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पॉल ऑस्टर 27 July 2017



पॉल ऑस्टर


तीन हफ्ते पहले मुझे अपने पिता की मृत्यु की ख़बर मिली। पिता के पास कुछ नहीं था। बीवी नहीं थी, कोई ऐसा परिवार नहीं था जो सिर्फ़ उन पर निर्भर हो। यानी ऐसा कुछ नहीं था, जो सीधे तौर पर उनकी अनुपस्थिति से प्रभावित हो। उनके न रहने का दुख होगा, कुछ लोगों को सदमा लगेगा, कुछ दिनों का शोक होगा और फिर ऐसा लगेगा, जैसे कि वह कभी इस दुनिया में थे ही नहीं।
दरअसल, अपनी मृत्यु से काफ़ी पहले ही वह अनुपस्थित हो गए थे। लोग पहले ही उनकी अनुपस्थिति को स्वीकार कर चुके थे। उसे उनके होने के एक गुण की तरह मान चुके थे। अब जबकि वह सच में नहीं हैं, लोगों के लिए इसे एक तथ्य की तरह स्वीकार कर लेना कोई मुश्किल काम न होगा।
पंद्रह साल से वह अकेले रह रहे थे। ऐसे, जैसे कि उनके आसपास की दुनिया का कोई अस्तित्व ही न हो। ऐसा लगता ही नहीं था कि उन्होंने इस धरती पर कोई जगह घेरी है, बल्कि वह इंसान के रूप में उस बक्से की तरह हो गए थे, जिसमें कुछ भी घुस नहीं सकता। दुनिया उनसे टकराती थी, कभी-कभी टकराकर टूट भी जाती थी, कभी-कभी टकराकर चिपक भी जाती थी, पर कभी उनसे पार नहीं हो पाई। पंद्रह साल तक वह एक आलीशान मकान में भटकते रहे, और फिर वहीं उनकी मृत्यु हो गई।
वह इस मकान में आना नहीं चाहते थे। जब हमारा परिवार यह मकान ख़रीदना चाहता था, तो उन्होंने इसकी क़ीमत पर एतराज़ जताया था, लेकिन मां यही मकान चाहती थी। अंतत: उन्होंने ख़रीद लिया, वह भी पूरे नक़द भुगतान पर। कोई क़र्ज़ा नहीं, कोई क़िस्त नहीं। वे उनके अच्छे दिन थे। वह शाम को जल्दी घर आते थे और डिनर से पहले थोड़ी देर सोया करते थे। वह अपनी आदतों से मजबूर थे। जब इस मकान में आए उन्हें हफ्ता भी नहीं हुआ था, उन्होंने एक बड़ी अजीबोग़रीब ग़लती की थी। एक शाम दफ्तर से लौटने के बाद अपनी आदत के अनुसार, वह इस मकान में आने के बजाय, पुराने मकान में चले गए। बाक़ायदा वहां कार पार्क की। सामने का दरवाज़ा बंद देख पिछले दरवाज़े से अंदर घुसे, सीढिय़ां चढ़ीं, बेडरूम में घुसे और जाकर सो गए। क़रीब एक घंटा सोते रहे। जब उस मकान की नई मालकिन ने अपने बेडरूम में किसी अजनबी को सोया पाया, तो हल्ला मच गया। मेरे पिताजी जाग गए। लेकिन वह वहां से भागे नहीं। वह तो बस आदत के मुताबिक़ उस मकान में घुस गए थे। जब वहां इकट्ठा लोगों को यह बात समझ आई, तो सब बहुत हंसे। आज भी मैं उस क़िस्से को याद कर हंस पड़ता हूं।
धीरे-धीरे समय गुज़रा। मां तलाक़ लेकर अलग हो गईं। हम बच्चे बड़े हुए और अलग रहने लगे, लेकिन पिता उसी मकान में रहते रहे। उसमें उन्होंने ज़रा भी परिवर्तन नहीं किया। दीवारों का रंग वही, सारे फ़र्नीचर भी वही। आख़िर वह मकान उन्होंने अपने परिवार के लिए लिया था। पंद्रह बरसों से वह सिर्फ़ रहते आए, उस मकान में उन्होंने न कुछ जोड़ा, न कुछ घटाया। उसमें चलते हुए लगता, हम किसी अवसाद लोक में चल रहे हैं।
मरे हुए आदमी की चीज़ों का सामना करने से ज़्यादा भयावह कुछ नहीं होता। चीज़ें तो जड़ होती हैं, उनके भीतर अर्थ तो वह जीवन डालता है, जिससे वह जुड़ी होती हैं। जब जीवन ख़त्म होता है, तब चीज़ें भी बदल जाती हैं, भले उनके रूप में कोई बदलाव न आता हो। वे उन भूतों की तरह होती हैं, जिन्हें छुआ जा सकता है। उन कपड़ों का क्या करेंगे, जो ख़ामोशी से उस आदमी का इंतज़ार कर रही हैं, जो उन्हें पहनता आया था, लेकिन जो अब कभी नहीं आएगा। उस रेज़र का क्या करेंगे, जो बाथरूम में टंगा हुआ है, जिस पर पिछली शेव के निशान बचे हैं, लेकिन अब जिसका इस्तेमाल कभी नहीं होगा। उनके हनीमून की तस्वीरें वहां लगी हुई थीं। एक दराज़ में पुरानी चेकबुक्स पड़ी थीं। कुछ में हथौडिय़ां और कभी इस्तेमाल न होने वाली कीलें पड़ी थीं। बाथरूम की एक दराज़ के सबसे नीचे एक पुराना टूथब्रश पड़ा था, जिसे मां इस्तेमाल करती थीं। उसे देखकर ही पता चलता है कि इसे पंद्रह साल से छुआ तक नहीं गया है। हम सब उस मकान से निकल चुके थे, लेकिन हमारी चीज़ें अब भी वहां वैसे ही पड़ी थीं, जैसे हमारे पिता वहां वैसे ही थे। वह हम सबकी स्मृतियों के बियाबान में ठीक उसी तरह थे। पहले जैसे।
उस मकान की एक-एक चीज़ देखकर यह पता चलता है कि पिता ने अपने जाने की कोई तैयारी नहीं की थी। वह अचानक गए। जिस मकान में वह रहना नहीं चाहते थे, उसी मकान में उन्होंने पूरा जीवन गुज़ारा। जब सबने कहा कि यह मकान छोड़ दो, तो उन्होंने किसी की नहीं सुनी। अकेले ही रहे। मरने से एक हफ्ता पहले उन्होंने मकान बेच दिया था, लेकिन उसकी किसी चीज़ को बाहर नहीं निकाल पाए। वह रोज़ उस मकान में रहते थे, लेकिन मरते समय वह उसका सामना नहीं कर पाए। नए लोगों के लिए उस मकान को ख़ाली करने के बजाय उन्होंने अपनी देह को ही ख़ाली करना सही समझा। इसके लिए मृत्यु एकमात्र रास्ता होती है, एकमात्र जायज़ रास्ता।
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संस्मरण पुस्तक ‘इन्वेन्शन ऑफ सॉलीट्यूड’ से. 2013 में किया हुआ अनुवाद.

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