धर्म की स्थापना होकर रहेगी मतलब अभी तक अधर्मी है हम लोग ?
धर्म की स्थापना करने के लिए राम जैसा विशाल हृदय चाहिए जो रावण के मरने के बाद लक्ष्मण को उसके पांव पड़ने भेजता है। कृष्ण जैसा ज्ञान लगता है जो गीता में निहित है। ब्रह्मा जैसा निर्माता चाहिए जो अमीबा से लेकर डायनासोर तक बनाना जानता है, शिव जैसा उपासक चाहिए जो विष पी लेता है, महावीर जैसा साधक चाहिए जो मौन रहकर संसार को अपरिमेय, अहिंसा का ज्ञान देता है इतना कि एक फूल के भीतर बैठा कीट भी मर ना पाएं,बुद्ध होना पड़ता है जो सब त्यागकर एक नया वैज्ञानिक दर्शन और जीवन पद्धति दुनिया को सीखाता है।
धर्म की स्थापना अवतार करते है चुनाव, वोट बैंक और सत्ता के लालची नही जो हिंसा द्वैष और बदले की भावना मन में लिए हर बात पर सामने आ जाते है।
धर्म को पुनर्स्थापित करो पर यह बताओ कि वसुधैव कुटुम्बकम के जगत सिद्धांत को ध्यान में रखकर किसके हित, किस प्रक्रिया और किसको साध्य मानकर कुछ करोगे ? हल्ला करने से , राम राज की स्थापना में न्याय की अवहेलना करके क्या हासिल करना चाहते हो?
शांति से यदि ऊँच नीच का भेद नही समझ पा रहे तो एक बार फिर धर्म ग्रंथों के पन्ने पलट लीजिये कोई फर्क नही पड़ता, पर अनाचार से सदियां बीत जाएंगी सुधार करने में।
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युवा आलोचक और भी बहुत कुछ पढ़े और बाकी पर भी लिखें बजाय एक प्रकाशक विशेष के मुखपत्र और प्रचार प्रसार अधिकारी बनने के।
यह बात आज भगवान दास मोरवाल ने एक घोषणा पर टिप्पणी करते हुए कही है। बात से मैं भी सहमत हूँ और यह बात सामान्यीकरण की तरह देखें तो युवाओं को अभी से दांव पेंच में ना फंसाकर या लालच देकर खेमो में ना घेरे , उन्हें खुला छोड़ दें , वे आप हम से ज्यादा सक्षम है और दक्ष भी। मेहरबानी करके उनका शोषण अपने हित, धंधे और पब्लिसिटी के लिए ना करें ।
वैसे ही हिंदी में कुछ लोग भयानक एटीट्यूड लेकर बैठे है, और अपने ही वरिष्ठों और समाकालिनों को ओछा समझते है - कनिष्ठ लोगों से इंसानियत का नाता भी नही निभाना चाहते , दृष्ट प्रवृत्ति के ये नामाकूल लेखक अब सिर्फ घटियापन की राजनीति कर रहे है और बेचारे युवा जो पढ़े लिखे और शोध में डिग्री भी पा लिए है अपनी दो जून की रोजी जुगाड़ने के लिए कुछ भी करेगा की तर्ज पर शोषित हो रहे है। प्रकाशन के अम्बानी उन्हें द्युत में दांव पर लगाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे है ।
दुष्यंत ने लिखा था
तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए
छोटी छोटी मछलियां चारा समझकर फेंक दी
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यहां ना आलिमो ना आरिफ़, ना मीरो मौलाना
यहां कहां तू ढूँढता फिरे है मयखाना
- डाक्टर ओम प्रभाकर
(एक उदास शाम को खोजते हुए कुछ)
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