जिस तादाद में ये दो कौड़ी के टुच्चे साहित्यकार सरकार प्रदत्त साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा रहे है वह चिंताजनक है मितरों, और मै बेहद दुखी हूँ. दुखी अमित जी भाई शाह भी है हम अभी बिहार में व्यस्त है फिर देख लेंगे सबको.
मेरी सरकार ने यानी मैंने फैसला किया है कि भारत सरकार इस वर्ष से साहित्य के सभी पुरस्कार देना बंद कर देगी क्योकि आने वाले वर्षों में हमें अभी बहुत काम करने है और ये इस तरह से इस देश में नहीं चलेगा, सरकार को बदनाम करने का कोई चारा या विकल्प हम खुला नहीं रखना चाहते है.
मितरों, यदि आप कोई पुरस्कार साहित्य के नाम पर देते है तो वो भी बंद कर दे या सरकार आपकी साँसे ही बंद कर देगी, हम अशोक वाजपेयी टाईप लोगों की पेंशन और सारी पोस्ट रिटायर्डमेंट सुविधाओं पर भी प्रतिबन्ध लगाने का केबिनेट में प्रस्ताव लाकर लोकसभा में पारित करवाएंगे, ताकि कोई माई का लाल मेरे खिलाफ, मेरी मनमोहनी चुप्पी, मुस्कान और भूमिका के खिलाफ एक्शन ले सके.......
कभी मन की बात में जिक्र करूंगा.........
आपका अकेला देशभक्त
नमो.
उदय प्रकाश, अशोक वाजपेयी, नयनतारा सहगल के बाद अब निगाहें नामवर सिंह, काशीनाथ, मैनेजर पाण्डेय केदार जी से लेकर नरेश सक्सेना जैसे लोगों पर टिकी है कि अब सही समय है जब अपनी पक्षधरता साबित करें और तमाम पुरस्कार मय राशि के लौटाएं. अगर ये ऐसा नहीं करते है तो इतिहास तो माफ़ नहीं करेगा परन्तु ये कद्दावर (?) अपनी ही बनाई स्वयम्भू प्रतिमाओं के आसपास उगी केक्टस की झाड़ियों में उलझ जायेंगे और कांटे इन्हें स्वयमेव ही चुभने लगेंगे............
अगर कोई सच्चा साहित्यकार है तो वह किसी भी पुरस्कार को ना लें चाहे वो सरकार प्रायोजित हो या अन्य किसी का क्योकि साहित्य एक प्रतिपक्ष रचता है यह प्रतिबद्धता दर्शाने का यही मुकम्मल समय है मित्रों.
याद कीजिये यु आर अनंत मूर्ति ने क्या कहा था, शुक्र है आज वो देश ही नहीं दुनिया छोड़ गए......वरना.
साहित्य का अंतिम उद्देश्य सत्ता के खिलाफ अपना पक्ष रखना ही होता है और होना चाहिए. दुर्भाग्य से हिन्दी में पी एच डी कर रहे कुछ युवा उद्दंड तथाकथित लेखकों को यह बात समझ नहीं आती और वे सिर्फ नौकरी पाने के लिए सत्ता पक्ष के लोगों, प्रोफेसरों और घटिया चापलूस साहित्यकारों के मुंह लग जाते है, बेचारे और कुछ कर भी नहीं सकते.............
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