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ले मशालें चल पड़े है लोग मेरे गाँव के 12 Oct 2017


ले मशालें चल पड़े है लोग मेरे गाँव के

दोपहर हो चली है और उमरिया सेशन पर उतर कर हम जेनिथ के दफ्तर पहुंचे है. यहाँ साथी बिरेन्द्र इंतज़ार कर रहे है और हम नहाकर और थोड़ा सा नाश्ता करके गाँव की ओर निकल पड़ते है. रास्ते में बिरेन्द्र ने बताया कि अभी तक हम लोग नौ गाँव तक पहुंच चुके है. काफी सीख मिल रही है और यह हम सबके लिए मात्र यात्रा ही नहीं वर्ना जनमानस को समझने का एक बड़ा मौक़ा भी है और कुछ करने का अवसर भी. प्रशासन की ओर से कई प्रकार का सहयोग भी है और लोगों के साथ हम मिलकर कुछ कर पा रहे है. आज जीप के ड्राइवर के घर किसी का दसवां ठा अतः वह गाडी खड़ी करके चला गया ठा, नया ड्राइवर आया है जिसका गाँव को लेकर कोई ख़ास अनुभव नहीं है, वह गाडी चला रहा है और सोच रहा है कि ये लोग पेंट शर्ट पहने बाबू लोग क्यों धूल धक्के खाते हुए गाँव जा रहे है, अपने ड्राईवर साथी को दया भाव से याद करते हुए वह कहता है कि आखिर क्या है ऐसा कि आप लोग गाँव में काम करते हो, शहर छोड़कर? मै हल्के से मुस्कुरा देता हूँ यह कहकर कि एक बार दिन भर हमारे साथ रहो फिर समझ आयेगा.
रास्ते में सडक के दोनों ओर दूर तक फैले हुए खेत है बंजर जमीन और सडकों पर खालीपन, एकाध इक्का दुक्का आदमी दिख जाता है या किशोर वय की स्त्रियाँ जो हँसते हुए लौट रही है एक से पूछा तो बोली लकड़ी का गट्ठा बेचकर लौट रही है, छः किलोमीटर चलकर उमरिया गई थी सुबह चार बजे उठकर जंगल जाती है, लकडियाँ बीनती है, गट्ठर बनाते है और सुबह सात के आसपास सर पर भारी गट्ठर लेकर शहर की ओर चल देते है, शहर आकर एक नियत स्थान पर बैठ जाती है, लड़कियों में दोस्ती है, स्त्रियाँ हंस लेती है जी भरके, मन की बात कर लेती है अपने सुख दुःख बाँट लेती है, दस बजे के आसपास - गठ्ठर की कीमत मिल जाती साठ से नब्बे रूपये तक बस लेकर गाँव लौट रही है, हाथ में कुछ सब्जी है, थोड़ी सी कुछ जरूरत की चीजें बस हँसते हुए लौट रही है कि आज माल बिक गया. यह कहानी इन लड़कियों और स्त्रियों की है जो अपने घर में आजीविका में मदद करती है.
मगरधरा गाँव का नाम है तीन ओर से गाँव पहुँच सकते है, जिला मुख्यालय से लगभग पन्द्रह किलो मीटर है यह गाँव पर आजादी के सत्तर बरस बाद भी यहाँ ना पहुँच मार्ग है, ना माकूल इंतजामात - बस है तो आजादी के बाद की बदहाल स्थिति, सरकारी सफलता की धज्जियां उड़ाने वाले दावों की पोल खोल, और गरीब त्रस्त आदिवासी समुदाय जो गौंड है. गाँव में मात्र पांचवी तक स्कूल है , दो टोलों में आंगनवाडी और बस ना स्वास्थ्य की सुविधा ना कुछ और. जब पहुंचे तो कुछ लोग बैठे हुए थे. जेनिथ संस्था के अजमत महिलाओं के समूह में घिरे है और चूल्हे पर खिचड़ी पक रही है दो बज रहा है, बच्चों का शोर है, दोनों आंगनवाडी वाली दीदी अपनी सहायिकाओं के साथ मौजूद है, महिलायें हंस रही है कि एक मर्द उन्हें खाना बनाना सिखा रहा है, पुरुष एक ओर बैठे है.
दस्तक न्याय और बाल अधिकार यात्रा चार जिलों – पन्ना, उमरिया, सतना और रीवा, में विकास संवाद, भोपाल के सहयोग से निकल रही है लगभग सौ से डेढ़ सौ गाँव में यह यात्रा जा रही है. लगभग पचास हजार लोग हर जिले में प्रत्यक्ष रूप से सम्पर्क में लाने की योजना है और सरकारी योजनाओं की जानकारी के साथ पड़ताल भी करना है कि जमीनी हकीकत क्या है? दुविधा यह है कि जब योजनाओं की जानकारी नहीं, कोई देखभाल करने वाला नहीं और निष्क्रिय पंचायतें है तो लोगों तक वो भी एक ऐसे समुदाय तक कैसे चीजें पहुंचे जो सदियों से उपेक्षित है और उन्हें शिक्षित करने का किसी को समय भी नहीं है. इस गाँव का इतिहास यह है कि १९४७ के पहले इसे कही से विस्थापित कर बसाया गया था, पास में एक नाला बहता था जो आज सूखा पड़ा है, वहाँ एक मोटा मगर था जो हर आने जाने वाले को पकड़ लेता था इसलिए लोगों ने इस नए बसाए गए गाँव का नाम मगर धरा रख दिया, एक बुजुर्ग ने हंसकर कहा कि अब तो सरकार जैसा मगर कोई नहीं जो एक बार किसी दफ्तर में फंस जाए उसे विभाग मगर की तरह से निगल लेता है!
गाँव में स्कूल में शिक्षक है पर अनियमित है, आंगनवाडी ठीक चलती है कार्यकर्ता कहती है कि राशन तो हम दे देते है गर्भवती और धात्री महिलाओं को बच्चों के लिए भी पर ये लोग खाते नहीं है. अजमत के लिए ये चुनौती थी, सो उसने गाँव की महिलाओं को आज इकठ्ठा किया हुआ है और सबके घर से दालान में लगी सब्जियां बुलवाई है, यदि कुछ आसपास के जंगल में लगी है तो तोड़कर लाने को कहा है ताकि वह एक पौष्टिक खिचड़ी बना सके, गाँव में सहजन यानी मूंगा के पेड़ बहुतायत में है तो उसकी भी पत्तियाँ तोड़कर लाने को कहा है और यह काम किशोर बड़ी तन्मयता से कर रहे है. अजमत, भूपेन्द्र का काम शुरू हो गया है उन्होंने चावल के साथ कोदो, कुटकी, ज्वार के साथ खड़ा और मोटा अनाज भी मंगवाया है. और सारी सब्जियां मिलाकर एक बड़े तपेले में खिचड़ी चढ़ा दी है, महिलायें बच्चे कौतुक से चूल्हे के पास खड़े पकती हुई खिचड़ी को देख रहे है, कई प्रकार का आटा जो पूरे गाँव से आया है, में नमक मिर्च मूंगा की पत्तियाँ डालकर गुंथा जा रहा है ताकि गरमागरम पुड़ियाँ निकाली जा सके तेल भी शायद गुल्ली यानी महुआ के बीज का है. महिलायें हंस रही थी पर अब गंभीरता से सुन रही है देख रही है कि कैसे पौष्टिक सामग्री बनती है. आज सारा गाँव एक साथ खायेगा बगैर किसी भेदभाव और उंच नीच के.
मै बातचीत शुरू करता हूँ, समस्याएं गिनाने लगते है लोग - सब्जी नहीं मिलती, फल नहीं खरीद पाते, अंडा नहीं होता, मछलियाँ कम हो गई है, मुश्किल से दस घरों में बकरी पालन होता है गाय तो है पर ना दूध देती है ना और किसी काम की है, बैल बहुत कम है, खेती पर संकट है पानी नहीं है बावजूद इसके कि दो कुएं है, एक तालाब, एक नाला जिसे ये लोग झिरिया कहते है. पिछले साल गर्मी में पानी के संकट के बाद जेनिथ संस्था के साथियों के साथ मिलकर कुओं की सफाई की थी पानी भरा है अभी तक, शायद ये गर्मियां निकल जाये और पीने का पानी बच पाए, हेंडपंप का भरोसा नहीं है क्योकि सूख जाते है और पानी भी लाल है. भोला आदिवासी बहुत पुराने है गाँव के कहते है पहले जंगल था हमारा और ढेर सारी चीजें मिल जाती थी पर अब वन विभाग ने हमारे ही जंगल में हमें आने जाने से मना कर दिया है, सूखी लकड़ी लाने में भी दिक्कत है, मैंने कहा आप लोग पेड़ काटते है तो बिफर पड़े- बोले हम तो उतनी ही लेते है जितनी जरुरत होती है एक भी घर में आपको दो समय जलने वाली लकड़ी दिखा जाए तो मै गाँव छोड़ दूंगा फिर शांत हुए बोले साहब आदिवासी कभी भी कोई चीज इकट्ठा नहीं करता यह तो आप जैसे लोगों के घरों में होता है कि दो दो साल का सामान इकट्ठा होता है हम रखेंगे कहाँ, हमारा ठौर ना ठिकाना, मजदूरी करने बाहर जाना पड़ता है साल में मुश्किल से छः माह घर रह पाते है. खेती से जो अन्न उगता है उससे चार माह की गुजर होती है, राशन की दूकान से मिले अनाज से तीन माह बाकी तो मजदूरी ना हो तो हम भूखे मर जाये. जंगल से कुछ मिलता नहीं थाली में गेहूं और धान के सिवाय कुछ नहीं पुराना सब खत्म हो गया, अब जियें कैसे?
गाँव से दो लडके उमरिया में कम्प्यूटर में डिप्लोमा कर रहे है, तीन चार लड़कियां आठवी तक पढ़ रही है , चार लोग सरकारी नौकरी में है जिसमे से तीन शिक्षक है और एक महिला सीधी जिले में खाद्य अधिकारी है. कहते है लड़कियों को तो हम भी पढ़ना चाहते है अधिकारी भी बनाना चाहते है अपर इतने जंगल और पहाड़ी से घिरे क्षेत्र से रोज आना जाना संभव नहीं है. सुजीत सिंह जो कम्प्यूटर में डिप्लोमा कर रहे है, रोज शोर्ट कट से बीस किलोमीटर उमरिया आना जाना करते है, हँसते हुए बोले सर रोज नहीं जा पाता, थक जाता हूँ घर में भी खेती का काम होता है, और फिर पढाई भी नहीं होती कॉलेज में.
“यात्रा में जब प्लानिंग हो रही थी तो हमें लगा कि पचास दिन तक घर से बाहर रहना एक सजा है हम सबके लिए क्योकि घर से बच्चों से दूर कैसे रहेंगे पर अब यात्रा निकल पड़ी है तो अच्छा लग रहा है, लोगों की समस्याएं बहुत है, हम जो काम दो साल से करने की कोशिश कर रहे है कि समुदाय को प्रेरित करें और जोड़े उसके लिए यात्रा बहुत मददगार साबित हो रही है” भूपेन्द्र कहते है. अजमत कहते है “क्या निकलेगा यह कहना मुश्किल है पर हमें ख़ुशी यह है कि लोग संगठित है और अब वे समझ रहे है, बदलाव करना चाहते है, बच्चों को पढाना चाहते है, स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता है अस्पतालों में डिलीवरी का प्रतिशत बढ़ा है, टीकाकरण नियमित है और खेती किसानी को लेकर बहुत चिंतित है अब वे क्रॉप पैटर्न भी बदल रहे है नया अन्न भी लगा रहे है और प्रयोग भी करने में रूचि है”. रजनी स्थानीय आदिवासी समुदाय से है और जेनिथ की कार्यकर्ता है वे कहती है “मेरे घर से मुझे पूरी छुट दी है कि मै यात्रा मे रहूँ मेरी पालकों को कोई डर नही है, मै अकेली लड़की हूँ इस लम्बी यात्रा में पर मेरे साथी अच्छे है मै सबपर भरोसा कराती हूँ और यात्रा में महिलाओं के साथ मिलकर उनके स्वास्थ्य और पोषण पर बात करती हूँ, मै खुद भी बहुत सीख रही हूँ.” विनय कहते है “चुनौतियां कई है कैमरा चार्ज करने से लेकर बिजली तक की पर हम भी जिद्दी है इसे पूरा करेंगे” बिरेन्द्र कहते है कि “इस यात्रा से हम सीधे लोगों तक पहुँच रहे है, प्रशासन को रोज शाम को रिपोर्ट करके समस्याएं बता रहे है कुछ त्वरित हल हो रही है कुछ के लिए समय लग रहा है, रोजगार ग्यारंटी योजना, सामाजिक सुरक्षा पेंशन के केस मिल रहे है, पानी की विकराल समस्या है हर जगह, पंचायतों की वैधानिक समितियां लगभग ठप्प है, हम पंचायतों की उपेक्षा से परेशान है सचिवों की मनमर्जी और सरपंचों का उदासीन होना भी एक बड़ा कारण है क्योकि वे प्रस्ताव भेजते है अपर होता कुछ नहीं.”
मीडिया का सहयोग है. भोदल सिंह से लेकर कई ऐसे लोग मिलें जिनकी समस्याएं है पर ये नीतिगत मामले है जिनपर राज्य स्तरीय पैरवी की जरुरत है स्थानीय प्रशासन के बूते की बात नहीं है.
विकास संवाद के सचिन जैन कहते है कि मूल रूप से चार जिलों में दो लाख लोगों तक सीधे पहुंचकर हम लोग सीखना भी चाहते है समझना भी कि प्रदेश के इन पिछड़े जिलों में सरकारी योजनाओं की स्थितीत क्या है, बच्चों के अधिकारों की स्थिति क्या है पोषण की स्थिति क्या है क्योकि बच्चों के पोषण का माला सीधे खेती, आजीविका, सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़ा है, यह यात्रा हमें कई प्रकार के समुदाय की पहल, प्रशासनिक प्रक्रियाएं और वर्तमान के जमीनी हालत दिखा रही है. पन्ना जैसे जिले में सिलिकोसिस से हर माह दो मूत हो रही है, हर माह में बच्चे मर रहे है, व्यवस्थाएं नाकाफी है बावजूद इसके प्रशासन अपने सत्र पर प्रयास कर रहा है पर जिस अंदाज में उपेक्षित आदिवासी समुदाय है ये प्रयास अपर्याप्त है. वरिष्ठ मीडियाकर्मी राकेश मालवीय जो बारीकी से इस यात्रा पर नजर रखे है कहते है कि “हम मीडिया के माध्यम से वंचित और आदिवासी समुदाय की दैनंदिन समस्याएं उठाने का प्रयास भी कर रहे है और समझना भी चाहते है कि आखिर गैप कहाँ है. एक बच्चे की किपोषण से मौत यानी पूरी व्यवस्था के लिए प्रश्न है कि आखिर कुल जमा हमारा विकास का अर्थ क्या है?”
गांधी जयंती पर शुरू हुई यह यात्रा बाल अधिकार दिवस यानी 20 नवम्बर तक चलेगी, उम्मीद की जाना चाहिए कि इसमें से जो निकले उस पर सरकार, प्रशासन मंथन करें और अपनी रणनीति बनाए.

संदीप नाईक, उमरिया से
(स्वतंत्र टिप्पणीकार और सामाजिक कार्यकर्ता)

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