|| कबीरा इस संसार में भांति - भांति के लोग ||
दृश्य - 1
तीन - चार प्रदेशों के लोग आए हुए हैं और बैठे हुए हैं घेरे में, कोई प्रशिक्षण है और बड़े-बड़े दिग्गज प्रशिक्षण देने के लिए भी बुलाए गए हैं ; एक सत्र में एक प्रशिक्षक ने पेशेंस कैसे रखना या धैर्य कैसे धरें सामाजिक जीवन में, यह कहानियों के माध्यम से गतिविधियां करते हुए प्रशिक्षणार्थियों को समझा रहे हैं - उनकी कहानी बीच में चल रही है और अचानक प्रशिक्षण के संयोजक एक आवाज देकर कहते हैं कि " चाय तैयार है , सभी पी लीजिये, बाद में ठंडी हो जाएगी - पहले आकर पी लीजिए" - प्रशिक्षक को अचानक गुस्सा आता है और वे उठ खड़े होते हैं और कहते हैं "मेरा ध्यान भंग हो गया - अब मैं पैशंस क्या होता है , नहीं सीखा सकता और गुस्से में अपने कमरे में लौट जाते हैं"
दृश्य - 2
प्रशिक्षण का अंतिम दिन है और लोग कमरे खाली कर रहे हैं , एक प्रशिक्षक अपना सामान उतार कर रिसेप्शन पर लाते हैं और कहते हैं कि उन्हें एक वेटर की जरूरत है - जो उनका सामान कार तक पहुंचा दें, क्योंकि कमरे में कोई वेटर आया नहीं था - इसलिए मैं बमुश्किल लिफ्ट में सामान उठाकर लाया और अब उन्हें वेटर चाहिए कि वह कार तक लगेज पहुंचा दे ; जब कोई नहीं आता - थोड़ी देर तो वे मैनेजर को बुलाकर एक युवा लड़की को - जो रिसेप्शन पर थी, को बुरी तरह से डांटने लगते हैं और अपना आपा खो बैठते हैं - होटल इंडस्ट्री का इतिहास निकालकर समझाने लगते हैं और कहने लगते हैं कि यदि होटल यह सब सुविधा नहीं दे सकता तो होटल में आने का कोई मतलब नहीं है और अगली बार हम नहीं आएंगे
सुदूर बालाघाट से महानगर पढ़ने आई और पार्टटाइम नौकरी कर रही वह गरीब लड़की रोने लगती है और माफी मांगती है कि "कई कमरे खाली हो रहे हैं, सुबह-सुबह दो ही वेटर है, आप सामान रख देते तो मैं कार में रखवा देती" - परंतु प्रशिक्षक महोदय को सुनना किसी की बात नहीं है, बस जोर-जोर से चिल्लाना है और अपनी बात मनवाना है - इधर उन्हें नाश्ता करने में भी देरी हो रही है क्योंकि इसके बाद उन्हें गांधी आश्रम जाकर वहां पर अहिंसा और सत्य के प्रयोग के संदर्भ में गांधी की शिक्षाओं पर भी बोलना है तीन-चार दिन तक लगातार
पता नहीं गांधी आश्रम में उनका सामान कौन ढोता होगा और यदि ढोता भी होगा तो क्या यह गांधीवाद है, क्या यह स्वाध्याय है, क्या यह अहिंसा है और क्या यह न्याय है जिसके बारे में वे पिछले चार-पांच दिनों से विभिन्न प्रशिक्षणार्थियों को समझा रहे थे कि धैर्य रखा जाए, गुस्से में बोला गया सत्य भी हिंसा होता है या सबको समान रूप से आदर और सम्मान के साथ देखा जाए, व्यक्ति की गरिमा का समुचित ध्यान रखा जाए , अपना काम खुद करें - आदि, आदि, आदि
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पता नहीं जीवन के मूल्य क्या है - परंतु कई लोगों को हमेशा ही चिल्लाते हुए देखा है - चाहे रेल में या पानी की व्यवस्था हो किसी होटल पर, खाते समय या किसी कार्यशाला में जब बोलने का अवसर ना दिया जाए तो उठ कर बहुत लोग भिनभिनाने लगते है, दूसरों को कोसने लगते है और दूसरे प्रशिक्षकों के सत्र के दौरान या फिर सब को मूर्ख समझते हुए खुद को खुदा मान कर सर्वज्ञ मान लेते हैं
अद्भुत है रे संसार में कहानियाँ बाबू - कब तक पुकारूँ
#खरी_खरी
#कुछ_रंग_प्यार_के
Book on the Table
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यात्रा वृतांत अब हिंदी में ज़्यादा स्थापित और पुख्ता विधा है, हर कोई मुंह उठाकर इसपर हाथ साफ करने लगा है और पूरा पढ़ने पर कुछ पल्ले नही पड़ता, इस बीच करीब 9 यात्रा वृतांत पढ़े पर उत्तराखण्ड पर लिखें किन्ही जोशी का संग्रह पसन्द आया था, अनिल यादव का "वो भी कोई देस है महाराज", फिर अनुराधा का ; बाकी सब तो बहुत कृत्रिम और फेक लगें - इसलिये उन पर ना लिखने का मन हुआ कभी, ना लिखा भी
बहरहाल, अनुराधा बेनीवाल के पास संतुलित भाषा ही नही, गपोड़ी की तरह किस्से नही - सच्चाई के बयान है, विस्तृत फ़लक और दृष्टि ही नही - वरन एक स्पष्ट विचार के साथ अपना एजेंडा भी है और समझ भी है , उनकी प्रांजल भाषा और बगैर पांडित्य या ठसक दिखाने के वे बेहद सरल और सहज ढंग से बात करती है
पहला सँग्रह आने के बाद यह दूसरा महत्वपूर्ण सँग्रह है , आज से यह हाथों में है, "रेत समाधि" भी समानांतर रूप से पढ़ रहा हूँ , हालांकि उसे पढ़ना थोड़ा दुरूह है पर मज़ा आ रहा है उसमें भी
1 - आजादी के बाद भी इंडिया के लोग हमें चिंकी पिंकी ही कहते है
2 - दिल्ली की सरकार वहाँ से हुक्म देती है और हमें मानना पड़ता है
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ये दो डायलॉग लिखने से ना फ़िल्म बिकेगी, ना क़िताब और ना मुद्दा सुलझेगा
मणिरत्नम इस विषय पर पहले ही फ़िल्म बना चुके थे जिसमें गुलज़ार का "ऐ अजनबी तू भी कही आवाज़ दे कही से", जैसा अमर गीत था
अनेक के अनेक अर्थ है, अनुभव सिन्हा सिर्फ बेहतरीन दृश्य ही दिखा पायें है - बजाय मुद्दे या हल के, एक फ़िल्म का अपना संसार होता है जो तीन घण्टों में समेटना ही पड़ता है, पर अनेक कही भी इस दिशा में सफ़ल होती नही दिखती
खूबसूरत दृश्य, जंगल और दिल - दिमाग़ से चिंकी पिंकी निकालने के लिए भले देख लें, पर है कुछ नही फ़िल्म में, आयुष्मान खुराना का इस्तेमाल भी वे कर नही पायें जबकि वो ज़्यादा मैच्योर अभिनेता हो गए है अब
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"भाई साहब , मुझे एक भोत जरूरी काम हेगा - आप अभी मिलेंगे क्या" - उधर लाईवा था
"गुरु, कॉलेज निकल रहा हूँ, पंचायत चुनाव की ड्यूटी है, जो कहना है जल्दी कहो और फोन पर ही बोलो" - मैंने बाइक स्टार्ट करते हुए बोला
"प्रभु, मेरी कविता ना लोग सुन रहें, ना सम्पादक छाप रहें और ना अब कोई लाइव करवा रहा है - आप सरकारी टाईप की नौकरी करते है - गजेटेड़ अफसर हो दो कौड़ी के और हर माह फोकट की तनख्वाह लेते है, आपको मालूम ही होगा , जरा बताएंगे कि इन सब नामुरादों के ख़िलाफ़ एक एसआईटी गठित करने के लिए किसको आवेदन देना होगा , आजकल उसका इज़ फैशन हेगा " - बड़ी शातिरी से पूछ रहा था वो
"अबै ओ, कविराज - तू साले सुबू - सुबू फोन किया ही मत कर कमीने , पूरा दिन बर्बाद हो जाता है और एसआईटी तो मैं गठित करवाता हूँ तेरे ख़िलाफ़ , ये चुनाव निपटने दें जरा "...
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|| बोलोगे, मुंह खोलोगे - तब ही तो ज़माना बदलेगा ||
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गांधी अफ्रीका से 1915 में आये थे , लड़ाई लड़ी, देश 1947 में आज़ाद हुआ और 1948 में उन्हें गोली मार दी गई, 35 - 38 साल का समय तत्कालीन सत्ता के लिए गांधी एक चुनौती थे, नर्मदा आंदोलन भी 37 वें वर्ष में प्रवेश कर गया है और गुजरात दंगों का भी काल लगभग दो दशक का हो चला है
गांधी ने कहा था कि "आज़ादी के बाद के संघर्ष और ज़्यादा कठिन होंगे, न्याय की अवधारणा और न्याय पाना और मुश्किल होगा"
दो तीन दिनों से एनजीओज़ के ख़िलाफ़ जिस तरह का माहौल बनाकर निगेटिव नरेटिव सेट किया जा रहा है वह बेहद शर्मनाक है और इसमें राजनीति ही नही - मीडिया, न्यायपालिका और ब्यूरोक्रेसी भी बड़े स्तर पर शामिल है और ये तीनों संविधान एवं जनता के प्रति उत्तरदायी है जबकि दुर्भाग्य से आज ये तीनों सत्ता के पिठ्ठू बन गए है, अपने संविधानिक कर्तव्य भी भूल गए है
जिस तरह के मैसेजेस आईटी सेल से प्रसारित किए जा रहें हैं वह बेहद दुखद है, एक विधवा और एक जुझारू महिला के ख़िलाफ़ सत्ता जिस तरह से कानूनी प्रावधान करके बदले की भावना से काम कर रही है वह शोचनीय है और यह नरेटिव बहुत घातक है, एक दिन यही सब धर्म, आध्यात्म, गांधीवादियों, पर्यावरणवादियों, न्यायवादियों और बाकी सारे समाज सुधारक आंदोलनों के ख़िलाफ़ भी होगा और हम कुछ नही कर पायेंगे
अल्बर्ट आईंस्टीन कहते है "जब संसार से मधुमख्खियां खत्म हो जाएंगी [ एक छोटा सा प्राणी जो पूरे प्रकृति की तुलना में बहुत छोटा है पर, शहद बनाने का हुनर उसी के पास है ] उसके चार साल बाद संसार विलुप्त हो जाएगा", ठीक उसी तरह से जब आप सिविल, स्वैच्छिक संस्थाओं को - जो नागरिकों के अधिकार और न्याय के लिए संविधानिक दायरे में काम कर रहे हैं, को खत्म कर देंगे तो संसार से सब कुछ खत्म हो जाएगा और सत्ता को भी यह समझना चाहिये कि जैसा प्रेमचंद पंच परमेश्वर में कहते है कि "क्या बिगाड़ के डर से क्या ईमान की बात भी नही कहेंगे"
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ग्वालियर से अब विदाई है, पाँच दिन तक लम्बे समय बाद रुका यहाँ, DFID supported Safe City Project के समय यहां बहुत आया , इस बार शहर से बहुत दूर रुका था, अभी रेपीडो के ऑटो से स्टेशन आया हूँ
जो मित्र यहां ऑटो से छोड़ने आया उसका नाम अकरम था, एम कॉम पास है, लोन पर तीन साल पहले ऑटो लिया था पर कोविड में किश्तें भर नही पाया तो बैंक ने कुर्की कर ली, फिर अभी लोन लेकर नया ऑटो लिया है, दो बच्चे है अकरम के, उम्र लगभग 38 होगी, घर मे फांकों की नौबत आ जाती है अक्सर
जब मैं स्टेशन के बाहर उतरा तो कहा कि भाई आओ साथ नाश्ता कर लो तो उसकी आँखों मे आंसू आ गए, बोला "नही, सर जी आपने पूछ लिया पेट भर गया, काम पर निकलना है आज ज़्यादा कमाना है, कल भी सब्जी नही बनी दोनो समय" ...
मैंने दस मिनिट रोका उसे और परिवार के लिए इडलियां , वड़े और सांबर पैक करवाकर दिया , उसके आंसू नही रूक रहे थे, यह सम्भवतः अब सारे युवाओं की नियति है इस देश में पर समझ विकसित होना चाहिये
क्या आपने एक पढ़े लिखें युवा और दो बच्चों के बाप को रोते हुए देखा कभी - शायद देखा हो पर जब नाम अकरम हो और रोज कमाना पड़े तो आंसू राजनीति नही करते
"हम भारत के लोग", जब हम कहते है और कोई एक आदमी खाना भी नही खा पा रहा तो आप कैसे खाकर एन्जॉय कर सकते है - मेरे लिए तो यह बहुत बड़ा सवाल है आपके लिए क्या है मुझे नही पता
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|| भाषा के हत्यारे ||
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भाषा जितनी सरल सहज और पठनीय होगी उतनी समृद्ध होगी, इधर हिंदी के अधिकांश युवा लेखकों ने कहानी कविता से लेकर फेसबुक पोस्ट तक को इतना दुरूह कर दिया है घटिया लिख लिखकर कि भाषा के ये घोषित दुश्मन लगते है मुझे
और ये सब बेहद मध्यमवर्गीय परिवारों से आये युवा है जो अभावों में पले बढ़े और हिंदी माध्यमों से ही निकलकर आये, तथाकथित बड़े शहरों या महानगरों में पढ़े, जुगाड़ और सेटिंग से कुछ नौकरियां पा ली और धंधे पाल लिये और अब संगठित गैंग के रूप में हिंदी के शोधार्थियों से लेकर हिंदी के ही प्राध्यापकों और स्थापित लेखकों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल कर बैठे है, ये विधिवत पीएचडी न हो सकें - उसकी कुंठा भी इनमे भरी है गले - गले तक
ये वो कुंठित कमज़र्फ लोग है जो प्राध्यापकी ना पाने या रज़ा फाउंडेशन में ना जा पाने के गम में जीवन को मुरब्बा बनाकर हिंदी की बारह बजा रहें है, अति उत्साह में अपना व्यक्तिगत जीवन भी दांव पर लगाकर सबकुछ खो देने की हद तक ये जा ही चुके है, या सिर्फ रज़ा के बंधुआ लोगों को आकर्षित करने के लिए जीवन स्वाहा करने वाले नवोन्मेषी सृजनकर्ता बन रहे है
एक संगठित ट्रोल बाज गैंग के रूप में आप इन्हें बेहद आसानी से चींहित कर सकते है और इनके कुछ बंधुआ है जो हर काले पीले लिखें पर वाह - वाह करते है और ये कुतर्की ज्ञानी अपना मजमा लगाए जमूरों की तरह उचकते रहते है सारा दिन
ठीक इसके विपरीत जो जितना गहरा डूब गया है, जो खुसरो कहते है "जो डूबा सो पार" ही भाषा को बचाये रखने के जतन कर रहें है - सहज, सरल और अत्यंत प्रांजल भाषा मे रचकर , इसलिये वही सराहा जा रहा है, पढ़ा जा रहा है और पुरुस्कृत भी हो रहा है वैष्विक फ़लक पर
इन लोगों में किताबो को लाने की होड़, फिर जुगाड़ से पुरस्कृत होने की सेटिंग, बेचने की हड़बड़ाहट, अमेजॉन पर लिस्टिंग और रैंकिंग की जुगाड़, भयानक आत्म मुग्ध होकर बेशर्मी से दूसरों को नीचा दिखाते हुए अपना माल खपाने की जुगत और तमाम वे काम जो सीधे - सीधे भाषा को नुकसान पहुंचा रहे - वो सब काम करने में ये गैंग अगुआ है
चिंता इनकी नही, ये तो अब सभ्य समाज, इलीट और दिल्ली वाले के तमगे लगाना चाहते है पर भाषा को जो नुकसान कर किशोरों, युवाओं के जो सामने रोल मॉडल बनना चाह रहे - उसका क्या और भाषा के हत्यारे बन गए उसकी सज़ा कौन देगा इन्हें
सतर्क रहिये, इनकी लुभावनी, लच्छेदार बाज़ीगरी में फंसकर आप फंस न जायें कही - ये तो खाये - पिये लोग है अब जो अपना घर जलाकर निकल गए है संसार जलाने भाषा का पर आपको अभी अपनी ही दुनिया में प्रेम - मुहब्बत और इसी सरल - सहज भाषा से अपनी ज़िंदगी गरिमा के साथ बीताना है
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