हर
पुष्प विगलित होता है। पतझड़ के पते पर वसंत की पाती। हर मणि को अनंत
काया का शाप मिला होता है। किंतु श्रेष्ठतम मणियां भी अपने स्वप्न में
पद्म हो जाना चाहती हैं।
राग-रुधिर की एक पताका।
तुम भी तो पद्म थे, सुमुख। विहंसता रूप, अपूर्व कांति। (सब कुछ झरता है!)
किंतु तुम दीप-धूम की भांति अपने रूप के भीतर बसे उस निवीड़ तम को एकटक
देखते रहे। तुम्हारा यों एकटक देखना हमारे भीतर ठहर गया है।
तुम्हारे नेत्रों में जाने कितने निमिषों का दाह है। तुम हमारे वसंतों के
हृदय में संध्यावेला की भांति ठहर गए हो, पद्मपाणि। हम रूप-बद्ध, रूप-हत,
आंखें मलते हैं।
Courtesy - Sushobhit Saktawat
हर
पुष्प विगलित होता है। पतझड़ के पते पर वसंत की पाती। हर मणि को अनंत
काया का शाप मिला होता है। किंतु श्रेष्ठतम मणियां भी अपने स्वप्न में
पद्म हो जाना चाहती हैं।
राग-रुधिर की एक पताका।
तुम भी तो पद्म थे, सुमुख। विहंसता रूप, अपूर्व कांति। (सब कुछ झरता है!) किंतु तुम दीप-धूम की भांति अपने रूप के भीतर बसे उस निवीड़ तम को एकटक देखते रहे। तुम्हारा यों एकटक देखना हमारे भीतर ठहर गया है।
तुम्हारे नेत्रों में जाने कितने निमिषों का दाह है। तुम हमारे वसंतों के हृदय में संध्यावेला की भांति ठहर गए हो, पद्मपाणि। हम रूप-बद्ध, रूप-हत, आंखें मलते हैं।
Courtesy - Sushobhit Saktawat
राग-रुधिर की एक पताका।
तुम भी तो पद्म थे, सुमुख। विहंसता रूप, अपूर्व कांति। (सब कुछ झरता है!) किंतु तुम दीप-धूम की भांति अपने रूप के भीतर बसे उस निवीड़ तम को एकटक देखते रहे। तुम्हारा यों एकटक देखना हमारे भीतर ठहर गया है।
तुम्हारे नेत्रों में जाने कितने निमिषों का दाह है। तुम हमारे वसंतों के हृदय में संध्यावेला की भांति ठहर गए हो, पद्मपाणि। हम रूप-बद्ध, रूप-हत, आंखें मलते हैं।
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