सुबह बात की थी तुमसे, जो आवाज सात समंदर पार से आ रही थी वो बेहद साफ़ थी पर मेरी आवाज काँप रही थी और मै सोच रहा था कि कैसे कह दूँ कि सब कुछ ठीक नहीं है, अभी हाल ही में मैंने अपनी सारी जांचें करवाई है और तुम्हे किसी अँधेरे में नहीं रखना चाहता- बस सिर्फ इतना कहना है कि ये सब बहुत नकारात्मक है और जीवन के और सत्य के बीच बस सिर्फ दो और दो उँगल का ही फासला है, शेष-अशेष के बीच झूलता यह सब कुछ बस होने को है भी और नहीं भी....लगता है रूह काँप रही है यह कहने में, चाहता तो सब कुछ कह देता उसी झीनी आवाज में लरजते हुए, पर अभी तक सिर्फ गरज कर बातें की है और जीवन के इस कमजोर और भावुक क्षण में मै एक बार से कमजर्फ होकर यूँ तुम्हे सब बताना नहीं चाहता था. पर सच तो सच है आज नहीं तो कल यह सामने आएगा ही बस फर्क इतना होगा कि मेरे बाद तुम्हे कुछ और लोग बताएँगे यह दास्ताँ और कहेंगे कि तरसता रहा आख़िरी तक कि कह देता, एक बार देख लेता!!! पर अब कहना नहीं है कुछ और शायद इसलिए मै हमेशा टालता रहा कि ना बात करू, ना कहू, कुछ अपनी, आज जब तुम कह रहे थे अपने बारे में उस विशालकाय जीवन और स्वर्गातिक माहौल के बारे में तो लगा कि चलो तुम उस मकाम पर पहुँच गये हो जहां तुम्हे होना था, तुमने कहा था कि यहाँ सब बहुत श्रेष्ठ है यहाँ का जीवन एक स्वप्न के मानिंद है और इसे जीना एक शताब्दी को जीना है, अपनी फिटनेस और अपने दैनंदिन कामों का जिक्र जब तुम कर रहे थे तो मै सहेज रहा था अपने हिस्से का दुःख और यहाँ -वहाँ बिखरे जीवन के चंद चीथड़े और फ़िर उस सब के बारे में सोचता रहा उन बातों का स्मरण करने लगा जो हमें किसी एक उजले स्वरुप और जीवनाभुनावों के बारे में बताती थी, उन बादलों बनाते बिगडते रंगों के बारे में सोचा जों हम पर से गुजर कर पानी की दो नन्हीं बूंदे हम पर गिरा गये थे, उन फूलों के बारे में सोचा और उन ओंस की बूंदों को याद किया जों बहुत गहरी प्यास को भी सिर्फ छूने भर से बुझा गई थी, उन पेड़ों को याद किया जिनके नीचे बैठकर जीवन जीने के नए तरीकों के बारे में हम बात करते थे, तुमने जाने के पहले मुझे कुछ स्वप्न और तरीके भी बताए थे कि शायद अब जीवन में तुम वो सब ना दे पाओगे जों अभी तक देते रहे थे और इसलिए मुझे अपना पथ चून लेना चाहिए पर ऐसा होता है क्या...........? बस ग्यारह मिनिट बत्तीस सेकण्ड कब निकल गये और मै भूल गया कि तुमने कहा था कि इतना समय नहीं कि झगडा कर ले अभी......बस अपने इस एकाकीपन और तन्हाई से आजीज आ गया हूँ और इन सारी जांचों ने, जों खून की एक-एक बूँद को जों मेरे शरीर के हर हिस्से से बहुत सघन प्रक्रिया से निकाल कर की गई थी, ने एक बार याद दिला दी है कि मै..........तुम....ये सब और आख़िरी में जीवन का सच कहू या सत्व मुझे नहीं पता ......बस अन्धेरा बहुत है और मेरा रोशनदान कोई दूर ले गया है मुझसे, सूरज अब बहुत दूर हो गये है मेरे और अपने ही अंधेरों में गुम. मै बस यहाँ हूँ इस नदी के किनारे, इस नदी पर चीखते हुए लोगों के बीच, इस नदी पर अपने अधिकारों और जीवन के लिए जमीन के एक छोटे से टुकड़े की लड़ाई लड़ते हुए लोगों के बीच, इस नदी के द्वीप पर बेहद शांत, स्थिर और तटस्थ लगभग एक क्षण में हजार योनियों के जीवन को जीता हुआ कि बस अब मुक्ति मिली कि तब...........( नर्मदा के किनारे से बेचैनी की कथा IX)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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