रात बहुत उजली थी ऐसी
कितनी रातें आई, मोमबत्ती जली बुझी, सूरज का प्रचंड ताप सहा, और खूब भीगा बरसात
में भी. उस दिसंबर और इस दिसंबर में फर्क सिर्फ इतना है कि उस दिसंबर में प्रचंड
उत्साह, जोश, उद्दाम आशाएं सामने थी और आज जब मैं यह दिसंबर खत्म हो रहा है बैठकर
मंथन कर रहा हूं कि क्या सच में जीवन को आगे बढ़ाना चाहिए एक जनवरी का होना क्या
वास्तव में इतना आवश्यक है ? शैशवावस्था, युवावस्था तक एक जनवरी का कोई खास
महत्त्व नहीं था परंतु जैसे परिपक्व होता गया या यूं कहूं कि उम्र कम होती गई - जन्मदिन
मनाना हर साल, एक जनवरी देखना अपने आप को रिक्त करना है और खारिज करना है. इन
दोनों की प्रक्रियाओं में लगातार टूटता रहा और अपनी ही नज़रों से गिरा बार - बार, डरता
रहा, कभी पूरा होगा सफर कहीं कुछ होगा. शिक्षा, सामाजिक क्षेत्र और लेखन पठन पाठन
और दोस्ती में जीवन का समय गुजार दिया,
लगा ही नहीं आधा जीवन बीत गया एक साल फिर बीत गया और एक नया साल ठीक सामने आने को है.
इस साल में पूरे बारह माह घर रहा हूं अपने – लड़ता झगड़ता दुनिया भर से, इस दौरान
बहुत सारे दोस्त दुश्मन बनें और दुश्मन दोस्त भी, बेरोजगार या ठुल्ला रहा, कमाई
नहीं हुई कुछ भी, जिन लोगों से काम की उम्मीदें थी उन लोगों ने सिर्फ धोखा ही नहीं
दिया बल्कि विश्वासों का भी छल किया, जीवन में आए बड़े अवसरों को जिन लोगों के
कहने पर ठुकराया था वे लोग भी पल्ला झाड़
कर हट गए और इस तरह से जीवन के ये बारह माह कैसे बीते समझ नहीं आया.
ये
कविताएँ इसी सब की दास्ताँ है और सदमों की कहानी पर इसके बाद भी अभी सवाल वही का
वही है कि क्या जनवरी से मेरी दुनिया के दुर्दिनों की छाया खत्म होगी.
विरक्त दुनिया के
बारह माह
1
पिछले ग्यारह माह
अपनी ही क़ैद के
दुनिया को समझने से
पहले
खुद की तासीर
समझना कितना जरूरी
है
यह बात समझी
2
खौलते कड़ाह में
आत्मा को गिरवी रख
उम्मीद करें कि सब
ठीक है
एक ख्वाब बुनना भी
ठीक वैसा जैसे
स्खलित हो जाना
विचारों और
सिद्धांतों का
3
पुकारा
निर्वात में
जमीन और आसमान को
दोस्त और नातेदारों
को
जन्म से पहले बने
रिश्तों को
खुद के बनाये भी
जिनपर ज्यादा
विश्वास था
कही से जवाब नही
आया
4
बेतहाशा याद आये
पिता
और माँ जिसके साथ
आखिरी तक था
सांस टूटी भी भाई
की तो
मेरे सामने, क्या कहना चाहता होगा
आखिरी पल
जनवरी से नवम्बर और
इस खत्म होते दिसम्बर में
बहुत बोझ हो गया है
सीने पर
कोई है जो मथ रहा
है
मैं सन्नाटे में
ताकता हूँ
दोषी अपने को पाता
हूँ
5
खाली बैठा इंसान
निरापद नही
भयावह होता है
वह पृथ्वी की छाती
पर
खरपतवार है
मेढ़ पर फसलों का
पानी पीता
निरंकुश उज्जड सा
पेड़
अबोले जीवन की छाँह
में उगा
कर्कश स्वर
सम पर कभी नही टिका
6
धूप में अपने
अंधेरों को खोजा
निपट अकेले ही
पचास भादो सावन
देखें हो जिसने
उसके लिये क्या फ़ाग
और क्या चैत
अलाव के माफिक जलकर
भी
राख ना मिली कि
फीनिक्स बन उड़ जाता
वही से
नया मिलना, होना, करना
आसान नही
7
अपने लोगों में
अपने को
खोजना ही सबसे बड़ी
दुविधा है
और भीतर की भीत से
ताल मिलें भी तो
तार टूटते है
भैरवी के साथ राग
खत्म होता है
यवनिका से पर्दा
खींच रहा है कोई
संतूर और सितार के
खमाज में
आहत होता है कोई
एक राग सूखता है
उसकी मजार पर भरी
मई में
सुर्ख होता है पलाश
8
डूबते समय आखरी समय
में
सब याद रहता है
छूटता नही कुछ
कचोटता भी है
हम कुछ कर नही पाते
उस गिलहरी के अबोध
बच्चे की तरह
जो जान रहा है कि
सामने तांडव है
पर कही और है डोर
भभकते हुए
बुदबुदाते हुए
डूब रहा हूँ और
किनारे सामने से
मुस्कुरा रहें हैं
एक कोशीय जीव अभी
सांस में अटका है
पूछता है हिसाब
9
कभी हिसाब किया ही
नही प्रेम, घृणा , दोस्ती का
बस सोच रहा था कि
दिसम्बर के बाद आएगी जनवरी
10
बरसात में जब भी
रूवासां हुआ तो
बचा लिया काई कंजी
ने
फिसलता हुआ फिर उठ
खड़ा हुआ
पानी मे झांका तो
लगा कि
एक परछाई जो जन्म
के बाद बनी थी
अब डूब रही है
11
देखने से ही दृष्टि
बनती है
इस भीषण समय में
देखना तो ठीक
दृष्टि बनाना और
फिर बोलना
जोखिम का काम है
खाली समय को ढोता
आदमी
पूरे जमाने का
दुश्मन होता है
जिसे कोई प्यार नही
करता
12
एहसान भी बहुत लिए
इतने कि
चुकाना मुश्किल एक
जन्म में
इसलिए पलायन करो
जन्मों बार बार
सबका शुक्रिया अदा
करो
उस चींटी का भी
जिसने
मुंह मे आटा और
शक्कर का दाना दिखाकर
जीने की आस बनाये
रखी
13
साथ तो सब चलते है
लम्बा उज्जवल रास्ता पार करते हुए
पर शुरुवात में अजनबीपन और अनजान भय
हर किसी के मन मे होता है
पर आहिस्ते आहिस्ते सब कुछ देखते सुनते
बीतता जाता है समय और सिर्फ रहते है तो
पदचाप - वक्त की धूल पर
जो मिटाए नही मिटते, हवा की तेज गति में,
थपेड़ों और तूफानों में
लम्बा उज्जवल रास्ता पार करते हुए
पर शुरुवात में अजनबीपन और अनजान भय
हर किसी के मन मे होता है
पर आहिस्ते आहिस्ते सब कुछ देखते सुनते
बीतता जाता है समय और सिर्फ रहते है तो
पदचाप - वक्त की धूल पर
जो मिटाए नही मिटते, हवा की तेज गति में,
थपेड़ों और तूफानों में
14
हवाएं कातर हो काँप रही है
धूप मुरझा कर एक ओर पड़ी है
पेड़ खड़े है चुपचाप
ऊंघती है पहाड़ियां खड़े खड़े
धरती के घूमने की आहट मंद है
धूप मुरझा कर एक ओर पड़ी है
पेड़ खड़े है चुपचाप
ऊंघती है पहाड़ियां खड़े खड़े
धरती के घूमने की आहट मंद है
एक चुप्पा आदमी चौकन्ना होकर ताकता
है
सूंघता है मुंह उठाकर कि पता चले कुछ
टपकता है ख़ौफ़ उसके जर्द चेहरे पर
ग्यारह माह में पहिये पर बैठ
अलौकिक जगत की सैर में ग़ाफ़िल है
सूंघता है मुंह उठाकर कि पता चले कुछ
टपकता है ख़ौफ़ उसके जर्द चेहरे पर
ग्यारह माह में पहिये पर बैठ
अलौकिक जगत की सैर में ग़ाफ़िल है
सिक्का खनक कर गिरता है कही
चौक कर जागता है मानो सोया नही सदियों
आवाज़ से उसके कान के पर्दे चौड़े है
घूँ घूँ की आवाज़ से सांस फुलती है
पृथ्वी कराहती है उसके क्रन्दन पर
चौक कर जागता है मानो सोया नही सदियों
आवाज़ से उसके कान के पर्दे चौड़े है
घूँ घूँ की आवाज़ से सांस फुलती है
पृथ्वी कराहती है उसके क्रन्दन पर
15
धुल का गुबार उठा
एक जगह से पानी में लहरें
एक जगह ठहरा कुछ
और ठीक वही
कुछ उलझा
एक जगह से पानी में लहरें
एक जगह ठहरा कुछ
और ठीक वही
कुछ उलझा
पगडंडी पर जर्द पत्ती
नदी में बहती पत्ती
शाखाओं पर उलझी पत्ती
सरसो के खेत में और
चने के बीच मुस्काती पत्ती
नदी में बहती पत्ती
शाखाओं पर उलझी पत्ती
सरसो के खेत में और
चने के बीच मुस्काती पत्ती
एक जगह बड़ा सा बोझ उठाये
कही गुजरता साल यूँ मानो
आत्मा पर रखा दर्प सिसकार रहा
कही गुजरता साल यूँ मानो
आत्मा पर रखा दर्प सिसकार रहा
साल गुजरो तो ऐसे कि कही
छाप छूटे तो याद बाकी रहें
छाप छूटे तो याद बाकी रहें
16
जनवरी ने दिसम्बर को देखा जी भर
और फिर खोला दरवाज़ा खिड़की का
हवा के झोंके ने सब कुछ ध्वस्त किया
लगा कि पलाश और टेसू के फूल
हवाओं से कह गए थे कि आओ तो
सुर्ख रंग लाना, ओंस की बूंदें
एक गजरा, आलते - सिंदूर की डिबिया
और फिर खोला दरवाज़ा खिड़की का
हवा के झोंके ने सब कुछ ध्वस्त किया
लगा कि पलाश और टेसू के फूल
हवाओं से कह गए थे कि आओ तो
सुर्ख रंग लाना, ओंस की बूंदें
एक गजरा, आलते - सिंदूर की डिबिया
फरवरी का सोग नवम्बर मनाता है
दिसम्बर आँसूओं की यातना है
दिसम्बर आँसूओं की यातना है
सालों के गुजरने की दास्तान
सुनी नही भोगी जाती है यहां
सुनी नही भोगी जाती है यहां
17
ढलना ही होता है दिन, रात या जीवन
समय के चक्र का पूरा होना जरूरी भी है
ठीक वैसे जैसे सूख जाते है बीज रखे रखे
रीत जाती है रेत भी समंदर किनारे
नदियाँ सूखकर लौटती है सद्य प्रसूता बनकर
एक चींटी सरल रेखा में फिर भी चलती है
समय के चक्र का पूरा होना जरूरी भी है
ठीक वैसे जैसे सूख जाते है बीज रखे रखे
रीत जाती है रेत भी समंदर किनारे
नदियाँ सूखकर लौटती है सद्य प्रसूता बनकर
एक चींटी सरल रेखा में फिर भी चलती है
दिसम्बर आधी रात का उनींदा स्वप्न
है
जनवरी की आहट में जागता हुआ
जनवरी की आहट में जागता हुआ
18
घास भी पेड़ है अगर आप मान लें तो
पेड़ भी आसमान पर उग सकते है
भंवरा मछली पर मंडरा सकता है
नील कंठ पक्षी को देखना कभी अशुभ भी
हवाओं में खड़ा होना जड़ें दे सकता है
पृथ्वी एक कविता है जिसे गा सकते है
पेड़ भी आसमान पर उग सकते है
भंवरा मछली पर मंडरा सकता है
नील कंठ पक्षी को देखना कभी अशुभ भी
हवाओं में खड़ा होना जड़ें दे सकता है
पृथ्वी एक कविता है जिसे गा सकते है
तय करना है कि चक्र शुरू कहाँ से
होगा
खत्म तो यह सम पर ही होगा
बस देखें कि कैसे हम दो सिरों पर जाते है
खत्म तो यह सम पर ही होगा
बस देखें कि कैसे हम दो सिरों पर जाते है
दिसम्बर जीवन का दर्पण नही वरन सच
है
दो सिरों के बीच झूलता हुआ अनंतिम सत्य
दो सिरों के बीच झूलता हुआ अनंतिम सत्य
19
जसराज, भीमसेन जोशी,
मल्लिकार्जुन मंसूर
गुलाम अली खां, वसन्त देशपांडे,
रज्जब अली
गिरिजा देवी, किशोरी अमोनकर,
छन्नूलाल और वो सब
जो गाते रहें उम्र भर
रागिनियाँ भरे गले से
मल्लिकार्जुन मंसूर
गुलाम अली खां, वसन्त देशपांडे,
रज्जब अली
गिरिजा देवी, किशोरी अमोनकर,
छन्नूलाल और वो सब
जो गाते रहें उम्र भर
रागिनियाँ भरे गले से
बिछुड़े तो यूँ कि जाने के पहले
भैरवी बिसुरी
खमाज खोया, तानपुरे की चाल बिगड़ी
सितार से सप्तक छूटे, डग्गे के बोल बिखरे
अवरोह में चढ़ते सुर ऐसे समाएँ साँसों में कि
यवनिका तक घुंघरुओं की खनक सुनी गई
काली चार से शुरू हुआ जीवन अर्ध सत्य बना
खमाज खोया, तानपुरे की चाल बिगड़ी
सितार से सप्तक छूटे, डग्गे के बोल बिखरे
अवरोह में चढ़ते सुर ऐसे समाएँ साँसों में कि
यवनिका तक घुंघरुओं की खनक सुनी गई
काली चार से शुरू हुआ जीवन अर्ध सत्य बना
विश्वास तब टूटते है
जब कबीरा गुनता है
जिन जोड़ी तिन तोड़ी
या
राम के घर से छुटी
काठ की घोड़ी औरजब कबीरा गुनता है
जिन जोड़ी तिन तोड़ी
या
राम के घर से छुटी
अपना ही माथा लिए
होली मनाने को बेताब
दिसम्बर का सर्द महीना
और अलाव नजर नही आते
20
और इस तरह खत्म होता है साल
जीवन खत्म नहीं होता
बीतते है दिसमबर
आती है जनवरियाँ और नए पल
जीवन विरक्त भी होता है
विलोपित भी निर्वाण में
पर खत्म नहीं होता संताप, रुदन
बना रहता है मरने के कई कई बरसों बाद भी
यह सब सोचने के पहले गुजर जाना
बेहतर है - आमीन
इति
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