ये
आतुर कंठ, ये उन्मुक्त साँसे, ये
चटके से सपने, ये हाथों में
अंजुरी भर के कोलाहल और दीप्त सी आँखों में भयावह अँधेरे - शायद चलाचली की बेला है
और थम रहा है सब कुछ, धूरी पर घूमती
अवनी के किसी कोने में गोल अब ठोस तिकोन में बदल गया है और यह व्यथा ख़त्म होकर अपने ही बनाए संताप में घूम घूमकर, चक्कर लगाकर थक गयी
है........तिमिर है, कही बियाबान, कही फाका और कही नवनीत, यही कही उद्दाम वेग से
प्रचंड होती शास्त्रों की ऋचाएं, देखो, देखो........सुनो, सुनो.......इन्हें महसूस करो और फिर कहो... असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय ........
छोड़ा
तो कुछ नहीं था पाने के लिए और पाने के बाद सब कुछ छुट गया, ना अपना रहा कुछ, ना कुछ अपना सा
भ्रम देने वाला, बस बीत रहा है सब कुछ और अस्ताचल का सूर्य ठीक सामने है और दूर
कही एक तारा टिमटिमा रहा है , किसी क्षितिज से चाँद की रोशनी छन कर निकल रही है और ठीक इसी
समय एक सांस बेचैन है टूट जाने को और व्योम में मिल जाने को....
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