ये जो सात सुर थे सितार से लेकर तुम्हारे कण्ठ में, जो सजते थे तो भोर हो जाती थी और पहाडो पर धूप खिल जाती थी, रातरानी महक उठती थी और रात किसी मालकौंस की तरह आहिस्ते से गुजर जाती थी, पर सुनने की कोशिश कर रहा हूँ यहां इस नदी के तलछट पर और सागर के निर्जन छोर पर तो आज मद्धम पड़ रहे है सारे सुर, तबले की थाप कर्कश हो रही है, वीणा में से झनकार खत्म हो गयी है, हारमोनियम अवरुद्ध होकर रूठ गया है और आरोह अवरोह की दौड़ में मैं खोता जा रहा हूँ शायद अब भैरवी ही विकल्प है इस अंतिम पहर की यवनिका में। एक आसमान झुक आया है नीचे तक और धीरे से बीन रहा है अपने अवशेष जो क्षितिज से टूटकर किसी तानपुरे के सुरों से होते बाँसुरी की धुन में लिपटे आ गए थे मोगरे के फूलों की सुवास में खींचकर ..
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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