पचास
सरकारी स्कूलों की ह्त्या
-संदीप
नाईक-
यह इस वर्ष के नए स्कूली सत्र के शुरुवाती दौर की कहानी है. 28 जून
को मप्र के सीहोर - जो राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का जिला है, में
शिक्षकों के साथ एक बैठक कर रहे थे. एक स्वैच्छिक संस्था के साथ काम करने वाले
लगभग तीस शिक्षक और मैदानी काम करने वाले साथी मौजूद थे. बैठक में सर्व शिक्षा
अभियान के जिला प्रभारी भी थे उन्होंने औपचारिक उदघाटन के बाद कहा कि पिछले शिक्षा
सत्र में सरकार को 50 सरकारी विद्यालय बंद करना पड़े क्योकि बच्चों की पर्याप्त
संख्या नही थी, लिहाजा कार्यरत शिक्षकों का युक्तियुक्तकरण के कारण स्थानान्तरण
कही और किया गया और स्कूल बंद कर दिए गए. इस बैठक में जिला पंचायत के मुख्य कार्यपालन
अधिकारी ने भी संबोधित कर शिक्षकों से इस कारण पर गंभीरता से विचार करने को कहा. यह
मुद्दा उनके लिए एक प्रशासनिक समस्या था परन्तु इस मुद्दे ने सारे दिन की बैठक का
एजेंडा तय कर दिया. फिर बगैर किसी नीति या आंकड़ों की बाजीगरी के शिक्षकों से खुलकर
बात हुई कि आखिर ये सरकारी स्कूल क्यों बंद हुए? यह एक प्रकार से जीवंत स्कूलों की
समुदाय द्वारा की गई सामूहिक ह्त्या है यदि यह माना जाए तो कोई अतिश्योक्ति नही
होगा !!!
शिक्षकों ने बताया कि खराब बिल्डिंग, फर्नीचर के अभाव, पर्याप्त
मात्रा में शिक्षकों का ना होना, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का ना मिलना, बच्चों का
पांचवी या आठवीं पास होने पर भी अधिगम यानी सीखने का स्तर शून्य होना और शिक्षकों
का गैर शैक्षणिक कार्यों में वर्ष भर न रहना प्रमुख कारण है. बात जब गहराई से की तो पता चला कि सरकारी
स्कूलों में प्रवेश के समय न्यूनतम आयु पांच या छः वर्ष होना चाहिए जबकि आज के
परिवेश में निजी विद्यालय ढाई साल के बच्चे को भी प्रवेश देकर पांच साल की उम्र तक
तोता रटंत बनाकर गिनती या वर्णमाला रटवा देते है जो सामने दिखता है पालक को, अस्तु
उनके लिए उनके पाल्य का सरकारी स्कूल में प्रवेश करवाने का कोई अर्थ नहीं है. निजी
विद्यालयों में ना योग्य शिक्षक है ना आधारभूत ढाँचे परन्तु उनकी चमक दमक और
आकर्षक सी लगने वाली सुविधाएं, अंग्रेजी माध्यम का पुछल्ला इतना प्रचारित हो जाता
है कि गरीब से गरीब व्यक्ति भी शुल्क देकर अपने बच्चे को वहाँ पढवाने के लिए
लालायित रहता है.
जब विस्तार से बात की तो यह निकला कि सरकारी विद्यालयों में बच्चों
को कई प्रकार की सुविधाएं मिलती है – योग्य, अनुभवी और प्रशिक्षित शिक्षक, निशुल्क
पाठ्यपुस्तकें, छात्रवृत्ति, मध्यान्ह भोजन एवं निशुल्क शिक्षण आदि जबकि ठीक इसके
विपरीत निजी विद्यालयों में कुछ भी नहीं मिलता उलटे पालक की जेब से मोटी फ़ीस हर
माह जाती है साथ ही खेल, पुस्तकालय और शाला विकास शुल्क के नाम पर प्रति वर्ष एक
बड़ी नगद राशि रखवा ली जाती है जिसकी रसीद भी प्रायः नहीं मिल पाती. जिले के इछावर
ब्लॉक के दूधलई नामक गाँव की कहानी सुनकर आश्चर्य हुआ कि वहाँ से चार किलोमीटर दूर
एक गाँव के एक निजी विद्यालय में जहां न्यूनतम सुविधाएं है योग्य शिक्षक भी नहीं
वहाँ इस गाँव के बच्चे पढ़ने जाते है और पूरा गाँव
साल भर में लगभग बारह लाख रुपया इस निजी विद्यालय को देता है. गाँव में
अधिकाँश गरीब, वंचित समुदाय के लोग रहते है.
सवाल यह था कि इस समस्या का क्या उपाय है. समाधान तो कई निकलें
परन्तु उन्हें हल कौन करेगा यह बात पचाना थोड़ा मुश्किल था. एक महत्वपूर्ण सुझाव यह
निकलकर आया कि यदि शाला प्रबंधन समिति अपने गाँव और आंगनवाडी को सक्षम बनाएं तो इस
समस्या से मुक्ति पाई जा सकती है. मसलन- गाँव की आंगनवाडी में एक गाँव की ही पढ़ी
लिखी लड़की रखें - जो पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों को गिनती, अक्षर ज्ञान और
वर्णमाला सिएं. शाला प्रबंधन समिति पहली
से आठवीं तक के स्कूल में अतिरिक्त शिक्षकों की नियुक्ति करें जो अंग्रेजी,
विज्ञान और गणित में दक्ष हो और बच्चों को आउटपुट आधारित शिक्षा दें, शाला भवन में
शौचालय, अतिरिक्त कक्ष, सजावट, पीने के पानी की व्यवस्था, बिजली के लिए सोलर
प्लांट, सफाई के लिए सफाईकर्मी की नियुक्ति करें. अब सवाल यह उठा कि यह सब कैसे
होगा - रुपया कहाँ से आयेगा क्योकि शाला प्रबंधन समिति के पास ना तो कोई फंड होता
है ना ही शासन से उम्मीद की जा सकती है. एकाध स्कूल में नवाचार के नाम पर यूनिसेफ
या अन्य किसी बड़ी डोनर एजेंसी से हम मदद ले सकते है पर क्या यह लम्बे समय के लिए
मॉडल व्यवहारिक है. तो फिर यह निकला कि पालक एक निश्चित फीस स्कूल में शाला
प्रबंधन समिति को दें माहवार और समिति इस रूपये से ये सारे खर्च वहां करें. जब इस
बात पर चर्चा हुई तो पाया कि जो रुपया पूरा गाँव निजी विद्यालयों को वार्षिक दे
रहा है दस लाख के ऊपर उससे एक चौथाई खर्च में अपने गाँव में ही यह सब किया जा सकता
है. जब गणना की गई तो दूधलई गाँव में यह खर्च लगभग दो ढाई लाख रुपया आया यानी बारह
लाख किसी अन्य निजी विद्यालय को देने के बाजे मात्र ढाई लाख रूपये में अपने गाँव
के विद्यालय में वे सारी सुविधाएं प्राप्त की जा सकती है जो आवश्यक और
गुणवत्तापूर्ण है. साथ ही गाँव में यह सारा निवेश स्थाई होकर गाँव के लिए एक अचल
संपत्ति के रूप में रहेगा ताकि आने वाली पीढियां इसका लाभ बरसों तक उठा सकें.
ऐसा नहीं है कि पूर्व प्राथमिक शिक्षा और आंगनवाडी को लेकर प्रयोग
नवाचार नहीं हुए है कई संस्थाओं ने आंगनवाडी की बेहतरी के लिए प्रयोग किये है ताकि
प्राथमिक विद्यालय में जाने से पूर्व बच्चे तैयार हो सकें. सीहोर के इछावर ब्लाक
में ही विभावरी संस्था ने दो आदर्श आंगनवाडी में प्रयोग करके सफलता से यह धारणा
तोड़ी है कि समुदाय सहयोग नहीं करता. संस्था ने दो जगहों पर गाँव की ही पढ़ी लिखी
लड़की को प्रशिक्षित कर बच्चों को पूर्व प्राथमिक शिक्षा में दक्ष किया है. विकास
संवाद संस्था ने प्रदेश के रीवा, सतना, पन्ना और उमरिया जिलों के आदिवासी बहुत
गाँवों में आंगनवाडी में समुदाय को वृहत्तर स्तर पर शामिल करके नवाचार किये है और
लगभग सौ आदिवासी गाँवों के पन्द्रह हजार गंभीर कुपोषित बच्चों को सामान्य श्रेणी
में लाया है जिसकी तारीफ़ प्रशासन कर चुका है और अब इन गाँवों में शिशु और मात्र मृत्यु
दर न्यूनतम है साथ ही संस्थागत प्रसव भी लगभग शत प्रतिशत हुआ है. ये प्रयास बच्चों
को शिक्षा की ओर उन्मुख ही नहीं कर रहें वरन प्राथमिक शिक्षा की मजबूत नींव बनाने
में भी सार्थक सिद्ध हो रहे है.
ऐसे में जब वंचित, दलित और गरीब समुदायों के लिए ही सरकारी स्कूल
प्रतीक बनते जा रहे थे और अब सरकार इन्हें भी बंद करके इन समुदायों को शिक्षा से
दूर रखने के लिए नित नए प्रावधान कर रही है उसमे समुदाय की भागीदारी से स्कूलों को
सच में पंचायतों को संविधान के “73 वें संशोधन अधिनियम 1993” के तहत शिक्षा विभाग
के जंजाल से मुक्त करके शाला प्रबंधन समिति के हस्तगत करना होगा ताकि वे अपने तई
स्थानीय स्तर पर विकल्प खोजकर कुछ सार्थक प्रयास कर सके. शिक्षकों को यह समझना
जरुरी है कि आज तो उनका स्कूल बंद होने से युक्तियुक्तकरण तरीके से स्थानांतर किया
जा रहा है पर कल यदि स्कूल इसी तादाद में बंद होते गए तो सरकार अनिवार्य सेवा निवृत्ति देकर घर बैठा देगी और
फिर उनके पास करने और कहने को कुछ नहीं रह जाएगा. एक मुख्यमंत्री के जिले में यदि
50 स्कूल बंद हो सकते है तो यह चेतावनी भी बड़ी है कि कल समुदाय के किस स्कूल,
सरकारी अस्पताल या संस्थान की बारी है. अब समय है कि हम सरकारी संस्थाओं की
विश्वसनीयता और साख को पुनः लौटाएं और स्थापित करें और यह काम समाज का उच्च वर्ग
नहीं करेगा मानकर चलिए यह काम कार्यरत कर्मचारी और वहाँ के दबे ले लोग ही कर सकते है
जो पीड़ित है.
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