Skip to main content

प्यार ज़िंदा है तो सपने ज़िंदा है और इस पर सबका हक़ होना चाहिए - सीक्रेट सुपर स्टार


प्यार ज़िंदा है तो सपने ज़िंदा है और इस पर सबका हक़ होना चाहिए
_______________________________________________________

सपने देखने का हक़ सबको है और होना भी चाहिए क्योकि सपने देखना जीवन है और जीवन सबसे बड़ा होता है . यह बात बड़ी साधारण सी है परन्तु जब भावनाओं की चाशनी में लपेटकर बगावत के सुरों से सम्पूर्ण समाज को धता बताकर एक ऐसे चरित्र द्वारा कही जाती है जिसे हम स्त्री उपेक्षिता कहते है या जिसके लिए बेटी बचाओ और बेटी पढाओं के लम्बे चौड़े अभियान चढ़ाना पड़ते है तो यह बात बहुत गहराई से हमारे अंतस में धीरे धीरे समाती है और बरबस ही सिनेमा देखते हुए हम उस चरित्र, दृश्य और पुरे माहौल से एकाकार होने लगते है और अपने आसपास के परिवेश को सूंघते हुए यह शिद्दत से मानते है कि बात सही और प्रभावी ढंग से कही जा रही है.
दरअसल में आमिर खान एक प्रभावी अभिनेता, निर्देशक और सामाजिक सरोकार वाले व्यक्ति नहीं वर्ना एक चतुर सुलझे हुए राजनैतिक शख्स है जो समय, देश काल और परिस्थिति के अनुसार अपना रचा बुना हुआ बहुत माकूल मौकों पर परोसने में पारंगत है. गुजरात चुनाव के समय बगैर कोई रिस्क लिए या तीन तलाक का मुद्दा साफ़ बचाते हुए बेहद रूमानी अंदाज में कथानक बुनते है. स्त्री स्वातंत्र और खुलेपन की इस हवा में स्त्री विरोधी बात करना मुश्किल ही नही बल्कि बेहद पिछड़ेपन की भी निशानी है.
यह तब और भी मौजूं हो जाता है जब दुनिया की स्त्रियाँ #MeToo जैसे नारों के साथ अपने खिलाफ होने वाली हर तरह की हिंसा को बयान ही नही आकर रही बल्कि सामने आकर दास्ताँ भी बयाँ कर रही है, हालांकि फिल्म रिलीज़ होने के बाद यह मुहीम संभवतः शुरू हुई है पर आज जिस तरह से इसकी पहुँच और ताकत दुनिया भर में बढ़ी है और सोशल मीडिया पर इसकी हलचल से पुरुषवादी ताकतों और परम्परागत सोच वालों के दिलों दिमाग में खलबली मची है वहाँ “सीक्रेट स्टार” जैसी फ़िल्में भी एक तमाचा ही है खासकरके जिस समुदाय और संस्कृति , पुरुषप्रधान समाज के नजरिये से बनाई गई और अंत में एक अनपढ़ महिला पुरे तमाशे के साथ चोट करते हुए बगावत का रुख अपनाती है बगैर इसकी परवाह किये कि वह कल कहाँ रहेगी और कल क्या होगा मुम्बई जैसे शहर में रोज लोगों, प्रतिभाओं और भावनाओं को निगल लेता है. दो छोटे बच्चों जिनमे एक बेटी जो परिस्थिति वश या हिंसा को देखते सहते अपनी उम्र से पहले जवान और वयस्क हो गई और एक छोटा सा बेटा जो उम्र में तो छोटा है पर हिंसा के मायने प्यार के बारास्ते जरुर समझता है.
यह फिल्म किशोरवय में हमारे सम्पूर्ण पालन पोषण, शिक्षा की दरकार और मार्गदर्शन की ओर भी गंभीर इशारे करती है परन्तु इसके साथ ही एक अनपढ़ माँ का उन पढ़ी लिखी माताओं से बेहतर व्यवहार और परवरिश का भी उत्कृष्ट उदाहरण है जो तमाम प्रकार ही हिंसा को सहते हुए बच्चों के शौक, पढाई और उनके किशोरवय के प्यार को भी स्वीकृति देती है इतना ही नही बल्कि चिंतन के साथ कुल्फी खाने जाते समय कहती है “आज तेरे अब्बू अहमदाबाद गए है देर रात आयेंगे तो चिंतन के साथ घूम लें और शाम तक आना दस मिनिट में नही” यह उन लव जेहाद की मुहीम चलाने वालों पर एक बढ़िया तंज है जो मुस्लिम समाज को दायरों और सींखचों में देखते है या गलत दुष्प्रचार करते है. चिंतन का प्यार अप्रतिम है और हम सबके भीतर एक चिंतन होता है जो फिल्म देखते समय बाहर निकल आता है और बरबस ही रोने लगता है .
दरअसल में फिल्म बाकी सब सवालों के अलावा दीगर बातों का एक जखीरा है जो हमारे दकियानूसी समाज, सड़ीगली परम्पराएं और सोच को पोषित करते है. सबसे अच्छी बात यह है कि इसमें लोग नामक बीमारी से आमिर बचा ले गए , जब परिवार मोहल्ला छोड़कर जा रहा है तब भी एक खामोश विदाई ही प्रतीकात्मक रूप से समाज के रूप में सामने आया है. स्कूल, बाजार, ट्यूशन और घर के बीच सिमटी फिल्म में जुम्मा जुमा दस बारह चरित्र है. एक दिन में बडौदा से मुंबई जाकर गाना रिकॉर्ड करके लौट आना थोड़ा अतिश्योक्ति है एक पंद्रह साला लड़की का पर बालीवुड का थोड़ा तडका लगाए बिना दर्शक भी नही मानता कि वह सौ रूपये देकर फिल्म देखने आया है.
अदभुत भावनाएं और सहज - सरल भाषा में लिखे संवाद, साधारण कपड़ो और साधारण माहौल में फिल्माई गई यह फिल्म इसलिए भी याद रखी जायेगी कि इसमें संगीत का जो पुट है वह इधर आई कई फिल्मों से श्रेष्ठ है और इसके लिए संगीत निर्देशक को बधाई देना होगी.
आमिर की अन्य फिल्मों की तरह यह फिल्म तारों – सितारों के बीच उन्होंने “ पी के” तो निश्चित ही नही बनाई है और इसके निहितार्थ समझने होंगे, उन्हें चौदह करोड़ के बदले तीन चार दिन में ही पर्याप्त लगान मिल गया है . एन चुनाव के पहले रिलीज होकर वे एक सन्देश भी देते है और एक साफ़ भूमिका से बचते भी है. जायरा वसीम में मै असीमित संभावनाएं देखता हूँ और उन्हें भारतीय फिल्म संसार में लम्बी रेस की घोड़ी मानता हूँ. (घोड़े का विपरीत घोड़ी ही होता है ना ) यह फिल्म देखी जाना चाहिए टेक्स फ्री होना चाहिए और लड़कियों को अनिवार्य रूप से दिखाई जाना चाहिए. जो लोग अपनी निजी कुंठाओं, अपराध बोध और अनुभवों के आधार पर इसकी निंदा कर रहे है उन पर सिर्फ दया की जा सकती है और कहा जा सकता है “गेट वेल सून”
मेरे हिसाब से फिल्म को पांच *****

Comments

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही