नश्वर संसार के हम भुक्तभोगी
स्व रामचन्द्र नाईक को आज ही एक सौ दस बरस हुए थे पैदा हुए, 1911 में दादाजी जन्में थे और वे 85 की उम्र में गुजर गए , जीवन के संयोग भी अजीब होते है - उनकी बड़ी बेटी लीला जो 1934 में पैदा हुई थी, आज से ठीक तेरह दिन पहले यह संसार छोड़कर चली गई - यह संयोग की आज वे अपनी बेटी से कही मिलें होंगे और सुख दुख की बात कर हम सबके बारे में भी पूछा होगा
आज उज्जैन में रामचन्द्र नाईक का कुनबा जो एक भीड़ हुआ करता था, आज जब तेरहवीं की रस्में अदाकर अपनी श्रद्धाजंलि दे रहा था तो मात्र तेरह लोग ही उपस्थित थे, समय, शहरों की दूरियाँ, नौकरी, काम के दबाव और चाहने के बाद भी उपस्थित ना होने की पीड़ा, अवसाद वहाँ अनुपस्थितों के बहाने तैर रही थी
बुआ सबसे बड़ी थी फिर पिता थे, दोनों ने दसवीं करते ही नौकरियां शुरू की कि छोटे भाई बहनों को पढ़ाना है और मरने तक लगे रहें, पिताजी यहाँ वहाँ और बुआ शादी के बाद परदेशीपुरा इंदौर के स्कूल में, सबको पढ़ाया, लायक बनाया और शादी ब्याह किये छोटों के
बुआ का बेटा बरसों पहले मुम्बई चला गया था और वही उलझकर रह गया, बड़े शहर लील जाते है रिश्ते - नाते और भावनाएं पर फिर भी वो अभी तक जुड़ा है सबसे और सहोदर से ज़्यादा प्यार है हम सब भाई बहनों में, बुआ भी मुम्बई चली गई थी आखिरी बार 2009 में आई थी इंदौर पर जब भी मुंबई जाता तो कहती ”इंदौर आऊंगी तो देवास भी आऊंगी, झब्बू, रमी, सत्ती लगाओ खेलेंगे और खूब गप्प करेंगे" पर हमारा सोचा कुछ हो पाता है क्या जीवन में कभी
हमारी पीढ़ी की बड़ी बहन आज चित्रा मंदसौर से अकेले आ गई बस से, उसका हीमोग्लोबिन 4 हो गया था, चेहरे पर सूजन पर बोली "बड़ी माऊशी थी - आज नही आती तो फिर कब आती", छोटी बुआ , फूफ़ा, दो चाचियां , बहन टीना, दामाद और एक चाचा भी हम भाईयों के साथ मौजूद थे
परिवार कब बड़े होकर सिमटने लगते है मालूम नही पड़ता, दादाजी का इतना बड़ा कुनबा था और महू के घर में एक कमरा नीचे, एक ऊपर था और आंगन - कभी जगह कम नही पड़ी, दादी के बाद माँ ने सम्हाला खानदान, माँ के बाद बुआ ने और अब चाची के हवाले है सब निर्णय और घर के रीति रिवाज़ पर अब सब स्वतंत्र भी है - हम किसी को कुछ नही पूछते अब, अपनी मर्जी के मालिक है, ख़ैर
एक जीवित व्यक्तित्व जिसने आपके होने और समझ बनाने में योगदान दिया हो उसे तस्वीर में देखना वो भी किसी हार फूल के संग साथ सिर्फ कालजयी पीड़ा ही हो सकती है कोई दूसरा नाम नही दिया जा सकता; उन आँखों को, स्निग्ध मुस्कान को और सदा के लिए खामोश हो गए होठों को देखकर ही हम चुप हो जाते है
पूरे कार्यक्रम के बाद जब हम कौटुम्बिक लोग बिछड़ रहें थे तो अनगिनत मौतों की दस्तक में मुझे दादाजी, दादी, पिताजी, विभाकर काका, मन्या काका, शांति आत्या, माँ, भाई, भोपाल वाले फूफाजी, नानी, मामा, मामी, मौसाजी और इस बुआ के संग कई चचेरे - ममेरे चेहरे झाँकते नजर आ रहें थे - उज्जैन का रामघाट, चावल और आटे के पिंड, क्रिया विधान और वो सब रस्में जिन्हें मैं मानता ही नही पर लोक परम्परा में हम निभाते जाते है, तेरहवीं का मीठा भोजन खाते कितने निर्लज्ज हो जाते है हम
एक कहानी के खत्म होने से संसार नही रुकता पर पीछे छूट गए लोग सच में वंदनीय ही हो जाते है - जो स्मृतियों के दंश और पीड़ा झेलकर सब कुछ भूलाते हुए जीवन में आगे बढ़ते है
नमन और श्रद्धांजलि
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