आषाढ़ी एकादशी की
बधाई
सबकोप्रसंगवश Brajesh भाई का लिखा याद आ रहा है देवास की टेकड़ी पर जाना, नारियल चढ़ाना, प्रसाद, रंग बिरंगी टोपियाँ, मेला, भीगते पानी मे टेकड़ी जाना, नीचे लगने वाले मेले में जलेबी खाना, बाँसुरी, लाल तलवार खरीदना और ढेरों मिट्टी के खिलौने
याद है आज ही पिताजी बरसाती जूते दिलवाते थे जो खूब काटते भी थे और चूँ चूँ बजते भी थे, शहर के एमजी रोड पर हर दुकान में ये जूते टँगे दिखना शुरू हो जाते थे, खोपरे का तेल जूते में लगाकर रखते थे, ढोल वालों की नियमित आवक शुरू हो जाती थी दरवाज़ों पर, आज से ढेरो तीज त्योहार और घर में अलग अलग पौष्टिक खाना
इस एकादशी के ठीक एक दिन पहले कांदा नवमी मनाते है हमारे मराठी ब्राह्मण परिवारों में, आज के बाद लहसून,प्याज़, बैंगन और वे सभी सब्जियाँ - फ़ल जिनसे गैस होने का खतरा होता है, का खाने में प्रयोग चार माह के लिए स्थगित हो जाता है तो खूब प्याज़ के पकौड़े बनाकर खाये जाते है - जो कल रात को मैंने भी खाए दबाकर , पर अपुन को सब चलता है बारहों मास और छत्तीस घड़ी
कहाँ गए वो दिन - सब खत्म हो गया नॉस्टेल्जिया नही पर लगता है कहाँ आ गए हम, अपना सब खत्म करके किस दौड़ का हिस्सा बन गए और अब देने को शेष क्या रहा विरासत में
बहरहाल, अपने आसपास जो अभी पर्व त्योहार, रीति रिवाज और मेले ठेले शेष है उन्हें बचाकर रखिये, बाज़ार तो सब लीलने को बैठा ही है
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1 जून 1993 को Binay Saurabh को लिखी चिठ्ठी
दुर्भाग्य से मेरे पास से वो सारी बहुमूल्य सम्पदा 25 वर्षों में शहर-दर-शहर में सामान शिफ्टिंग में कही खो गई - जिसमें ज्ञान रंजन से लेकर हरिनारायण व्यास, प्रभाकर माचवे, प्रभाकर श्रोत्रिय, निर्मल वर्मा, शिवानी, मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान, बीरेंद्र वरणवाल, जितेंद्र भाटिया, मृणाल पांडे, राहुल बारपुते, विष्णु चिंचालकर, बाबा डीके, हिमांशु जोशी, सुंदरलाल बहुगुणा, मेघा पाटकर, हर्ष मन्दर, शरद बेहार, सुदीप बैनर्जी, अशोक वाजपेयी, बीड़ी शर्मा, जितेंद्र श्रीवास्तव, दिनेश कुशवाह, कमलाप्रसाद, बीके पासी, शिव मंगल सिंह सुमन, बालकवि बैरागी, प्रभाष जोशी, प्रणय प्रियम्वद, प्रियम्वद, उदय प्रकाश, मिथिलेश राय, विनायक सेन, इलीना सेन, संजीव ठाकुर (जब भागलपुर के टीएनबी कालेज में पढ़ाते थे) और विनय सौरभ की चिठ्ठियाँ थी ; इस सारे फसाने में कहना यह है कि सबसे ज्यादा विनय की चिठ्ठियाँ थी और वह स्नेह और परस्पर सम्मान आज भी उसी शिद्दत के साथ बना हुआ है
उस समय यह समझ भी नही थी कि इन सबका क्या महत्व है, 1985 से 1998 और फिर 2000 से 2009 तक का यह काल था, जब पत्र लिखें - पढ़ें और सहेजे जाते थे पर शनै शनै नेट ने सब लील लिया, आज भी मेरे पास खरीदे हुए लगभग 200 पोस्टकार्डस, 78 के करीब अंतर्देशीय और लिफ़ाफ़े और करीब हजार डाक टिकिट रखें है, करीब 100 रेवेन्यू टिकिट भी रखें है ₹1/- वाले जिनका अब महत्व ही नही अब
मुझे यह कहने में गुरेज भी नही कि चिठ्ठी लिखना बन्द करने से मेरा लेखन भी लगभग बन्द हो गया और वह जोश उत्साह नही रहा वरना लम्बी लम्बी कहानियाँ, समीक्षाएँ, पुस्तक समीक्षाएँ, आलेख, आलोचना और खूब कविताएँ लिखी और उस समय की समकालीन पत्रिकाओं और अखबारों में छपी भी , यह सब हिंदी मराठी अँग्रेजी और मालवी में किया काम था पर अब उस सबको याद करने से सिर्फ़ दुख, क्षोभ और अवसाद ही होता है - अपने आप पर गुस्सा भी आता है और दया भी, उन दिनों का माहौल भी इतना कलुषित नही था
अब पत्र हाथ से लिखने की सोचता हूँ तो बात कर लेना सहज लगता है, इधर हाथ से लिखने की आदत भी खत्म हो गई है - ना पोस्ट बॉक्स के लाल डिब्बे नजर आते है और ना पोस्टमेन का इंतज़ार, देवास के जीपीओ के बाहर एक डिब्बा दिखता है जिस पर कभी शाहनी के विज्ञापन दिखते है गुप्त रोग के इलाज वाले या किसी जादूगर के जिसे पोस्ट ऑफिस के कर्मचारी यदा - कदा साफ़ कर चमका देते है
कभी ज़्यादा मूड ऑफ हुआ तो ये डाक सामग्री भी कही बहा आऊँगा क्योकि बेतहाशा वृद्धि हो गई दरों में और उपयोगी नही है बहुत
बहरहाल, ये चिठ्ठी, ये शाम और ये आसमान पर कालिमा और उमस - कितना कुछ लिखें अक्षरों से साफ़ हो जाता है
शुक्रिया विनू - एक सुनहरे इतिहास की यात्रा करवाने को
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हिंदी का साहित्य इस समय कुछ युवा माफियाओं और इंटरनेट के लठैतों के हाथ में फंसा है जो सिर्फ चाटुकारिता, अवैध रिश्ते और जुगाड़ पर यकीन करते है
छपास के लिए इनके चंगुल में मत फँस जाना साधौ, ये ₹1500/- लेकर या आपका चैन, विचारधारा खींचकर सब कुछ छीन लेंगे -- सावधान
ये हर जगह काबिज़ होकर एक तरह का विषेष और इलीट साहित्य थोप रहें है - ब्लॉग हो, वेब पेज हो, पत्रिकाएँ या विशेषांक , ये सब मिलकर सर्वहारा और शोषितों के दमन का कुचक्र साहित्य में रच चुके है , कार्पोरेट्स के इन गुलामों के आगे जब हमारे उत्कृष्ट लोगों को चिरौरी करते देखता हूँ तो मुक्तिबोध याद आते है
"पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है"
बच के रहना इन पोस्टर बॉयज और मार्केटिंग के भेड़ियों से
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"अबै कल से चार बार फोन लगा रहा हूँ, बाज़ार से कटहल मंगवाना है और तुम कटहल और कद्दू के विशेषज्ञ हो, फोन उठाते क्यों नही" - मैंने पूछा
"नही उठाऊंगा, आपकी कॉलर ट्यून बदलो पहले" - लाईवा बोला
"क्यो" - मैंने पूछा
"आपकी ट्यून जिसमें बेगम अख़्तर की ग़ज़ल है - 'वो जो हममें तुममें करार था' सुनकर मेरी भावनाएँ भयंकर आहत होती है" - लाईवा का जवाब था
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