह बलात शिकार होती है" यह 1992 की बात है जब आडवाणी की रथ यात्रा से दंगे भड़के थे,याद होगा कि भोपाल में हिन्दू संगठनों ने एक बड़े समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ भयानक नारा लगाया था, फिर गोधरा से लेकर भिवंडी और तमाम जगहों पर सड़कों पर बलात्कार हुए, अहमदाबाद में सड़क पर दिन दहाड़े एक गर्भवती को बलात्कार करके तलवार से पेट काट दिया था, हर्ष मन्दर हो, तीस्ता हो या संजीव भट्ट या वो सब लोग जो इस सबके ख़िलाफ़ बोले थे - आज भी भुगत रहे है
सरकार तब भी निर्लज्ज थी और आज भी - हर समस्या का हल हम बलात्कार में खोजने लगे तो देश में आधी आबादी का कोई अर्थ नही रह जाता , जिस धर्म की पताका लेकर महिला बराबरी की बात कर रहें वह ना संसद में दिखता है ना विधान सभाओं में, ज़मीन पर न इरादों में, क्यों महिला आरक्षण बिल पेंडिंग है, क्यों आपको ममता, मायावती, सोनिया, प्रियंका, डिम्पल, राबड़ी, मीसा, अरुन्धती, इंदिरा गांधी, इंदिरा जय सिंह, या बोलने वाली महिला दुश्मन लगती है क्योंकि आपके यहाँ तो परम्परा है ही नही ना, इतना बड़ा संगठन का दावा भरते है है कही महिला या कोई प्रचारक या सर संघ चालक - नही साहब महिला सिर्फ घर में टुकड़े तोडू लोगों को खाना बनाकर खिलाएगी बस
मप्र महिला हिंसा की राजधानी था, उप्र में हाथरस से लेकर तमाम घटनाएं हुई, राजस्थान में हाल ही में दो बड़े कांड हुए , दिल्ली मुम्बई से लेकर हर जगह रोज - रोज स्त्रियाँ प्रताड़ित होती है और सुप्रीम कोर्ट को कल याद आया स्वतः संज्ञान लेने का - वाह रे न्यायाधीश और परम पूज्य और अभी भी सिर्फ़ कहा है - किया कुछ नही, अनुच्छेद 12 से 21 क्या सिर्फ़ मर्दों के लिये है सँविधान के
और हिंदी का पूरा निर्लज्ज जगत महिला कवियों सहित चुप है, देश के विवि में क्रांति का दम्भ भरने वाले हरामखोर प्राध्यापकगण अपनी नौकरी बचाकर सेटिंग में लगे है, सम्पादक विज्ञापन ले रहे है मामा से या योगी से , लेखक पुरस्कार ले रहे है और अपनी घटिया किताबें बेचकर आत्म मुग्ध है, उनके निकम्मों को सेट करना है उन्हें, और सबसे मेघावी प्रबुद्ध इलीट वर्ग समवाय में एन्जॉय कर रहा है रज़ा के छोड़ी संपत्ति पर
आप किससे उम्मीद करें जनाब और मीडिया उसका तो छोड़ ही दो - जिसने भी ये खबर ब्रेक की क्या वह मेनस्ट्रीम मीडिया है जरा देख लें
महिलाओं - इन टुच्चे और नालायकों से एक हजार रुपया लेना बन्द करके बिला नागा एक हजार जूते रोज मारना शुरू करो, पांच किलो राशन मुफ्त लेने के बजाय पांच नेताओं को हर माह सड़क पर खींचकर हिसाब पूछो 76 वर्षों का, तभी इन्हें समझ आएगा, पर महिलाएं भी तो स्वार्थी है, जब दो औरतों का जुलूस निकल रहा था तो बाकी सच में चूड़ियाँ पहनकर घर में ही बैठी तमाशा देख रही थी - याद है ना "मिर्च मसाला" की स्मिता पाटिल, क्यों नही मिर्चें झोंक दी - उस भीड़ की आंखों में पर, कौन बोलेगा, बनी रहो अबला, सबला या बला
शर्म मगर इनको आती नही है
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कुछ महंगी किताबें खरीद ली, कुछ मित्रों ने गिफ्ट कर दी अब पढ़ते नही बन रही, 800 -2000 पेज कितनी फुर्सत है भाई तेरे को - कोई काम नही क्या
इतना लंबा और भारी कोई लिखता है क्या, कुछ तो पोस्ट भी पीएचडी थीसिस के बराबर लिखते है, कुछ कवि निहायत ही बकवास लिख रहे है और लोग लगे पड़े है अहो अहो करके, अरे हर कोई हर बात श्रेष्ठ थोड़े ही लिख सकता है और आपने बीच में कोई तीर मार लिया तो यह मतलब थोड़े ही कि सारा कचरा हम झेल लेंगें - पर कुछ नही कहना, यह सब अब आत्म मुग्ध होने और स्व प्रचार का वीभत्स रूप है और हम सब इसमें पारंगत हो गए है वरना क्या बात है कि एक कविता लिखकर रोज अपनी ही फोटो चैंपने वाले आजकल इफ़रात में है यहां और जो फेसबुक छोड़ने का प्रवचन देते थे - वे आजकल इसी को रसोई और सुलभ बना बैठे है - अब क्या ही कहूँ, ससुरे इंस्टाग्राम हो फेसबुक, ट्वीटर या थ्रेड हर जगह वही पेल रहें है
बस पैक करके रख दी है है, भारी भरकम और बकवास किताबें, दूँगा नही किसी को भी - रूपये का नुकसान हुआ - सो हुआ, पर बुद्धि और समय का ना हो - यह जतन करता हूँ, समय कम है मेरे पास और पढ़ना बहुत है - सो सार्थक ही पढ़े तो बेहतर बाकी तो सब भड़ास है
इतना शर्मनाक हो गया है कि लोग निजी प्रसंगों को भी यहाँ परोसकर लाभुक बन रहे हैं हद है मतलब
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