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आत्म मुग्ध पगली आलोचक 10 Oct 2017



हिंदी साहित्य की आत्म मुग्ध पगली आलोचक आजकल बहुत चहक रही है और उस मूर्ख को लगता है कि हिंदी के युवा लेखक उसकी मेधा और सुंदरता पर मोहित है।
अरे पगली, नादां घसियारी हिंदी में दो रुपए कौड़ी के दाम से हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा घटिया किस्म की पत्रिकाएं निकाल रहा है। दो रुपए के अख़बारों की गिनती नहीं है। इतना छपा हुआ कचरा है कि सात आठ रुपए में रद्दी भी नहीं पड़ती । ये सब कागज कारे करने को तेरी उजबक किस्म की बकवास छापकर पाठक नाम कुंठित और अपराध बोध से ग्रस्त चूहों से रुपया ऐंठते है और दिमाग और विचारधारा को गिरवी रखकर सरकारी विज्ञापन जुगाड़ते है।
अब सोच पगली, तेरे लंबे बकवास भरे आलेख, टटपुंजिया लेखकों की लुगदी की तरह लिखी उबाऊ और चालीस पेज से लेकर दस हजार शब्दों की आलोचना पढ़ता कौन है , तेरे स्त्री विमर्श, नैन मटक्की यात्राओं और बकवास और सड़क छाप प्रवचन नुमा बीज वक्तव्य सुनता कौन है।
ये पी एच डी कर रहे युवा मित्र बड़ी आस से दूर दराज के गांवों से बाप महतारी का पसीना बहाकर विश्व विद्यालयों में आए है, अपने गुरुओं के तलुएं चाटकर और मेहनत करके एमए, एमफिल कर रहे है, हाड़तोड़ मेहनत से नेट पास किए है , रात जाग कर किताबें लिखी है और जेबखर्च से भूखे रहकर अपनी किताबें छपवाई है। छोटे कमरों में जिंदगी जीते हुए सबको प्यार से विस्तार देकर ये संसार में खुशियां बांट रहे है, इनके जीवन में जहर मत घोल, ग्रहण रूपी दाग मत बन पगली !!!
इनका शोषण मत कर मंथरा ! ये बच्चे ईमानदार और सच्चे है इनका खून मत पी, और उन दंभी पाखंडी साहित्यकारों का खून मत पी जो तृतीय श्रेणी कर्मचारी के पद पर नौकरी करके मदमस्त प्रकाशक को खून देकर किताबें छपवाते है और छोटे मोटे पुरस्कार के लिए तू आलोचना लिखकर उनका खून जोंक की तरह पीती है। बाज आजा, अब बहुत हो गया छिन्नमस्ता !!!
अरे पगली तू जहां है ना वहां कोई भी घसीयारन बैठेगी तो इससे तो बेहतर करेगी क्योंकि वह जगह ही ऐसी है। बाज आ जा, बहुत हो गया इश्क मुहब्बत, जितना तू हक रखती थी उससे ज्यादा पा लिया और अब निकल लें पतली गली से
तेरा होना आलोचना में हिंदी का कलुषित संसार में स्थाई ग्रहण का होना है और अब समय है कि अपने स्त्री होने के फायदे उठाना बन्द कर और मनुष्यता के नाते ही सही निकल लें

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