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"सोनचिरई" और सोहर तथा लोक गीतो की परम्परा 8 Oct 15



भाई नलिन  ने बहुत सही आंकलन किया है सोहर, लोक परम्पराओं और कविता का, जिसमे एक विशेष संदर्भ में जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविता  "सोनचिरई"  का जिक्र है. यहाँ प्रस्तुत है नलिन जी का वो आलेख और जितेन्द्र की कविता पाठक तय करें.

कल कथाकार भाई देवेन्द्र से समकालीन कविता पर बात हो रही थी | देवेन्द्र भाई ने कविता में कथा तत्व की ताकत को रेखांकित किया | मेरा मत है - इसके लिए लोकगीतों, लोककथाओं, लोकनाट्य आदि को स्रोत के रूप में चुनने में झिझक नहीं होनी चाहिए | कालिदास भी मानते थे - .....नव्यं करोमि' - मैं पुराने को नया करता हूँ | वास्तव में मिथकीय आख्यानों को लेकर लिखना पुराने को नया करना ही है | रामायण के ३०० पाठ मिलते हैं | रामकथा वाल्मीकि, कालिदास, स्वयम्भू, तुलसीदास से होते हुए मैथलीशरण गुप्त तक के लेखन में मौजूद है | दिनकर और भारती के यहाँ भी महाभारत की कथा स्रोत बनी है | प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह 'इतिहास और आलोचना' में कविता को अँधेरी गलियों से निकालने के लिए लोकतत्व को उपाय के रूप में सुझाते हैं | लोक की परंपरा श्रुत है | सोहर, गारी, बिरहा, चैता, झूमर, कजरी, फगुवा, रोपनी, जंतसार, लचारी, कहरवा समेत तमाम गीत हमारे लोक में मौजूद हैं | रामनरेश त्रिपाठी, कृष्णदेव उपाध्याय और प्रताप नारायण अवस्थी के अवधी तथा भोजपुरी के संकलनों में एक ही गीत अलग-अलग क्षेत्र में अदल-बदल कर मिल जाएगा | ये सभी संकलन हैं | जवाबी कजरी के संकलन मेरे पास भी हैं | कुछ और लोगों के पास वही और रूप में हो सकता है | यानी लोकगीतों के रूप बदले हुए हो सकते हैं, उन पर किसी का एकाधिकार नहीं है | लोकगीतों को सुनने के बाद उनमें सबसे अधिक दुःख स्त्रियों की प्रस्थिति देखकर होता है | पुत्र और पति के लिए उन्हें उपवास रखना है | पता चलता पेट में बेटी है तो मिर्च खाकर मार डालतीं | ऐसे कई गीत हैं जहाँ बाँझ की परछाई से बचा जा रहा है | एक गीत में तो बाँझ राजा का चेहरा सुबह-सुबह नौकरानी भी नहीं देखना चाहती | मेरे पास पाँच उदहारण हैं इक्कीसवीं सदी के गाँव के | 1- मैंने एक परिवार में इसलिए दूसरी शादी होते देखा है जहाँ पहली पत्नी से संतान नहीं हुयी है | पत्नी रोकर भी शादी की तैयारी में जुटी रही और दूसरी पत्नी के आने से पहले ही मायके चली गयी | 2-दो पड़ोसियों में एक के घर बहू को कई साल तक बच्चा नहीं हुआ और अन्य के घर बेटा हुआ तो बेटे को पहले वाले घर की बहू से दूर रखा जाता रहा | 3-एक घर में पुरुष ने इसलिए दूसरी शादी की क्योंकि पहली पत्नी से कई बेटियां ही पैदा हुयीं थीं | 4-एक स्त्री के पति के नपुंसक होने के बारे में जानकारी हो जाने के बाद भी स्त्री ने दूसरी शादी नहीं की और जीवन भर प्रेम से निर्वाह किया | पति-पत्नी ने जीवन भर यह बात छुपाई | पत्नी की मृत्यु के बाद पति ने रोते हुए राज खोला | 5-एक स्त्री के पति के नपुंसक होने के बारे में जानकारी हो जाने के बाद भी स्त्री ने दूसरी शादी नहीं की लेकिन पति ने अपने भाई से पत्नी को जबरदस्ती सम्बन्ध बनाकर पुत्र पैदा कराना चाहा तो पत्नी ने प्रतिकार किया | बात परिवार न्यायालय तक पहुंची जहाँ पत्नी ने पति के माफ़ी मांगने और परिवार से दूर रहने की स्थिति में फिर साथ रहना स्वीकार कर लिया | 

पुत्र जन्म की आकांक्षा और स्त्री का स्त्री से दुराव के बारे में 'इतिहास में स्त्री अस्मिता की तलाश' की लेखिका लिखती हैं - 'पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष की तुलना में सामाजिक रूप से दोयम दर्जे की ठहराई हुयी स्त्रियाँ परिवार के पुरुषों के बीच अपने को महत्वपूर्ण बनाए रखने के लिए प्रायः आपस में ही संघर्षरत हो जाती हैं | परिवार में रसोई से सम्बंधित निर्णयों में एकाधिकार पाने के लिए, घरेलू कार्यों में मालिकाना हक़ पाने के लिए स्त्रियों का संघर्ष काफी पहले से चला आ रहा है | समाज में रूढ़ विचारों से प्रभावित उनकी मनोवृत्ति उन्हें घर की चारदीवारी में कैद कर देती है | वे स्वयं भी पुरुष को श्रेष्ठ मान स्वयं को उसकी नजरों में महत्वपूर्ण बनाने के लिए आपस में ही लड़ मरती हैं | परिवार के भीतर अपनी प्रस्थिति को लेकर स्त्रियों के पारस्परिक संघर्ष,पहला मौका मिलते ही दूसरी स्त्री को प्रताड़ित करना,परिवार के पुरुषों के साथ सामाजिक सम्बन्ध को ही अपनी व्यक्तिगत पहचान और सामाजिक मान-सम्मान का आधार मान लेने की मनोवृत्ति पितृसत्ता ने ही स्त्री में रूढ़ की |' 

देवेन्द्र भाई की बातचीत, नामवर सिंह जी की सलाह और लोक की परम्परा को गाँव से जुड़कर देखने पर निकले उपर्युक्त निष्कर्षों के आधार पर नयी सदी की कविता की चुनौतियों के सामने जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविता 'सोनचिरई' प्रतिनिधि सम्भावना के रूप में दिखती है 
- प्रो नलिन रंजन सिंह, लखनऊ,  उप्र. 
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"सोनचिरई" - जितेन्द्र श्रीवास्तव (प्राध्यापक, मानविकी, इग्नू, नई दिल्ली)
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बहुत पुरानी कथा है
एक भरे पूरे घर में
एक लड़की थी सोनचिरई
वह हँसती थी
तो धूप होती थी
फूल खिलते थे
वह चलती थी
तो वसंती हवा चलती थी ।
जिधर निकल जाए
लोगों की पलकें बिछ जाती थी
और जैसा की हर किस्से मे होता है
उसका विवाह भी एक राज कुमार से हुआ ।
राज कुमार उस पर जान लुटाता था ।
उसके होंठ उसकी तारीफ मे खुलते
उसकी जीह्वा उसके प्रेम के सिवा
और सारे स्वाद भूल गई थी ।
उसकी आँखों मे नींद
और दिल मे करार न था
और ऐसे ही दो चार बरस बीत गए
सोनचिरई की गोद न भरी
ननद को भतीजा
सास को कुल का दिया
पति को पुरुषत्व का पुरस्कार न मिला ।
ननद कहने लगी बज़्रवासिनी
सास कहने लगी बांझ
और जो रात दिन समाया रहा उसकी साँसों की तरह
उसने कहा तुम्हारी स्वर्ण देह किस काम की
अच्छा हो तुम यह गृह छोड़ दो 
तुम्हारी परछाई ठीक नहीं होगी हमारे कुल के लिए ।
सोनचिरई बहुत रोई
मिन्नतें की
पर किसी ने न सुनी ।
आंसुओं के बीच एक स्त्री
घर के बाद
भटकने लगी ब्रह्मांड मे ।
उसे जंगल मिला
जंगल मे बाघिन मिली
उसने अपना दुख बाघिन को सुनाया
और निवेदन किया कि वह उसे खा ले
बाघिन ने कहा
वहीं लौट जाओ जहां से आई हो ।
मै तुझे न खाऊँगी
वरना मै भी बांझ हो जाऊँगी ।
सोन चिरई क्या करती ...!
वहाँ से साँप की बाँबी के पास पहुंची ।
बाँबी से नागिन निकली नागिन ने उसका दुख सुना
फिर कहा लौट जाओ जहां से आई हो ।
मै तुम्हें काट खाऊँगी तो बांझ हो जाऊँगी ।
सोनचिरई बहुत उदास हुई ।
फिर क्या करती !
गिरते पड़ते माँ के दरवाजे पहुंची ।
माँ ने धधाकर हाल – चाल पूछा
कौन सी विपत्ति मे दुलारी बिटिया ऐसे आई है ।
बेटी ने अपना दुख सुनाया
और चिरौरी की कि थोड़ी सी जगह दे दो माँ रहने के लिए ।
माँ ने कहा विवाह के बाद बेटी को
नैहर मे नहीं रहना चाहिए ।
लोग बाग क्या कहेंगे
वहीं लौट जाओ जहां से आई हो ।
और सुनो बुरा न मानना बेटी
जो तुम्हारी परछाई पड़ेगी तो में बहू भी बांझ हो जाएगी ।
यह कह कर माँ ने दरवाजा बंद कर लिया ।
अब सोन चिरई क्या करती .....!
उसने धरती से निवेदन किया
अब तुम्ही शरण दो माँ दु:ख सहा नहीं जाता ।
इन कदमों से अब चला नहीं जाता ।
जो लोग पलकों पर लिए चलते थे
मुझे उनके ओसारे में इतनी जगह न बची मेरे लिए
अब कहाँ जाऊँ तुम्हारी गोद के सिवा ...!
धरती ने कहा तुम्हारा दुख बड़ा है
लेकिन मैं क्या करूँ जहां से आई हो वहीं लौट जाओ
जो मै तुमको अपनी गोद मे रख लूँगी
तो ऊसर हो जाऊँगी
और मित्रो इसके आगे जो हुआ
वह किसी किस्से मे नहीं है ।
हुआ यह की सब ओर से निराश हो
सोनचिरई बैठ गई एक नदी के किनारे ।
एक दिन गुज़रा
दो दिन गुज़रा
तीसरे दिन तीसरे पहर तक
एक सजीला युवक प्यास से बेहाल नदी तट पर आ मिला ।
उसने सन चिरई को देखा ....!
सोनचिरई को देख
पल भर के लिए वह सब कुछ भूल गया ।
उसने विह्वल हो नरम स्वर में
सोनचिरई के दुख का कारण पूछा
और सब कुछ जान लेने पर
अपने साथ चलने का निवेदन किया ।
सोनचिरई पल छिन हिचकी
फिर उसके साथ साथ हो ली ।
फिर उसके साथ पूरी उम्र जी कर
जब वह मरी तो
आंसुओं से ज़ार ज़ार
उसके आठ बेटों ने उसकी अर्थी को कंधा दिया ।
सोनचिरई आठ बेटों की माँ थी
वह स्त्री थी
और स्त्रियाँ कभी बांझ नहीं होती
वे रचती हैं तभी हम आप होते हैं
तभी दुनिया होती है 
रचने का साहस पुरुष में नहीं होता
वे होती हैं तभी पुरुष होते हैं ।

और ये वो सोहर है 

सासू कहे बहू बाझिन ननद निर्बंसिन हो 
बहिनी जेकरा प्राणपियारी उहो कहै बाझिन, निकरि जा तू घर से हो

घरा मे से निकरी तिरियवा जंगल बीच रोवे 
बहिनी केहू यहि जंगल मे होतै हमै खाई लेतै 
हमहि मरि जाइत हो 
जंगल से निकरी बघिनिया त दुख सुख पूछेई हो 
बहिनी कवन संकट तोहरे जियरा बिरहि बहु रोवहु हो 
सासू कहे बहु बाझिन ननद निर्बंसिन हो 
बहिनी, जेकरा के प्राणपियारी उहो कहे बाझिनी हो

जाऊ न रानी घर अपने तोहे हम न खाबै हो 
रानी तोहरी मसुइया खबई हमहु बाझिन होबै हो 
उहवा से उठनी तिरियवा भिटेह बीच रोवई हो 
अरे के यह भिटवा के मालिक हमहि डसी लेते 
त मरि गड़ी जाइत हो 
भिटवा से निकरी नगीनिया त दुख सुख पुछई हो
सासू कहे बहु बाझिन ननद निर्बंसिन हो 
बहिनी, जेकरा के प्राणपियारी उहो कहे बाझिनी हो 
तुही मोरी रानी से रानी तुही हऊ बाझिनि
रानी जौ हम तोहका डसी लेबइ त 
हमहु बाझिन होबइ हो॥ 
उहवा से उठनी तिरियवा नैहर बीच ठाढ़ भईं 
अरे कहाँ हईं माई हमार विरह दुख रोइत हो 
घरा मेसे निकरी जे माई त दुख सुख पुछई हो 
सोना कवन संकट तोहरे जियरा अकेले चलि आइव॥
सासू कहे बहु बाझिन ननद निर्बंसिन हो 
बहिनी, जेकरा के प्राणपियारी उहो कहे बाझिनी हो॥ 
तूही मोरी सोना बिटियावा तूही हऊ बाझिनि हो 
बेटी हमरी दुवरिया जे नघबू त बहुअवा बाझिनी होवई हो
उहवा से उठनी तिरियवा धरती दुख रोवइ मइया 
जौ तू फाटी जातू तो तोहमे समाइति हो 
धरती से बोलाईं धरती माई
बेटी कौन विरोग तोहरे जियरा बिरह यतना रोवऊ हो 
काऊ कही मोरी माई कहत नहीं अवइ हो 
माई एकै बलकवा की कारन देसवा निकारी गये 
जाऊ न बेटी घर अपने तोहईं हम न लेबई हो 
ज तोहई हम लेबई त हमहू बाझिनी होबई हो 
उहवा से उठनी तिरियवा गंगा बीचे रोवइ हो 
गंगा ......

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