अच्छा तुम्हारे शहर का दस्तूर हो गया
जिसको गले लगा लिया वह दूर हो गया
◆ बशीर बद्र साहब
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नियमतिकरण बनाम नियतिकरण
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◆ गांव, देहात और शहर में बच्चे ढोर चरा रहे थे, आवारागर्दी कर रहे थे, आपने उन्हें ड्राप आउट कहा और फिर अचानक किसी ने उन्हें ज्ञान दिया, कोई संस्था आई और उन्हें स्कूल में भर्ती करवाया - अब बच्चे पढ़ रहे है नियमित स्कूल जा रहें है
◆ किसी लड़की के साथ रेप हुआ था, वह मानसिक रूप से त्रस्त हो गई बहुत, तनाव में थी फिर किसी ने ज्ञान दिया कि उसे स्कूल की पढ़ाई करवाओ तो उसे स्कूल में भर्ती कर दिया, फिर वह 12वीं पास करके कॉलेज चली गई, नियमित पढ़ती रही
◆ घर में आर्थिक परेशानी की वजह से वह पढ़ नहीं पाया था, मजदूरी करता था, शहर चला आया, कोई ज्ञानी मिला तो उसने कहा कि पढ़ाई करो, उसने उसकी 2 साल की फीस भर दी, उसने पुन: ओपन स्कूल से परीक्षा पास की और अब पढ़ाई में लगन लग गई है वह नियमित पढ़ रहा है
◆ घर में काम करने वाली महरी आती थी, घर में भैया जी की किताबें देखकर कभी वह क़िताबों को छूती, कभी उसे टटोलती, भैया जी और भाभी जी ने महरी को स्कूल में दाखिला दिला दिया और वह नियमित पढ़ने लगी
इन सबका आगे क्या हुआ, कोई नही बताता - ना कहता, अँधेरो से निकले ये उजियारे के जुगनू कहाँ गए, आज कहाँ है, क्या कर रहें है - किसी को पता भी नही है
ख़ैर
कुल मिलाकर कहना यह है कि हर तरह की समस्या का हल आप स्कूल और कॉलेज की शिक्षा के नियमितीकरण में देख रहे हैं, जबकि मेरा अपना अनुभव है कि वर्तमान की सारी समस्याओं की जड़ शिक्षा है, और यह बताइए जरा कि जितने लोग यह 76 वर्षों से काम - धाम छोड़कर, तनाव और अवसाद छोड़कर शिक्षा में नियमित रूप से आए थे - आज कहां है, पढ़कर उन्होंने क्या किया, कितना वे अपने जीवन के अंधेरों से निकलकर उजालों की रोशनी बांटने लगे और कितने सक्षम हुए
कितनी समझ बनी उनकी - चाहे वह लड़के हो, लड़कियां हो, ग्रामीणजन हो, मजदूर हो या कामगार करने वाले लोग हो, या सवर्ण और अमीरजादे, और यह भी मुगालता दूर कर लीजिये कि ड्रॉप आउट गरीब वंचित वर्ग में ही है
आपको यह प्रश्न मजाक जरूर लग सकता है और आप यह जरूर कहेंगे कि मेरा दिमाग खराब हो गया है, शिक्षा बहुत जरूरी है, शिक्षा के गुणगान आप सब करेंगे - परंतु यह बताइए कि 76 वर्षों में जिन लोगों को आपने मुख्यधारा की शिक्षा में लाया था - उन्होंने किया क्या है, ऐसी क्या उनकी उपलब्धियां हैं - जो गर्व करने लायक है और सबसे अच्छी बात यह है कि आप जिन लोगों को या जिन बच्चों या वर्ग को शिक्षा से जोड़ें - उसका हश्र क्या हुआ
मुझे यदि आप 10 उदाहरण भी दे देंगे तो बड़ी बात होगी, मैं सच में समझने और जानने को उत्सुक हूं कि ऐसे लोग जो सब छोड़-छाड़ के पुनः नियमित शिक्षा में आए थे, उनका क्या हुआ - चाहे राजस्थान के लोक जुंबिश और दूसरा दशक की बात हो, या शिक्षा की क्रांति करने वाले लोग हो, पाउलो फ्रेरे और डी स्कूलिंग पढ़कर ज्ञान बांटने वाले या इन शिक्षाविदों द्वारा किया जाने वाला काम यह नवाचार या व्यभिचार के नाम पर शिक्षा में जो कुछ भी हुआ उसका क्या परिणाम निकला
मेरे अपने अनुभव में शिक्षा में काम करने वाले लोगों ने सबसे ज्यादा लोगों को बरगलाया है और देश की आज जो वर्तमान हालत है उसके लिए यह सब लोग जिम्मेदार हैं, और हमने नियमित स्कूली शिक्षा और डिग्री बांटने के नाम पर सिर्फ़ शातिर और घाघ वर्ग तैयार किया है फिर वो दलित, आदिवासी हो या सवर्ण
जिसे प्रश्न समझ आ रहा हो वे ही संतुलित कमेंट कर बहस करें
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उन सभी को भी प्रणाम जो तथाकथित फर्जी, मक्कार कवियों, साहित्यकारों को आज के दिन गुरू बनाकर प्रणिपात प्रणाम पेल रहें है और साल भर गलियाते रहते है
उन को भी जो गाइड को 5 - 6 साल से दण्डवत कर थक चुके पर ये गाइड थीसिस अप्रूव नही कर रहा और ना नौकरी दिलवा रहा, क्योकि उसका कुत्ता टॉयलेट ट्रेंड नही हुआ अभी तक
उन सभी को भी जय जय जो सम्पादकों को प्रणाम कर अगली मेल से पचास कविताओं का पुलिंदा भेज रहें हैं
उन सभी असली माड़साब लोग्स को भी जो पढ़ाने के बजाय वाट्सएप, इंस्टाग्राम या फेसबुक का भार माथे पर लिये कक्षा से लेकर शयन कक्ष और संडास में बैठे रहते है मोबाइल पकड़े और आपके सांस लेते ही कूद पड़ते है आपकी पोस्ट पर - फिर वे स्कूल - कॉलेज के माड़साब हो या फर्जी माड़साब
और बाकी तो हम सभी गुरू घण्टाल है ही, सो अपने आपकी पीठ ठोंक लें एक बार
और बाकी तो जो है - हैइये है
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आलोक धन्वा जी को फोन कर अभी
बधाई
दी
बहुत खुशी हुई उन्हें, बोले - "अच्छा लगा , संदीप याद किया आपने, तबियत खराब है दो - तीन माह से , बिस्तर पर ही हूँ, शाम को कभी कोई छात्र - छात्रायें आ जाते है - तो मेरा फेसबुक वाट्सऐप चला देते है, वरना मेरा तो अब चलाना नही होता, इसलिये सोशल मीडिया पर क्या हो रहा है मुझे खबर नही कोई, पटना आओ तो घर जरूर आना"
मैंने कहा, आराम कीजिये, प्रणाम
खूब दुआएँ आलोक जी के लिये
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