रात का समय है, ठण्ड अपने चरम पर है, चारो ओर कुहासा है, खेतों से ठंडी हवाएं आ रही है, बिजली नहीं है परन्तु गाँव के दूर एकांत में कंकड़ पर लोग बैठे है, बीडी के धुएं और अलाव के बीच लगातार भजन जारी है और सिर्फ भजन ही नहीं उन पर जमकर बातचीत भी हो रही है कि क्यों हम परलोक की बात करते है, क्यों कबीर साहब ने आत्मा की बात की या क्यों कहा कि “हिरणा समझ बूझ वन चरना”। लोगों की भीड़ में वृद्ध, युवा और महिलायें बच्चे भी शामिल है. यह है मालवा का एक गांव। यह कहानी एक गांव की नहीं कमोबेश हर गांव की है जहां एक समुदाय विशेषकर दलित लोग रोज दिन भर जी तोड़ मेहनत के बाद शाम को अपने काम निपटाकर बैठते है और सत्संग करते है, कोई आडम्बर नहीं, कोई दिखावा नहीं और कोई खर्च नहीं. ये मेहनतकश लोग कबीर को सिर्फ गाते ही नहीं वरन अपने जीवन में भी उतारते हैं
मालवा के
देवास का संगीत से बहुत गहरा नाता है इस देवास के मंच पर शायद ही कोई ऐसा लोकप्रिय
कलाकार ना होगा जिसने प्रस्तुति ना दी हो. और जब बात आती है लोक शैली के गायन की
तो कबीर का नाम जाने अनजाने मे उठ ही जाता है. यह सिर्फ कबीर का प्रताप नहीं बल्कि
गाने की शैली, यहाँ की हवा, मौसम, पानी और संस्कारों की एक परम्परा है, जो
सदियों से यहाँ निभाई जा रही है. गाँव गाँव मे कबीर भजन मंडलियां है इसमे वो लोग
है जो दिन भर मेहनत करते है- खेतों मे, खलिहानों मे और फ़िर रात मे भोजन करके
आपस मे बैठकर सत्संग करते है और एक छोटी सी ढोलकी और एक तम्बूरे पर कबीर के भजन
गाये जाते है. किसी भी दूर गाँव मे निकल जाईये यह रात का दृश्य आपको अमूमन आपको हर
जगह दिख ही जाएगा. इन्ही मालवी लोगों ने इस कबीर को ज़िंदा रखा है और आज तक, तमाम
बाजारवाद और दबावों के बावजूद भजन गायकी की इस परम्परा को जीवित रखा है शाश्वत रखा
है आम लोगों ने जिनका शास्त्रीयता के कृत्रिमपन से कोई लेना देना नहीं है. मुझे
याद पड़ता है एकलव्य में किया अपना कार्यकाल सन 1990
- 91 का - जब हम जिले में कई प्रकार की प्रक्रियायें
आरम्भ का रहे थे, शिक्षा
के साथ जन मद्दों पर व्यापक समुदायों को जोड़ना क्योकि देश का माहौल विचित्र था
लगभग आज की तरह और इस सबमे 6 दिसंबर की दुर्घटना हो गई थी. कई कामों के साथ
कबीर भजन एवं विचार मंच का काम शुरू किया था, क्योकि पक्का कबीर गाने वाले तो महफ़िलों और अपनी
आत्म मुग्धता में व्यस्त थे. मालवा में कबीर की वाचिक परम्परा के अध्येत्ता
बहुतेरे मिल जायेंगे पर जमीनी स्तर पर काम करके कबीर को गाने वाले और कबीर को अपने
जीवन में साक्षात उतारने वाले सिर्फ और सिर्फ मालवा में ही मिलेंगे.
देवास सिर्फ एक शहर नहीं है कि यह अन्य शहरों की तरह शहर
है बल्कि इसलिए कि इस शहर मे रहकर पंडित
कुमार गन्धर्व, वसुंधरा कोमकली, नईम जी, प्रभाष जोशी, डा प्रकाशकान्त, जीवन सिंह ठाकुर, अफजल, प्रिया-प्रताप पवार, प्रहलाद टिपानिया, कैलाश सोनी, और ना जाने कितने ऐसे लोग है जो कला
की दुनिया के शिखर पुरुष रहे है और है, और आज भी बड़ी संख्या में युवा लोग सक्रिय है. इस शहर के संस्कार और मूल्य
मुझे हर बार नया कुछ सीखाते रहते है. ई एम फास्टर जैसे लोग यहाँ रहकर अंग्रेजी का
विपुल साहित्य रचते रहें. इसी जिले ने देश को कबीर की नई समझ दी और आज जिस
स्तर पर कबीर गायें और सुनें जाते है उसमे नारायणजी, टिपान्याजी, कालूराम जी, मांगीलाल
जी, ताराचंद जी, देवनारायण
जी जैसे जमीनी गायकों की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है. हर गाँव में कबीर को जिन्दा
रखने वाले ये परिश्रमी साथी मालवा की ताकत भी है और ऊर्जा भी. ये किसी भी ऊँची, महंगी और कमाई वाली महफ़िलों से दूर रहकर काम
करते आ रहे है और वाचिक परम्परा को जीवित रखकर इतिहास बना रहे है.
मुझे
याद पड़ता है एकलव्य नामक एक स्वैच्छिक संस्था ने अपना कार्यकाल सन 1987 में
शुरू किया था जब जिले में कई प्रकार की
प्रक्रियायें आरम्भ का रहे थे, शिक्षा के साथ जन मद्दों पर व्यापक समुदायों को
जोड़ना क्योकि देश का माहौल विचित्र था लगभग आज की तरह और इस सबमे 6 दिसंबर 1992 की दुर्घटना हो गई थी. कई कामों के साथ कबीर भजन
एवं विचार मंच का काम शुरू किया था, क्योकि पक्का कबीर गाने वाले तो महफ़िलों और अपनी
आत्म मुग्धता में व्यस्त थे. मालवा में कबीर की वाचिक परम्परा के अध्येत्ता
बहुतेरे मिल जायेंगे पर जमीनी स्तर पर काम करके कबीर को गाने वाले और कबीर को अपने
जीवन में साक्षात उतारने वाले सिर्फ और सिर्फ मालवा में ही मिलेंगे.
देवास
की टेकडी का दृश्य है जिस पर ई एम फास्टर ने “हिल ऑफ देवी” जैसा उपन्यास लिखा था
और आगे बैंक नोट प्रेस को जाने वाली सड़क है जहां भारत भर के लिए नोट छपते है बीच में
मित्र अनु और अरविन्द का घर है. यह सर्दियों की हल्की सी एक दोपहर है और पेड़ों के
झुरमुट के बीच हम तीन लोग बैठे है और गप लगा रहे है. जब कल अरविन्द ने बताया था कि
लिंडा आई हुई है तो मेरा मन था कि अबकी बार तसल्ली से बैठकर उनके साथ बैठूंगा और
कुछ लम्बी बातचीत करूंगा. आज सुबह अरविन्द ने फोन किया किया कि आज दोपहर में आ जाओ
तो मन प्रसन्न हो गया. याद आता है लिंडा दो साल पहले अपना दस साला काम खत्म कर
निकल गई थी और तब लगा था कि यह मालवे का आखिरी चक्कर हो , अरविन्द के घर जाते ही
उन्होंने मुस्कुराकर नमस्ते बोला तो मै भी गर्मजोशी से मुस्कुरा दिया और हाथ जोड़
दिए. घर में गया तो अनु अपने काम में लगी थी और अरविन्द और लिंडा मानो मेरा ही
इंतज़ार कर रहे थे. देवास में मराठा शासन रहा, अंग्रेजों के खिलाफ भी प्रजा मंडल
जैसे आन्दोलन यहाँ उभरे है और साहित्य संगीत की नगरी होने के कारण मालवा का यह शहर
प्रदेश और देश में अपनी एक विशिष्ट पहचान रखता है. यहाँ की टेकडी, उद्योग, कला,
चित्रकला, रंगोली कला, नृत्य, संगीत और बैंक नोट प्रेस के कारण यह शहर प्रसिद्ध भी
है. हम बैठे है बाहर खुले में पेड़ों के नीचे, एक गिलहरी दीवार पर तेजी से दौड़ते हुए
तेज आवाज में कुछ कह रही है, पेड़ों पर चिड़ियाएँ शोर मचा रही है, सूरज का तापमान
सामान्य है, मौसम खुशगवार है अदरख की चाय और बातचीत शुरू होती है हालचाल से भारत
अमेरिका के सम्बन्ध और वर्तमान परिस्थितियों से जो मुश्किल से पांच मिनिट में खत्म
हो जाती है और मै मुस्कुरा देता हूँ. लिंडा कहती है मै जब कोई बात करने या
इंटरव्यू जैसा करने आता है तो भाग जाती हूँ पर आज बैठकर बात करने का मन है क्योकि
आप सब लोग अपने लोग हो इनके साथ मै पिछले लगभग बीस वर्षों से काम कर रही हूँ. सन 1998 में इलाहबाद में डा नामवर सिंह ने
मुझसे कहा था कि यदि कबीर को जानना समझना है और कुछ काम करना है तो इन लोगों से
मिलो, मालवा में जाओ और देखो कि कितना गंभीर काम लोग करते है और कैसे सीखते है ?
अगर नामवरजी उस कबीर की छः सौवी जयंती पर मुझे नहीं कहते तो शायद आज हम यहाँ नहीं
बैठे होते इतनी बेतकल्लुफी से और बात कर रहे होते.
आज
से पचास बरस पूर्व सोलह बरस की अमरीकी लड़की कुछ नया सोचती है हर बार और कुछ करना
चाहती है वह अपने सपनों को अंजाम भी देती है और इक्कीस बरस की उम्र में उठाकर भारत
जैसे देश में आ जाती है बनारस शहर में उसका पाला पड़ता है साधू सन्यासियों और भजन
गाने वालों से , बनारस ही क्यों, क्योकि वे कहती है भारतीय सूफी संतों की परम्परा
में तुलसीदास और कबीर का बनारस से गहरा नाता रहा है और लिहाजा वे बनारस को अपना
उद्देश्य बनाकर आती है और यहाँ लोगों से मिलती है. उसे सगुन और निर्गुण दोनों
मिलते है यहाँ जो जनमानस में रचे बसे है. आज प्रोफ़ेसर
लिंडा हेस पचहत्तर साल से ज्यादा की उम्र में है ओर उनके सपने बहुत बड़े है, सेवा
निवृत्ति के बाद वे इन दिनों प्राग के एक प्राध्यापक के साथ चार सौ पेज से ज्यादा
और असंख्य सान्खियों से भरी मेनूस्क्रिप्ट का अंग्रेजी अनुवाद का वृहत्तर कार्य कर
रही है.
बाबा
विश्वनाथ की नगरी काशी के सम्मोहन में वे भटकती है पढ़ती है, समझने का प्रयास करती
है. गंगा का पानी उन्हें उत्साहित करता है, और वे रचना बसना चाहती है परन्तु कुछ
काम कुछ परिवार और इस तरह से लौट जाती है अमेरिका. पर भारत का मोह, निर्गुण, सगुन,
कबीर तुलसी, मीरा और सूरदास उनका पीछा नही छोड़ते और वे पुनि पुनि लौटकर आती है
यहाँ ताकि कुछ कर सके और समझ सकें. सोचिये एक भद्र अमेरिकन महिला जो पढ़ी लिखी है
स्टेनफोर्ड जैसे विश्व विद्यालय में दक्षिण एशियाई विभाग के संस्कृति एवं भाषा
विभाग में प्रमुख रही भारत से इतना प्यार और वो भी यहाँ के समूचे सूफी आन्दोलन और
भक्ति काल के चार बड़े कवियों की कविता से प्रभावित ने क्या क्या नही किया होगा.
हमारे मौजूदा विश्व विद्यालय के हिंदी विभागों की हालत क्या है इस पर फिर कभी पर
लिंडा हेस ने भारत में आकर समूची भक्ति कालीन परम्परा को आत्मसात कर एक नए प्रकार
का विश्लेषण और विचार दिया. वे कहती है तुलसीदास भी मेरे प्रिय थे और कबीर भी,
मीरा भी और सूरदास भी परन्तु कबीर ने मुझे ज्यादा आकर्षित किया क्योकि कबीर हर बार
अपनी बात, अपना संघर्ष, अपना विरोध और अपने तर्क लोगों को सुनाकर कहते है “ सुनो
भाई साधौ....” जोकि एक अपने आप में महत्वपूर्ण बात है और संसार में अपने तरह का लग
नजरिया. क्योकि सुर, मीरा और तुलसी में भक्ति चरम पर हा और कबीर हर जगह सवाल उठाते
है और विद्रोह भी करते है. कबीर यूँ लगा जैसे मेरे चित और मन मस्तिष्क पर छाये हुए
विद्रोही स्वभाव की ही परिणिति है या रिफ्लेक्शन है इसलिए मैंने बहुत सोच विचारकर
कबीर पर काम करने का तय किया और जुट गई. मूल रूप से तो वे बंगाल के मठों और उनके
अवधूतों का अध्ययन करने आई थी, बंगाली भाषा सीखना चाहती थी पर जब कबीर को देखा,
पढ़ा और गुना तो लगा कि यह तो एकदम मेरे स्वभाव के अनुरूप है और इसी में मुझे अब
आगे बढना है. गत पचास बरसों से वे लगातार भारत अथक रूप से आ रही है और एक लंबा समय
उन्होंने भारत में बीताया है जोकि एक बड़ी बात है. दिल्ली से लेकर बेंगलोर, मुम्बई
और और बड़े शहर ही नही बल्कि असली भारत के दूरदराज के इलाकों में यात्रा कर
भक्तिकाल को समझने वाली संभवतः वे विश्व की पहली महिला होंगी जो दूर देश से आकर
दलित, वंचित और हाशिये के समुदाय के लोगों के साथ उन्ही के घरों में रहकर उन पर
शोध का कार्य करती रही यह शायद एक बड़ी बात ही नही बल्कि रेखांकित की जाने वाली उपलब्धि
है. प्रोफ़ेसर लिंडा ने इस दौरान हिंदी सीखी , लोक भाषा मालवी सीखी और काम किया.
एकलव्य के द्वारा किये जा रहे काम को जब उन्होंने देखा तो वे मालवा में कबीर की
वाचिक परम्परा से प्रभावित हुई और उन्होंने इस समृद्ध परम्परा पर काम करने की ठानी
और फिर सफ़र शुरू हुआ.
एकलव्य
ने सन 1991-92
से मालवा के देवास जिले से कबीर भजन
मंडलियों के साथ काम की शुरुवात की थी और इस दौरान एकलव्य के साथियों ने पाया कि
यह मंडलियाँ मुख्य रूप से दलित समुदाय के बीच है जहां लोग दिनभर मेहनत करते है काम
करते है और रात को खाना खाकर कबीर को अपने एकतारे के साथ गाते है और सिर्फ गाते ही
नहीं वरन सत्संग भी करते है कि कबीर जी ने ऐसा क्यों लिखा और आज इसकी क्या
उपयोगिता है. मालवा की कबीर मंडलियों के साथ एकलव्य का यह प्रयोग बरसों चला जहां
मंडलिया माह के दूसरे दिन यानी दो तारीख को आती थी और भजन गाकर चर्चा में शामिल
होती थी. यह बाबरी मस्जिद टूटने का समय था और देश में साम्प्रदायिकता ने अपने पाँव
ही नही पसारे थे बल्कि जमकर स्थापित भी हो गई थी. इसी समय उत्तर प्रदेश में
कांशीराम जी और मायावती दलित राजनीति के नए पैरोकार बन रहे थे और “तिलक, तराजू और
तलवार- इनको मारो जूते चार” जैसे नारे दे रहे थे. ध्रुवीकरण अपने चरम पर था और ऐसे
में कबीर की प्रासंगिकता और आंबेडकरशताब्दी वर्ष के दौरान नए बने डा बाबा साहब
आंबेडकर राष्ट्रीय सामाजिक शोध संस्थान, महू एकलव्य देवास को इस तरह के काम में
वैचारिक सहयोग दे रहा था साथ भारतीय इतिहास शोध परिषद् ने इस तरह के वाचिक परम्परा
के दस्तावेजीकरण के लिए एकलव्य को बहुत छोटी मदद भी थी. कुल मिलाकर यह कबीर को नए
तरह से गढ़ने का समय था और ऐसे में प्रहलाद तिपानिया जैसे लोक गायक जो बरसों से गा
रहे थे सामने आये. कैसेट का दौर था उनकी पहली कैसेट डा सुरेश पटेल ने जबलपुर में
बनवाई और वह इतनी प्रसिद्ध हुई कि हाथो हाथ बिक गई, एकलव्य पर भी कबीर के भजन की
किताब छपने का दबाव था. यह काम अपने तरह का अनूठा था इतना कि इसमें कारवां बढ़ता ही
गया. शबनम वीरमनी से लेकर अंत में प्रोफ़ेसर लिंडा हेस का आना इस पुरे काम को और
अधिक महत्वपूर्ण बना गया. लिंडा ने इस दौरान कबीर के भजनों का अंग्रेजी में अनुवाद
कर कुमार गन्धर्व के द्वारा गाये भजनों का एक संकलन छापा जो प्रसिद्द हुआ. बाद में
वे मालवा की कई मंडलियों के साथ काम करने लगी. प्रह्लाद जी के यहाँ रहकर उन्होंने
कबीर के भजन सुने गुने और उन्हें आत्मसात किया लोगों से बात कि देशभर के विख्यात
बुद्धिजीवी, विश्व विद्यालयों में प्राध्यापकों, निर्गुण और सगुन गाने वालों के
साथ लम्बे लम्बे वार्तालाप किये और एक वृहद् किताब “बॉडी ऑफ़ सोंग्स” लिखी है जो
पूरी कबीर की शैली, परम्परा, भक्तिकाल और आज के समय में कबीर की प्रासंगिकता को
बयाँ करती है.
लिंडा
बताती है कि उनके लिए यह निर्णय बड़ा कठिन था कि वे कबीर चुने या तुलसीदास क्योकि
दोनों ही भक्तिकाल के महत्वपूर्ण कवि थे और जनमानस में रचे बसे इतने है कि लोग बात
बात में तुलसी या कबीर की बानी को बोलकर अपना जीवन चलाते है, कबीर और तुलसी के
उद्धरणों से भारतीय जनमानस ओत प्रोत है साथ ही लोग सिर्फ बोलते ही नही बल्कि अपने
जीवन में आत्मसात करके उन्हें अमल में भी लाते है यह बड़ी बात है. मीरा जहाँ मेरे
तो गिरधर गोपाल कहती है, सूरदास पुरे समर्पण से श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन है,
तुलसी दास एक आदर्श जीवन की बात करते है वही कबीर में मुझे एक आदि विद्रोही नजर
आता है. उल्लेखनीय है कि अमेरिका में रहकर लिंडा बौद्ध धर्म की अनुयायी है और वे
कबीर और बौद्ध को बहुत करीब पाती है इसलिए वे कबीर को अपनाती है और हिंदी ही नही
सीखती बल्कि मालवी सीखकर मंच पर बाकायदा गाती है कभी नारायण जी देल्म्या के साथ या
कभी प्रहलाद जी के साथ, उनके लिए कालूराम बामनिया को प्रोत्साहित करना जितना जरुरी
है उतना ही वे टोंकखुर्द की लीला बाई और उनकी बहू को भी इतना प्रोत्साहित करती है कि वे आज सशक्त महिला मंडली चला रही है
और मालवा में इन दिनों ये महिला गायक स्थापित हुई है और लोग बाकायदा इन्हें चौका
आरती में बुलाते है. मालवा में इतनी रची बसी कि रिटायर्ड होने के बाद वे पहली
फुर्सत में मित्रों से मिलने आ गई और अबकी बार बगैर किसी अजेंडे के पर आज जब मै
बॉडी ऑफ़ सोंग्स की बात कर रहा था तो किताब के अनुवाद की बात निकल पड़ी और फिर हम
लोग देर तक उस पर बात करते रहें . मुझसे बोली मै कृतघ्न हूँ कि आपने इस किताब के
अनुवाद का विचार मन में किया हालांकि यह कार्य बेहद बड़ा और दुष्कर है पर यदि इसे
आप कर पायें तो मै बहुत आभारी रहूंगी और वे हाथ जोड़कर झुकाती है. यह सहजता और
सरलता कहाँ होती है इस उम्र में और इस स्तर पर जाने के बाद, मुझे हमारे यहाँ के
बौद्धिक लोग उनका कृत्रिम आभा मंडल याद आया. बहरहाल, वे देवास में है तो कल टेकडी
चढ़ आई बावजूद इसके कि अभी दो माह पूर्व ही उनका आपरेशन हुआ है पर वे मस्त मौला है
और खूब काम कराती है और खूब पढ़ती है लिखती है.
बॉडी
ऑफ़ सोंग्स की प्रेरणा के बारे में वे कहती है कि किताब की शुरुवात एकलव्य के
कार्यकर्ता स्व दिनेश शर्मा के एक वाक्य से हुई जिसमे दिनेश ने कहा था कि कबीर ने
दो तरह के भजन लिखें एक सामाजिक और दूसरे धार्मिक और यही वो क्षण था जब उनके दिमाग
में कौंधा कि कबीर को भारतीय जनमानस में इस तरह से समझा देखा और गुना जाता है इस
पर काम करने की जरुरत है. दस साल तक वे मालवा के गाँवों में बार बार अमेरिका से
कार घूमती रही देश भर के लोगों से विमर्श किया, भारत में हजारी प्रसाद द्विवेदी की
किताब “कबीर” और बाद में डा पुरुषोत्तम अग्रवाल की “अकथ कहानी प्रेम की” ही थी जो
कबीर को दूर तक ले जाती है. गायकों में कबीर मंडलियों के अतिरिक्त कुमार गन्धर्व
ने ज्यादा गाया और आबिदा से लेकर अन्य लोगों ने भी टुकडो टुकड़ों में. शबनम वीरमनी
की चार फिल्मों ने कबीर प्रोजेक्ट के तहत कबीर को दूर दराज में स्थापित किया आज
कबीर कैफे, कबीर यात्रा जो हर साल राजस्थान में हर साल निकल रही है और मालवा या
राजस्थान में मेवाती घराने के लोग कबीर पर बेहतर काम कर रहे है.
जब
मैंने पूछा कि क्या आज के विषाक्त माहौल में कबीर से हमें कोई राह मिल सकती है या
कोई समाधान कबीर में नजर आता है जबकि कबीर के पंथ और अनुयायी ही आपस में इतने
बंटे हुए है तो बोली कि रास्ता तो किसी के
पास भी नही है मेरा देश या आपका देश आज जिन भी परिस्थितयों से गुजर रहा है वहाँ
लोगों को सही बात के लिए सही तरीकों को अपनाते हुए लड़ना होगा. अपने इजराईली दोस्त
का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि वो विद्वान् है खूब पढ़ा लिखा स्कालर है पर
फिलिस्तीनियों का समर्थक है और वह उनके समर्थन में मैदान में अड़कर खडा हो जाता है,
लड़ता है - भिड़ता है, बार बार हारता है पर फिर जुझारू की तरह से पहुँच जाता है. जब
मैंने उससे पूछा कि क्यों जाते हो लड़ने तो वह बोला कि अच्छी बात के लिए अच्छे
तरीके से लड़ना कोई गलत नही है हम सबको लड़ना होगा ख्होब लड़ना होगा भले ही हम लोग कम
है तो क्या पर क्या अच्छी बात और न्याय के लिए लड़ना छोड़ दें? बस यही बात कबीर भी
कहते थे जो अकेले थे और पूरी हिम्मत से कहते थे साधौ ये मुर्दों का गाँव, राज मरि
है, परजा मरि है, मरि है सारा गाँव.
प्रोफ़ेसर
लिंडा हेस हमारे लिए एक प्रेरणा ही नही एक ताकत भी है जिन्होंने भारत के भक्ति काल
के महत्वपूर्ण कवि की रचनाओं को नामात्र अंग्रेजी में अनुदित किया बल्कि दर्शन और
आध्यात्म के साथ सामाजिकरण की प्रक्रियाओं को विश्लेषित कर एक ठोस रूप में
सिद्धांत के रूप में हमें महत्वपूर्ण जमीनी काम बाकायदा दस्तावेजीकृत कर सौंपा है
अब हमारी यह जिम्मेदारी बनती है कि अपनी इस विशाल संस्कृति और परम्परा की थाती को
सम्हालकर रखें और इसको आगे बढायें.
मालवा के कबीर आज देश भर ही नही दुनियाभर के कबीर है,
ऐसा नही की वे अनूठे है, उनके भजन समाज से जोड़ते है और व्याप्त कुरीतियों की और
भी इंगित करते है बल्कि इसलिए कि नब्बे के दशक के बाद कबीर पर और खासकरके उनकी
वाचिक परम्परा पर बहुत ध्यान दिया गया. आज देश भर में कबीर कहन के लोग है कैफे है
गायक है, बड़ी संस्थाओं से निकले लोग है जो भारत से लेकर अमेरिका और आस्ट्रेलिया
जर्मनी आदि देशों में कबीर की वाचिक परम्परा को ज़िंदा रखें हुए है और कबीर की वाणी
दुनिया भर में पहुंचा रहें है अफसोस सिर्फ इतना है कि यह कबीर अब बाजार में आ गया
है जो व्यवसायिक है और धंधे में है, दर्जनों किताबें, शोध आलेख, व्याख्यान मालाएं
और सीडी बाजार में है पर मालवा की इन मंडलियों के पास ना वे औजार है जो उन्हें
व्यवसायिक दक्षता दे सकें ना ही वह हुनर जो उन्हें इन उभरते अंग्रेजीदा लोगों के
सामने खडा कर सकें यह बात जो सीख गया वह पार हो गया
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