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यह जीवन की अमरबेल...........

यह एक लंबी उलझी सी और ना जाने कहाँ कहाँ गुंथी हुई सी श्रापित बेल है पीली सी जर्द और लगातार बेताबी से पेड़ के तने से लिपटती हुई और ना जाने किस आसमान को छूने को उत्सुक और तत्पर, सदियों से ज़माना कहता आया कि ये मुई परजीवी है और ना अपनी पहचान, ना अस्मिता- बस दूसरों के आश्रय पर युगों से श्रापित जीवन लिए जिए जा रही है, अपने आप से दूर और बगैर जीवन की कोई अभिलाषा लिए कैसे कोई एक लंबा हिस्सा जी लेता है और वो भी सिर्फ परजीवी होकर, कितना सरल और सहज रास्ता है यह भी.... ना किसी की परवाह, न डर, न भय, न संताप, न तनाव , न अवसाद और न कुंठा. बस उन्मुक्त और सबकी छोड़कर अपनी ही मन की करते जाना और बेफिक्री से जीवन जीना और बढ़ते जाना.........मोहल्लों के अवागर्द  पेड़-पौधों से लेकर जंगल की लंबी कतारों में उगे पेड़ों पर अपना परजीवी जीवन जीने को अभिशप्त यह बेल बढ़ रही है इन दिनों यहाँ-वहाँ .......मै देख रहा हूँ कि ये बेल उग आयी है एकदम से इस सुनसान में और अपने पीलेपन के उजास में सर्वत्र पीला- पीला सा आच्छादित कर रही है सम्पूर्ण हरेपन को ढांककर ये पीलापन घुसता चला जा रहा है- जीवन के इस निविड़ में घटाटोप अँधेरे में ये चमकता पीलापन झाँक रहा है पूरी बेशर्मी  से, हंसती हुई ओंस की बूंदों में भी और एक भयावह संकेत कर रहा है यह पीलापन कि अब ओंस की बूँदें भी शायद ना बचे इस जर्द पीलेपन से और घूस आये ये श्राप वहाँ भी और फ़िर धीमे- धीमे फ़ैल जाये सब ओर....... हर कही और ढांक ले अपनी  परजीविता से  सम्पूर्ण सृष्टि को और बस फ़िर सब ओर सिर्फ और सिर्फ हो यह जीवन की अमरबेल...........

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