"निठल्ला " ******** यकीन नहीं होता कि सब बदल जाता है जैसे कोई मानेगा कि अभी दस दिन पहले पानी बरसा था ! और अब ये प्रचंड वेग से आती रश्मि किरणें जैसे कभी मिले थे पहाड़ी पर ओंस जैसे अब दरक रहे है पत्थर और लोहे की जालियों से बंधे पर नहीं रुक रहा इनका पात ! ये कैसा प्रचलन है और कैसा समय सब कुछ बदला सा और फिर लगता ठहरा हुआ सा सन्न हूँ , आक्षेपित और अधूरा सा अपने अंदर महसूसता हूँ एक निर्वात और खोज लाता हूँ तुम्हारी याद जो अब संबल नही विक्षोभ भर देती है, कलुषित कर देती है और मैं इसे प्रेम की संज्ञा दे इठला जाता हूँ अपने होने और खत्म हो रहे समय के द्वन्दों में कहता हूँ कि प्रेम में पगा आदमी रत्तीभर भी काम का नही।
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