मध्यप्रदेश में अफसरशाही पर लगाम
लगाना जरुरी है
-संदीप नाईक -
मप्र में ब्यूरोक्रेसी की आत्म
मुग्धता चरम पर है और इसमे वे अपने को, अपने काम को और अपनी छबि को चमकाने के लिए
किसी भी हद तक जाकर काम कर रहे है इसके विपरीत वे अपने मातहतों के साथ बहुत बुरा
व्यवहार भी कर रहे है. यह बात इन दो उदाहरणों से समझी जा सकती है. ऐसा नहीं है कि
या कोई आज की बात है, मप्र में ब्यूरोक्रेसी में टीनू और अरविन्द जोशी का उदाहरण
सामने है जिन्होंने अरबों रुपयों का घोटाला करके करोडो रुपया खाया और सरकार ने ठोस
कदम लेने में बहुत लंबा समय लिया. टीनू अरविन्द जोशी दंपत्ति ने प्रदेश में आरसीपीवी
नरोन्हा- जो प्रदेश के पहले मुख्य सचिव थे और जिन्होंने तीन मुख्य मंत्रियों के
साथ काम करके “ए टेल टोल्ड बाय एन इडियट” जैसी महत्वपूर्ण किताब लिखी, के आदर्श को
ध्वस्त किया, शरदचंद्र बेहार जैसे प्रखर और मुखर अधिकारी के द्वारा स्थापित
पारदर्शी प्रशासन का बेड़ा गर्क किया. ये उदाहरण तो ठीक थे जो भयानक भ्रष्टाचार की
सीमा में आये परन्तु आजकल जो प्रदेश में ब्यूरोक्रेसी की हालत है वह बेहद चिंताजनक
है. ब्यूरोक्रेट्स द्वारा नौकरी छोड़कर चुनाव लड़ना आजकल सामान्य सी बात है पुर्व
डीजीपी रुस्तम सिंह की सबको याद ही होगी. भाजपा में यह फैशन बहुत चलन में है जो कि एक
सकारात्मक बात भी है. लोकतंत्र में सब जायज है.
पिछले तीन वर्षों से नौकरी नहीं
कर रहा हूँ . पिछले दिनों दिल्ली की एक कम्पनी का ऑफर मिला कि वे मप्र में सरकार
के साथ मिलकर डिजिटल इंडिया के तहत तीन विभागों के साथ काम करना चाह रहे है और
अनुबंध साईन हो गया है, जिसमे मुख्य काम था विभागों और सम्बंधित अधिकारियों की छबी चमकाना.
एक लंबा दौर चला बातचीत का . जब तनख्वाह की बात आई तो मैंने कहा कि एक लाख रुपया प्रतिमाह
तो वे सहर्ष तैयार हो गए. जब सारी बातचीत लगभग होने को थी तो अंत में मैंने पूछ
लिया कि यह सरकारी काम है या कुछ और भी? तो उस कम्पनी के सीईओ ने लजाते हुए कहा
कि सत्ता के एक व्यक्ति विशेष की फेसबुक पोस्ट्स,
टवीटर हेंडल करना
और उनके विभाग की सारी योजनाओं को जमकर चमकाना भी होगा. विडिओ बनाकर उन्हें
लोकप्रिय बनवाना भी इसमे शामिल था. थोड़ा और पता किया तो उन लोगों ने मेरी दो साल
की फेसबुक पोस्ट्स देखी थी और बावजूद इसके कि मै प्रतिपक्ष रचता हूँ वे सहर्ष
तैयार थे, कारण भाषा और लाईक्स, कमेंट्स !!!
अब समझ आ रहा है कि डिजिटल के नाम
पर कैसे ब्यूरोक्रेट्स, नेता और विभाग प्रमुख अपनी
व्यक्तिगत छबि चमकाने का काम कर रहे है और इसके लिए जनता की गाढ़ी कमाई का रुपया इस
काम में जा रहा है. यह बता दूं कि उस कम्पनी में काम करने वाले 30 से 38
साल के युवा थे जो आईपीएस इंदौर से
लेकर आईआईएम् बेंगलोर तक के पढ़े लिखे है और इनका एक बड़ा जाल है जो प्रदेश में
भयानक अन्दर तक सक्रीय है. ये युवा क्रिकेट टीम से लेकर विदेश मंत्रालय तक का काम
करते है और ब्यूरोक्रेट्स की आकर्षक छबी बनाने के ठेके लेते है. रुपया कमाना
कम्पनी बनाकर गलत नहीं है गलत है इस तरह से जनता की गाढ़ी कमाई को अपने हित में
उपयोग करना और यह काम प्रदेश के नेता सेलेकर ब्यूरोक्रेट्स भलीभांति जानते है.
मप्र के क्या, भाजपा के सारे मुख्यमंत्रियों
और प्रधानमंत्री को भी आत्म मुग्धता की लम्बी बीमारी है उअर इन सबका का लंबा
अभ्यास है और कई मुख्यमंत्री तो अब गत पन्द्रह वर्षों में लम्बी पारी खेलकर इसके
पारंगत खिलाड़ी भी हो गए है. शिवराज सिंह चौहान को अवसर ज्यादा मिलें जिससे
उन्होंने अपनी व्यक्तिगत छबि चमकाने के लिए राज्य के धन, का मशीनरी का दोहन ही
नहीं किया बल्कि अपने अफसरों को यह छुट भी दी कि वे भी इस बहती गंगा में हाथ पाँव
धो लें. सिंहस्थ, नर्मदा यात्रा, पौधारोपण तो ताज़ी बातें है इसके पहले वे अपने घर
विभिन्न समुदायों और पेशे से जुड़े लोगों की पंचायतें बुलाकर या लाडली लक्ष्मी से
लेकर तमाम केंद्र सम्स्र्थित योजनाओं को अपने नाम से घोषित करके अपनी छबि चमकाने
का कार्य करते रहे है. उनके अफसरों की एक पूरी टीम इसमें उन्हें मार्गदर्शन देती
है बाकायदा इवेंट मैन्जर्स को बुलाकर उनके कामों को शो केस किया जाता है और इमेज
बनाई जाती है.
आंध्र प्रदेश के रहने वाले युवा आयएएस
पी नरहरी, जो ग्वालियर से लेकर इंदौर जैसे मलाईदार जिलों में कलेक्टर रह चुके है
काफी आई टी फ्रेंडली है. इंदौर में रहते हुए ज्यादातर समय इनका अपना फेसबुक पेज को
निखारने संवारने में चला जाता था और लोगों से वे सोशल मीडिया साईट्स पर ही मिलाकर
समस्याएं हल करते थे. इन्ही नरहरी ने हाल ही में अपने ऊपर एक डाक्यूमेंट्री बना
डाली है जो उनके व्यक्तिगत कामों का गुणगान करती है, इसमे वे यह भूल गए कि उन्हें
सभी प्रकार के काम करने के लिए पर्याप्त तनख्वाह भी मिलती है और सुख सुविधाएं भी,
लिहाजा उन्होंने काम करके कोई ज़मीन तोड़ने का काम नहीं किया है. अपने खुद के ऊपर
फिल्म बनाकर उन्होंने प्रदेश के अफसरों के सामने एक नई मिसाल कायम की है. पुराने तो नहीं, पर नए युवा अफसरों में इसको लेकर निश्चित ही एक
अभिलाषा जागेगी और आने वाले समय में प्रशासनिक अधिकारी काम करने या जनता की
समस्याएं सुनने के बदले फ़िल्में ही बनवा कर अपनी हिट्स बढ़वाते रहेंगे. हो सकता है
शूटिंग के दौरान वास्तव में जनता को कुछ फ़ायदा मिल जाए. पी नरहरी ने कोई पाप नहीं
किया है, कई लोग कहते है कि अब समय की मांग है कि जो दिखेगा वही बिकेगा, जब प्रदेश
के मुख्यमंत्री को हर विज्ञापन में अपना चेहरा दिखाने का रोग लग जाए, बावजूद इसके
कि सुप्रीम कोर्ट इस बारे में सख्त हिदायत दे चुका है , फिर भी तमाम मुख्यमंत्री
अपने मुस्कुराते हुए चेहरे के साथ हर दिन अखबारों के जैकेट में मौजूद रहते है.
दूसरा
उदाहरण क्रूरता की हदें पार करके अपने एक छोटे से बीमार कर्मचारी को हैदस में
डालकर राज करने की सामंती प्रवृत्ति को दर्शाता है. कल्पना करिए एक लोक प्रशासक की - जो आईआईटी, कानपुर से पढ़कर अखिल भारतीय सेवा पास करके आया, लाल बहादुर शास्त्री अकादमी,
मसूरी में उसने प्रशिक्षण लिया और
फिर किसी जिले में बतौर सी ई ओ या कलेक्टर नियुक्त हुआ ......क्यों.......क्योकि
वह जनता की सेवा कर सकें, प्रशासनिक कार्यों को गति दे सकें और उम्दा प्रदर्शन करके शासन की
मंशा अनुरूप कार्य कर सभी काम ठीक से कर सकें,
परन्तु होता यह है कि वह जब
पोस्टिंग पाता है तो एक निरंकुश सामंत की तरह से हो जाता है और जनता को दबाने का
कार्य ही नहीं करता, वरन वह उनका भाग्य विधाता भी बनने
की कोशिश करता है और इस दर्प में वह यह भूल जाता है कि वह एक मनुष्य भी है और जनता
का नौकर. पर यह होता कहाँ है वह तो नीचता की हद कर देता है यह किसी से छुपा नहीं
है.
ताजा मामला श्योपुर सीईओ ऋषि गर्ग
का है जिनके दफ्तर आते ही एक होम गार्ड के 53 वर्षीय जवान ने कार का दरवाजा खोलने
में क्षणिक देर की तो इस अधिकारी ने उस प्रौढ़ व्यक्ति और शक्कर के मरीज को अपने
दफ्तर के दस चक्कर लगवाएं. बताइये कि ये कौन से युग में जी रहे है हम, और सबसे बड़ा सवाल क्या होमगार्ड के जवान की ड्यूटी में यह शामिल है
कि अपने आका की गाड़ी का दरवाजा खोलें, नहीं...... ऊपर से ये अधिकारी होता
कौन है, सजा सुनाने वाला
?
?
क्या लाल बहादुर शास्त्री अकादमी को
अपने पाठ्यक्रम में बदलाव नहीं करना चाहिए जो इन पढ़े लिखे माननीयों को "पैम्पर"
करके मैदान में भेजती है. जिन्हें नैतिक मूल्यों और मनुष्यता के मूल सिद्धांत नहीं
मालूम उन "माननीयों" को फिल्ड में भेजा जाता है ताकि ये मनमानी कर सकें, यहाँ यह उल्लेखनीय है कि यदि कलेक्टर / सी ई ओ का और सम्बंधित
अधिकारियों का यह रवैया है तो सोचिये ये गरीब, आदिवासी वंचित
लोगों के साथ क्या सुलूक करते होंगे. मप्र में ब्यूरोक्रेसी के ऐसे अनेक उदाहरण
मिल जायेंगे, राजगढ़ कलेक्टर का चित्र पिछले दिनों शाया हुआ था जिसमे वे
ग्रामीणों की भीड़ के सामने किसी राजा की भाँती बैठे है. मप्र में यह सब बहुत बढ़
गया है और प्रदेश के मुख्य सचिव का किसी पर नियंत्रण नहीं है, वे सत्ता के साथ मिलकर चुनाव जीतने की रणनीति पर काम कर रहे है -
लगता है. आय ए एस अधिकारी / कलेक्टर जिलों के "राजा बाबू" बन गए है और
सामंती मानसिकता में प्रशासन चला रहे है. ऐसे अधिकारियों / कलेक्टरों को तो सीधे बर्खास्त
कर देना चाहिए. पता नहीं क्यों प्रदेश के संवेदनशील मुख्यमंत्री (? )इन्हें झेलते है या प्रश्रय देते है?
बेहद शर्मनाक और इस अधिकारी की तो
भर्त्सना की जाना चाहिए.
Comments