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हिंदी कविता का छत्तीसगढ़

हिंदी कविता का छत्तीसगढ़

१ मई २०१० को महेश वर्मा से परिचय शुरू हुआ था. तब आलोक पुतुल के रविवार और शिरीष के अनुनाद पे छपी मेरी कविताओं की बात करता हुआ एक ई- मेल आया था. रविवार पे उससे पहले उनकी कवितायेँ भी आयी थी जो उनके बताने से पहले मेरे देखने से चूक गयी थीं. वहां कवितायेँ पढ़ते ही मैंने उनसे प्रतिलिपि के लिए मांगीं . अगस्त २०१० से वे १३ कविताएँ मेरे पास स्वीकृत पडी हैं. इस दौरान उनकी कवितायेँ धीरे धीरे प्रकाशित होने लग गयी हैं. ग्वालियर में उनसे मिलना भी हुआ. और पिछले कुछ महीनों में उनके ‘परस्पर’-आतंक का सामना भी हो ही रहा है.

महेश के बारे में यह कहना गलत होगा कि उनकी तरफ ध्यान नहीं गया आदि वे खुद आलसी और टालू जो रहे खुद उनके शब्दों में. यूं भी आप किसी शीर्षस्थानीय टाईप पर २० पेज लिखने को तैयार है तो वह भी आप पर २० पेज लिख ही देगा वाले माहौल में ध्यान नहीं जाना या किसी के काम के बारे में चीख पुकार नहीं मचाया जाना उसे ज्यादा विश्वसनीय ही बनाता है यह सबक समझ आ रहा है.

अभी एक सुखद संयोग से उनकी पूरी पाण्डुलिपि पढ़ रहा हूँ तो अपने जैसा-तैसा कवि होने का संत्रास तो लौट ही रहा है उनके कवित्त के उपलब्ध कराये सुख और तनाव का संतोष भी कम नहीं है. महेश हिंदी कविता का छत्तीसगढ़ हैं, अपने बारे में दूसरों की अटकलों से बेपरवाह: जीवन और कला की अपने ढंग से बहती एक नदी, अपने ढंग से होता हुआ एक आदिवास. चित्र क्लेरिसा अपचर्च का है, यहाँ से साभार.

मेरे पास

मेरे पास जो तुम्हारा ख़याल है

वह तुम्हारे होने का अतिक्रमण कर सकता है

एक चुप्पी जैसे चीरती निकल सकती हो कोलाहल का समुद्र

मैं एक जगह प्रतीक्षा में खड़ा रहा था

मैं एक बार सीढीयां चढ़कर वहाँ पहुंचा था

मैंने बेवजह मरने की सोची थी

मैंने एकबार एक फूल को और

एकबार एक तितली के पंख को ज़मीन से उठाया था

मैं दोपहरों से वैसा ही बेपरवाह रहा था जैसा रातों से

मैं रास्ते बनाता रहा था और

मैं रास्ते मिटाता रहा था – धूल में और ख़याल में

इन बेमतलब बातों के अंत पर आती रही थी शाम

तुम्हारा एक शब्द मेरे पास है

यह किसी भी रात का सीना भेद सकता है और

प्रार्थनाघरों को बेचैन कर सकता है

सिवाय अँधेरे के या गुलामी के पट्टे के

इसे किसी और चीज़ से नहीं बदलूँगा

इसे दोहराता हूँ

कि जैसे मांज के रखता हूँ चमकदार !

तुम्हारी बात

और जबकि किसी को बहला नहीं पाई है मेरी भाषा
एक शोकगीत लिखना चाहता था विदा की भाषा में और देखो
कैसे वह रस्सियों के पुल में बदल गया

दिशाज्ञान नहीं है बचपन से
सूर्य न हो आकाश में
तो रूठकर दूर जाते हुए अक्सर
घर लौट आता हूँ अपना उपहास बनाने

कहाँ जाऊँगा तुम्हें तो मालूम हैं मेरे सारे जतन
इस गर्वीली मुद्रा के भीतर एक निरुपाय पशु हूँ
वधस्थल को ले जाया जाता हुआ

मुट्ठी भर धूल से अधिक नहीं है मेरे
आकाश का विस्तार – तुम्हें मालूम है ना ?

किसे मै चाँद कहता हूँ और किसको बारिश
फूलों से भरी तुम्हारी पृथ्वी के सामने क्या है मेरा छोटा सा दुख ?

पहले सीख लूँ एक सामाजिक भाषा में रोना
फिर तुम्हारी बात लिखूँगा

पूर्वज कवि

पूर्वज कवि आते हैं
और सुधार देते हैं मेरी पंक्तियाँ
मैं कहता हूँ कि हस्ताक्षर कर दें जहाँ
उन्होंने बदला है कोई शब्द या पूरा वाक्य

होंठ टेढ़ा करके व्यंग्य में मुस्काते
वे अनसुनी करते हैं मेरी बात

उनकी हस्तलिपि एक अभ्यस्त हस्तलिपि है
अपने सुन्दर दिखने से बेपरवाह
और तपी हुई
कविता की ही आँच में

सुबह मैं ढूँढ़ता उनके पदचिन्ह ज़मीन पर
सपनों पर और अपनी कविता पर

फुर्र से एक गौरय्या उड़ जाती है खिड़की से

पहला

आप पहले कवि हैं इस भाषा के
आप पहले स्वतंत्रता-सेनानी
आप पहले कमीने हैं इस क्षेत्र के
आप पहले ग्रेजुएट, आप पहले दलाल

पृथ्वी की पहली आवाज़ के स्यादवाद से
अधिक हास्यास्पद हैं ऊपर लिखे वाक्य

क्योंकि हम इतने बीच में हैं इस सब के
कि हम जानते हैं
कि किसी भी चीज़ की शुरुआत के बारे में
हम कुछ नहीं जानते
मसलन यह सड़ा हुआ प्याज
जो कुचला गया हमारी हवाई-चप्पल से
हम नहीं जानते इसकी शुरुआत — प्याज की
सड़न की
चप्पल की
चलने की
यह इतिहास का प्रश्न नहीं है न पुरातत्त्व का
कार्बन-परीक्षण के दशमलवांकित आँकड़ों से अलग
यह झूठ की भाषा का पहला शब्द हो शायद

शुरुआत एक मोहक शब्द है लेकिन अर्थहीन
इसका अलंकारिक महत्त्व है झूठ की और झुका हुआ

पीठ

अनंत कदमों भर सामने के विस्तार की ओर से नहीं

पीठ की ओर से ही दिखता हूँ मैं हमेशा जाता हुआ।

जाते हुए मेरी पीठ के दृश्य में

पूर्वजों का जाना दिखता है क्या ?

तीन कदमों में तीन लोक नापने की कथा

रखी हुई है कहीं, पुराने घर के ताखे में।

निर्वासन के तीन खुले विकल्पों में से चुनकर

अपना निर्विकल्प, अब मैं ही था सुनने को

निर्वासन के आत्मगत् का मंद्रराग।

यदि धूप और दूरियों की बात न करें हम

जाता हुआ मैं सुंदर दिखता हूँ ना ?

इसी के आलोक में

एक रिसता हुआ घाव है मेरी आत्मा

छिदने और जले के विरूद्ध रचे गए वाक्यों

और उनके पवित्र वलय से भी बाहर की कोई चीज़।

एक निष्ठुर ईश्वर से अलग

आंसुओं की है इसकी भाषा और

यही इसका हर्ष

कहां रख पाएगी कोई देह इसको मेरे बाद-

यह मेरा ही स्वप्न है, मेरी ही कविता,

मेरा ही प्रेम है और इसीलिए-

मेरा ही दुःख।

इसी के आलोक में रचता हूँ मैं यह संसार

मेरे ही रक्त में गंजती इसकी हर पुकार

मेरी ही कोशिका में खिल सकता-

इसका स्पंदन

मक्खियाँ

अगर हमें फिर से न पढ़नी पड़तीं वे किताबें,

बच्चों को पढ़ाने की खातिर,

तो अब तक हम भूल ही चुके होते उन गंदी जगहों के विवरण

जहां से मक्खियों के बैठकर आने का भय दिखाते हैं-

सदा स्वस्थ लोगों के

शाश्वत हँसते चित्र।

वे चाहें तो हमें इतना परेशान कर दें

कि थोड़ी देर को छोड़कर वह ज़रूरी काम

हम सोचने लगे

नुक्कड़ से चाय-सिगरेट पीकर आने के बारे में।

और जहां-

सोचना भी मुश्किल गुड़, जलेबी,

नाली और घूरे के बारे में।

मुस्कुराते और गुरगुराते एयर कंडीशनरों वाले

कांच से घिरे गंभीर दोस्त के कमरे में-

उन्हें देखा जा सकता है उड़ते

उदास सहजता की पुरानी उड़ान में।

और उनके दिखने पर थोड़ी अतिरिक्त जो

दोस्त की प्रतिक्रि़या है- उससे आती हँसी को-

ढाल देते हम

उसके नौजवान दिखने की खुशामद में।

भाषा लेकिन भूल गया था

निर्विवाद थी उसकी गंभीरता इसीलिये

भय पैदा कर लेती थी हर बार-

मुझे भी डर लगा उस रात जब गंभीरता से कहा दोस्त ने

कम होती जा रही हैं गौरय्याँ हमारे बीच।

उम्मीद की तरह दिखाई दी

एक गौरया दूसरी सुबह, जब

दुःस्वप्नों की ढेर सारी नदियाँ तैरकर

पार कर आया था मैं रात के इस तरफ।

मैंने चाहा कि वह आए मेरे कमरे में-

ताखे पर, किताबों की आलमारी पर,

रौशनदान पर,

आए आंखों की कोटर में, सीने के खोखल में,

भाषा में, वह आए और अपना घोसला बनाकर रहे।

मैंने चाहा कि वह आए और इतने अंडे दे

कि चूज़े अपनी आवाज़ से ढक दें-

दोस्त की गंभीर चिंता।

इतने दिनों में उसे बुलाने की

भाषा लेकिन मैं भूल गया थ

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