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Posts of 28 Dec Tapan Da, Bahadur's poem and HIndi VV Reader s story

एक विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के एक रीडर महाशय से अभी फोन पर लम्बी बात हुई - सम सामयिक हिंदी के परिदृश्य पर, उसने कहा प्रेमचंद ने "आधा गांव और राग दरबारी" लिखा है, उस बापडे का नाम लिखूंगा तो आज रात ही आत्महत्या कर लेगा
"प्रेमचंद गुड़गांव के पास एक मिडिल स्कूल में अध्यापक है और युवा लेखक हैं हंस पत्रिका के संपादक का दायित्व उनके पास अतिरिक्त है बेचारे को दरियागंज दिल्ली आने जाने में बहुत तकलीफ होती है" - यह उसकी लेटेस्ट जानकारी है
जय हो जय हो जय हो
विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग कितने जड़मति हो गए हैं इससे समझा जा सकता है
मैं लटक जाऊं क्या आज की रात हिंदी के नाम पर
***
क्योकि प्याज़ के छिलके नही होते
◆◆◆

वर्षान्त पर हिंदी के साहित्यकारों के आत्म मुग्ध विश्लेषण जहां दर्प और घमंड से भरे है वही बेहद थोथे भी और इस नशे में चूर वे जमीन पर पांव नही रख रहें
इसी के मद्दे नजर मैंने आज सुबह #खरी_खरी लिखा तो मित्र Bahadur Patel ने एक तीखी कविता लिखी है आज - जो बहुत कुछ बयान करती है
जाहिर है यह सब बेहद पीड़ादायी है, अपनी ही जात बिरादरी, संगी साथी और अपने समकालीन और गरिष्ठ - वरिष्ठ रचना धर्मियों पर टीका करना पर जब पानी सर से गुजर जाएं तो प्रसव पीड़ा सहना जरूरी है ताकि नया कुछ सृजित हो सकें
बहरहाल , यह कविता पढ़िए 
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जाते हुए साल की उपलब्धियाँ
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कितनी-कितनी कमिनगियाँ रहीं जिनकी गिनती
आकाश के तारों से ज्यादा है
घने बाल वाले सिर के बालों से ज्यादा
बेमौत मरे जानवर में हलहलाते कीड़ों जितनी
कितनों का हक़ मारा
कितनों को दिया दुःख
और उन पर सहस्रों बार हँसा
सपनों में हँसा तो चेहरे की कुटिल मुस्कान की संख्या
ठीक-ठीक नहीं बता सकता
कितनों को नीचा दिखाने की कोशिश में
अपने हाजमे को ठीक किया
अनगिनत समझौते किये
उतनी ही सेटिंग
दुनिया की तमाम उपलब्धियों को अपनी झोली में भरने को
घुड़कियों और चिरौरियों ने आपस में प्रतिस्पर्धा की
आत्ममुग्धता और मदमाती हँसी से सराबोर कितने ही
फोटो अखबारों, फेसबुक और व्हाट्सएप छाए रहे
मैंने बार-बार शेयर किए और लोगों से कहा
देखो ये देखो ये हूँ मैं सिर्फ मैं
इस सदी की एक सीढ़ी कितने मुकम्मल चढ़ा हूँ
सदी का नायक बनने की अभिलाषा से चूर
मक्खन की दुकान भी खोली मैंने
कितना लगाया यह तो पूछो ही मत
कितनी-कितनी जगहों पर
ये देखो मेरी घिसी हुई उंगलियाँ
पिछले साल के हर दिन की परत को
रोटी की तरह खोलकर देख सकते हो
जातियों और धर्म के आयोजनों की संख्या
उनमें कितनी ही बार पुरोधा की तरह जन्म लिया
मेरी जाती का गर्व
मेरे धर्म का गर्व
उनकी प्रशस्तियाँ मेरी राहों में बिछी रही
ये मेरी गुप्त उपलब्धियाँ हैं जिनसे कभी कोई गुरेज नहीं
मेरी पूजा के दिन और घंटों के बारे में बता नहीं सकता
क्योंकि मुझे अपने को प्रगतिशील भी बनाये रखना है
मेरी किताब और उनकी तारीफ़
और उन पर दिए गए पुरस्कारों की तो लगी रही झड़ियाँ
कभी आइये मेरी वॉल पर
मैं कितना तो आता हूँ आपके यहाँ
आपके हगने-मूतने पर भी वाह और नाइस लिखता हूँ
मेरे पास सबके गले और टाँग के नाप है
ज़रूरत मुताबिक
दबाता और खींचता हूँ
उपब्धियाँ तो और भी हैं
जो नहीं लिखा वह आप सब जानते ही हैं ।
***
तपन भट्टाचार्य - मालवा का जमीनी सामाजिक विज्ञान का चितेरा
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तपन दा यह भी कोई उम्र थी जाने की - मात्र 62 वर्ष, पर पिछले 42 दिनों में जो अस्पतालों की पीड़ा आपने सही यहां से वहां - इससे बेहतर हुआ कि मौत को गले लगा लिया
सन 1987 से दोस्ती, मिलना जुलना, काम और सामाजिक क्षेत्र में लगातार बने रहने का सिलसिला जारी था, सेंधवा कॉलेज में रहते लोहियावाद पर बहस होती थी, देवास आते थे - बाद में झाबुआ , अलीराजपुर में बच्चों के साथ सी सी एफ का वृहद काम, बाल मेले, वाटर शेड का काम और ना जाने कितनी मुलाकातें स्नेहलता गंज के अपार्टमेंट में , घर और तमाम कार्यशालाओं में
इधर सब छोड़कर सन्यासी हो गए थे और साहित्य से गहरा इश्क हो गया था - टकरा जाते थे इंदौर , उज्जैन, देवास या भोपाल में , कहते - यार संदीप सम्हाल लो मेरे तीनों एनजीओ सबमे FCRA है - काम करो मुझसे नही होता
कल जनक दी की पोस्ट से 'वे क्रिटिकल है' यह पता चला, आज सुबह फिर जनक दी से दो बार लम्बी बात हुई कि अपनी जिंदगी को लेकर बेहद अराजक था और काम , समुदाय की भलाई के लिए ताउम्र यायावरी करता रहा बन्दा, बच्चो के हितों के लिए समर्पित और निर्दयी लोगों के लिए उद्दण्ड तपन दा को मप्र और मालवा खासकरके झाबुआ, आलीराजपुर और मप्र के आदिवासी इलाकों के बच्चों के लिए जाना जाएगा
बहुत ही जानदार यारबाश शख्स था
तपन दा सच में अभी जाने की उम्र नही थी, इस समय तो आपको होना था - अफसोस कि मालवा से एक जमीनी, अनुभवी और बेहद संजीदा इंसान बहुत बड़ी जगह खाली कर चला गया जिसे कभी कोई भर नही सकेगा
नमन और श्रद्धाजंलि
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