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Badri , Kuchh Rang Pyar Ke, Khari Khari and Drisht Kavi - Posts of 4 and 5 July 2022


1975 से 1985 के समय की बात है हमारे देवास शहर में एक पागल था - "बद्री" सारा दिन घूमता रहता कि कही कुछ भी मिल जाये और जब मिलता तो हर कही बैठ जाता और चाट - चाटकर खाता था, शहर के सारे पुराने लोग जानते है यह बात

उस पागल बद्री के पास एक खाद का एक बड़ा सा बोरा हुआ करता था जिसमें वह कागज़ पत्तर रखा करता था और बीनता रहता था, ऊँचा - पूरा सुदर्शन था - बस मुंह मे लार टपकते रहती थी हरदम
बस अफसोस यह कि वह कभी किसी गोविंद वल्लभ पंत संस्थान का निदेशक नही बना या जेएनयू नही गया प्रोफ़ेसर बनकर और हकाला नही गया, ना उसने संघ भक्ति पर भास्कर में लम्बे - लम्बे आलेख लिखें कभी और ना प्रगतिशीलों की गैंग में शामिल हुआ रँगे सियार की तरह
प्रगतिशील लोगों को नौकरी जो ना कराये वो कम है और ये फर्जी वामपंथी नौकरी बचाने और पेट के लिए जो ना करें वो भी कम ही है - स्कूल, कॉलेज, विवि की मास्टरी से लेकर बैंक, पोस्ट ऑफिस, राजस्व, स्वास्थ्य, मीडिया या ब्यूरोक्रेसी में धँसे ये लोग सिर्फ और सिर्फ मौकापरस्त है और छद्म आवरण धारण करने वाले ऐय्याश है
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ये नीचे का मसाला और तस्वीर Adnan की भीत से साभार है
"आख़िर गिल अपनी सर्फ़ दरे-मैकदा हुई,
पहुँची वहीं पे ख़ाक जहाँ का ख़मीर था
● मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार
अफ़सोसनाक है कि आपने "प्रेमपत्र" बचाते-बचाते गिद्धों की पैदल सिपहगिरी को चुन लिया"
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"यार सुनो, तुमने पिछले वर्ष वो गुरूजी की ठंडाई वाली बोतलें दी थी ना, जिनकी एक्सपायरी होने के बाद नया लेबल लगाकर हर राखी पर तुम अपनी सगी और बाकी मुहल्ले भर की बहनों को बांटते थे , इस बार दस मुझे भी दे देना सस्ती दरों पर, अगले माह राखी है तो अभी से बजट एडजस्ट करना पड़ेगा" - लाईवा को फोन किया मैंने और विनम्र अनुरोध किया
"भाई साहब , क्या ही कहूँ, तीन चार साल से गुरूजी की फैक्ट्री में था अकाउंट्स सेक्शन में, तो जुगाड़ कर मनुक्का के पैकेट और ठंडाई की बोतलें थोक में घाड़ लाता था कम्पनी से और त्योहारों पर गिफ्ट दे देता था, पर अब नौकरी छोड़ दी है और नई ले ली है इधर, आप कहें तो यहाँ के प्रोडक्ट घटे दरों पर भिजवा दूँ" - लाईवा का जवाब था
"बिल्कुल, भिजवा दो यारां, कम से कम बहनों और बच्चियों को गिफ्ट तो दे पाऊँगा, वैसे क्या प्रोडक्ट बन रहें हैं तुम्हारी नई कम्पनी में" - मैंने पूछा
"जी, हम लोग हर उम्र के लोगों के लिये 'डाइपर' बना रहे हैं और वही बाँटूगा सबको" - खीं, खीं, खीं हंस रहा था बेशर्म
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#ICICIBank ने सभी सेविंग खातों की न्यूनतम राशि पचास हजार रुपया कर दी है मतलब एक आदमी जिसका खाता यहां है और उसे हमेंशा पचास हजार रखना ही होंगे हर हाल में
वाह रे निर्मला बाई, तेरे जैसी वित्त मंत्री नही देखी इतनी घटिया नीति - सरकार बहादुर शर्म करो - जो आदमी पचास हजार रखेगा और तनख्वाह ही उसकी बीस पच्चीस हजार है तो महीने भर खायेगा क्या
इन लोगों के दिमाग़ में गोबर के अलावा कुछ और है क्या
#RBI ने इसकी अनुमति कैसे दी , शर्म करो देशप्रेमियों या डूब मरो कही जाकर
#PMO, Narendra Modi कुछ होशो हवास है या सब कुछ चुनाव जीतने में ही खर्च हो रहा दिमाग आप लोगों का
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|| भला हुआ जो मेरी गगरी फूटी ||
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इंसानों का बिछड़ना जीवन से हों या फेसबुक से - इंस्टाग्राम से हो या मोबाइल की फोन सूची से, हमेशा कष्टप्रद होता है ; अपने 35 सालों की यात्रा - नौकरी और काम की, में कई अनुभव आये पर जो जानते है वो मानते है कि मैं बदतमीज और निहायत ही उज्जड़ हूँ और उन्होंने मुझे इसी रूप में अपनाया था, पर अब बर्दाश्त करने की शक्ति क्षीण होती जा रही है हम सबकी
मेरी याददाश्त मेरी सबसे बड़ी कमज़ोरी है, मप्र के बड़े से बड़े दिमाग़ी डाक्टर को दिखा चुका हूँ कि भूलने की कोई दवा दे पर सम्भव नही हो रहा, वे कहते है यह खुदा की देन है और बिरलों को नसीब होती है - अर्थात मेमोरी, पर इस वजह से हमेशा मुझे बहुत दिक्कत होती है - मित्रों से लड़ाईयां, परिवार में तनाव और निज जीवन में अनावश्यक जीबी का भार जो डिलीट नही हो रहा या फॉर्मेट नही हो रही दिमागी हार्ड डिस्क
आज एक बहुत पुराना नाता टूटा अपनी ओर से नही - उस ओर से - याद आया कि जिस अफसाने को अंजाम देना हो मुश्किल ... और लगा कि जीवन में एक - दो मित्र ही पर्याप्त है बाकी तो भीड़ है
जब मैं कोई घर खाली करता था तो उस पत्थर को भी सहेज कर ले जाता था जो अनजाने में दरवाज़ों के पास ओट के रूप में रखा होता था, जिसने मेरा साथ दिया, आखिरी बार जब लखनऊ से फाइनली घर आ गया - कभी कही ना जाने के लिए तो, लखनऊ में जहाँ रहता था - उसके पास के एक पार्क में जाकर उन सभी पत्थरों को ( जो 25 साल में इकठ्ठे किये थे) एक कोने में संजो आया था, मिट्टी डाल आया था अब कभी लखनऊ जाता हूँ तो तेलीबाग की वृंदावन योजना के उस पार्क में जाकर उन्हें देख आता हूँ, इधर देखा कि वहाँ उम्मीदों के फूल उग आए है, कुछ नीम के कोमल तने - कच्ची पक्की कड़वी मीठी पत्तियों के साथ जो मेरी कड़वाहट जज्ब कर अब शायद किसी का भला करें
यह अतिशयोक्ति लग सकता है पर यह सच है, हम सब इंसान है और यदि हममें यह सब नही तो कोई भी तरक्की मायने नही रखती, बहरहाल
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"कोई फ़र्क़ नहीं
सब कुछ जीत लेने में
और अंत तक हिम्मत न हारने में"
कुँवर नारायण जब यह कहते है तो बहुत प्रश्न मन में उठते है, संशय सिर्फ अपने - आप पर नही वरन पूरी सृष्टि और सभ्यता पर उठते हैं , उस विकास यात्रा पर उठते है जो बार-बार हमें सचेत करते है कि आख़िर जीत - हार का क्या अर्थ है और इसका हमारे जीवन से क्या लेना देना है
मैं जब पलटता हूँ और देखता हूँ तो अपने आसपास झुंड, भीड़, अकेले - दुकेले लोग, स्वार्थ और बेहद मतलबी लोग, सहज और सरल लोग, गुनगुने सम्बन्धों की दुहाई देने वाले और पसीने की बदबू से बजबजाते लोग नज़र आते है, इनमे से बहुत लालायित है - कही पहुँचने को, सब कुछ रौंदकर वे बहुत आगे पहुँच जाना चाहते है, कुछ है जो अकेले भी है हाथ थामकर बढ़ना चाहते है, कुछ है जो थके है आगे देख नही पा रहे पर आगे बढ़ने का माद्दा अभी उनमें धड़कता है, कुछ है जो जूझ रहे है, मिट्टी और कीचड़ से सने उनके काले चीकट शरीर और पाप की गर्त में डूबे ये लोग भी बढ़ने की चाह में पांव पसार रहें हैं, मौत का भय अब समाप्त हो गया है और सिर्फ जीवित रहने का संघर्ष ही सब कुछ है
चहूँ ओर से ये सिसकते स्वर अब चीखों में तब्दील हो रहें है, जीत - हार के महीन अंतर को छोड़कर अब लड़ाई अस्मिता और उस गरिमा की है - जो एक स्वतंत्र व्यक्तित्व को ज़िंदा रखती है, सँविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की है - जो हर उस शख्स को प्राप्त है, परंतु अपनी जीत के लिये लगातार दूसरों की हार और सबको पीछे रखने की नीति आखिर कैसे जीवन का सत्व बन गई है और फिर तमाम वो सारे धत कर्म करना जो अंततः एक पेशेवर मजबूरी बन जाती है
हो सकता है कुँवर नारायण का समय अलग रहा हो, पर वो विरल और विलक्षण दृष्टि उनके पास थी जो आज के इस समय को भेद पाने में सक्षम थी , धीरे - धीरे सब कुछ अप्रासंगिक होते जा रहा है, सारे रोल मॉडल्स धराशायी हो गए है, हम सब एक चक्रव्यूह में है और इसके अंदर फँसकर हम सब बाहर निकलने का रास्ता भूल गये हैं , हम वो सब कर रहे है जिसपर हमारा तनिक भी विश्वास नही है - चाहे प्रार्थना के आप्त स्वर हो, स्नेहसिक्त दुआएँ हो या विनम्रता के बजते स्वरों में अपनावे के आग्रह हो, हम सब अब अपने से ही छिटककर दूर खड़े है, अपने होने का शोक हम सब मना रहे है और चुपचाप खड़े मौत का उत्सव मना रहें है, कितना विचित्र है कि हम सब अब जन्म लेने को पुण्य या प्रताप नही मानते बल्कि अपने पैदा होने की पीड़ा को खुलकर व्यक्त करते है और कमोबेश रोज़ अपने होने के उद्देश्य और जन्म की सार्थकता को चींहित करते हुए सवाल करते है और अफसोस कि वे सारे सवाल व्योम में त्रिशंकु की भांति अटके है और किसी में हिम्मत नही कि जवाब देने की हिमाक़त कर सकें
फ़र्क सच में कुछ नही है - बस नजरिये की बात है और सिस्टम में फिट होने की बात है, यदि आप मोल्ड हो सकते है तो ठीक वरना एक लम्बी पंक्ति है - आत्मा,शिस्त और ज़मीर बेचकर सब कुछ ठीक कर लेने वालों की
बस गाते रहिये
"सखियाँ, वा घर सबसे न्यारा
जहाँ पूरण पुरुष हमारा"

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