वाजिब सवाल
बल्कि परीक्षा और मूल्यांकन पर भी अब बात होनी चाहिये, अभी लॉ पढ़ रहा हूँ तो गम्भीरता से लगता है कि मूल्यांकन की पद्धति ही गड़बड़ है खासकरके अब लम्बा लम्बा लेखन और अंक या % के कोई मायने नही है, पीएचडी की थीसिस नही पढ़ता कोई तो लाखों पृष्ठ कौन पढ़ेगा - इस सबमें कौशल और दक्षता का क्या महत्व है
HC Dave ने न्यूनतम अधिगम स्तर (MLL) की बात तब 1992 - 94 की थी - जब हम मध्य प्रदेश में सरकार के साथ पहली से आठवीं तक का पाठ्यक्रम बना रहे थे, पाठ्य पुस्तकें लिख रहे थे तो न्यूनतम अधिगम स्तर की बहुत बात होती थी, दवे साहब की एक पतली सी किताब थी जिसमें उन्होंने कई सारे मानकीकृत पैमाने बना रखे थे परंतु नीपा, सीआईई और तत्कालीन एनसीआरटी में उनके बहुत विरोधी थे मध्यप्रदेश में भी कुछ कॉमरेड तत्कालीन राज्य शैक्षिक अनुसंधान परिषद के साथ जुड़े थे जो बातें तो बहुत करते थे शैक्षिक नवाचार की, परंतु समझ के स्तर पर गोबर गणेश थे, इनमे से अधिकांश आजकल अज़ीम प्रेम विवि में रायता बाँट रहे है - वहाँ बंधुआ मजदूर बनकर अपनी दुकानों का रुपया वसूल रहें है उस कारपोरेट से सगरे कॉमरेडस ; ये सब राजीव गांधी मिशन की अमिता शर्मा और आर गोपाल कृष्णन के चहेते थे जो सिर्फ बकर करते थे, इन्होंने बहुत विरोध किया दवे समिति के MLL का, परंतु आज लग रहा कि वो सही थे
शिक्षा की जकड़न को अब कम करने की ज़रूरत है
फिनलैंड सहित यूरोप के अनेक देशों में विद्यार्थियों के परीक्षा परिणाम सार्वजनिक रूप से घोषित नहीं किए जाते हैं। सहपाठियों को भी एक दूसरे के अंक नहीं पता होते हैं। भारत के कुछ निजी विश्वविद्यालयों में भी इसकी शुरुआत हो चुकी है। इसके चलते किसी विद्यार्थी में अंकों को लेकर न श्रेष्ठताबोध पैदा होता है और न हीनताबोध।
क्या आपको परीक्षा परिणाम की सार्वजनिक घोषणा जरूरी लगती है और क्यों?
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