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एक भाषा हुवा करती है
जिसमें जितनी बार मैं लिखना चाहता हूँ 'आंसू' से मिलता - जुलता कोई शब्द
हर बार बहने लगती है रक्त की धार
एक भाषा है जिसे बोलते वैज्ञानिक और समाजविद और तीसरे दर्जे के जोकर
और हमारे समय की सम्मानित वेश्याएं और क्रन्तिकारी सब शर्माते हैं
जिसके व्याकरण और हिज्जे की भयावह भूलें ही
कुलशील, वर्ग और नस्ल की श्रेष्ठता प्रमाणित करती हैं
बहुत अधिक बोली - लिखी, सुनी - पढ़ी जाती,
गाती - बजाती एक बहुत कमाऊ और बिकाऊ बड़ी भाषा
दुनिया के सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर, सबसे गरीब और सबसे खूंखार,
सबसे काहिल और सबसे थके - लूटे लोगों की भाषा
अस्सी करोड़ या नब्बे करोड़ या एक अरब भुक्खड़ों, नंगों और गरीब, लफंगों की जनसँख्या की भाषा
वाह भाषा जिसे वक़्त जरुरत तस्कर, हत्यारे, नेता, दलाल, अफसर, भंडुवे, रंडिय और कुछ जुनूनी नौजवान भी बोला करते हैं
वाह भाषा जिसमें लिखता हुवा हर इमानदार कवि पागल हो जाता है
आत्मघात करती हैं प्रतिभाएं
'ईस्वर' कहते ही आने लगती है जिसमें बारूद की गंध
जिसमें पान की पिक है, बीडी का धुवाँ, तम्बाकू का झार,
जिसमें सबसे ज्यादा छपते हैं दो कौड़ी के महंगे लेकिन सबसे ज्यादे लोकप्रिय अख़बार
सिफत मगर यह कि इसी में चलता है कद्ब्रिज, सन्डे का तेल, सुजुकी, पिजा, आटा डाल और
स्वामी जी और है साहित्य और सिनेमा और राजनीति का सारा बाजार
एक हौलनाक विभाजन रेखा के नीचे जीने वाले सत्तर करोड़ से ज्यादा लोगों के
आंसू और पसीने और खून से लिथड़ी एक भाषा
पिछली सदी का चिथड़ा हो चूका डाकिया अब भी जिसमें बांटता है
सभ्यता के इतिहास की सबसे असभ्य और सबसे दर्दनाक चिठियाँ
वह भाषा जिसमें नौकरी की तलाश में भटकते हैं भूखे दरवेश
और एक किसी दिन चोरी या दंगे के जुर्म में गिरफ्तार कर लिए जाते हैं
जिसकी लिपियाँ स्वीकार करने से इंकार करता है इस दुनिया का समूचा सुचना संजाल
आत्मा के सबसे उत्पीडित और विकल हिस्से में जहां जन्म लेते हैं शब्द
और किसी मलिन बस्ती के अथाह गूंगे कुवे में डूब जाते हैं चुप चाप
अतीत कि किसी कन्दरा से एक अज्ञात सूक्ति को अपनी व्याकुल
थरथराहट में थामें लौटता है कोई
जीनियस
और घोषित हो जाता है सार्वजानिक तौर पर पागल
नस्ट हो जाती है किसी विलक्षण गणितज्ञ कि स्मृति
नक्षत्रों को शताब्दियों से निहारता कोई महान खगोलविद भविष्य भर के लिए अँधा हो जाता है.
सिर्फ हमारी नीद में सुनाई देती रहती है उसकी अनन्त बड़बड़ाहट...
मंगल...शुक्र...वृहस्पति...
सप्तर्षि...अरुंधती...ध्रुव...
हम स्वप्न से डरे हूवे देखते हैं टूटते उल्का पिंडों कि तरह
उस भाषा के अन्तरिक्ष से
लूटप होते चले जाते हैं एक - एक कर सारे नक्षत्र
भाषा जिसमें सिर्फ कुल्हे मटकाने और स्त्रियों को
अपनी छाती हिलाने की छुट है
जिसमें दंडनीय है विज्ञानं और अर्थशास्त्र और शासन- सत्ता से सम्बंधित विमर्श
प्रतिबंधित है जिसमें ज्ञान और सुचना की प्रणालिया वर्जित है विचार
वह भाषा जिसमें की गई प्रार्थना तक
घोषित कर दी जाती है साम्प्रदायिक
वही भाषा जिसमें किसी जड़ में ले अब भी करता भी तप कभी - कभी कोई शम्बूक
और उसे निशाने की जड़ में ले आती है हर तरह की सत्ता की ब्रम्हाण बन्दुक
भाषा जिसमें उड़ते हैं वयुवानो में चापलूस
शाल ओढ़ते हैं मसखरे, चाकर टांगते हैं तमगे
जिस भाषा के अंधकार में चमकते हैं किसी अफसर या हुक्काम या किसी पण्डे के सफ़ेद दांत और
तमाम मठों पर न्युक्त होते जाते बर्बर बुलडाग
अपनी देह और आत्मा के घावों को और तो और अपने बच्चे और पत्नी तक से छुपता
राजधानी में कोई कवि जिस भाषा के अंधकार में
दिन भर के अपमान और थोड़े से आचार के साथ
खाता है पिछले रोज की बची हुई रोटीयां
और मृतु के बड़ पारिश्रमिक भेजने वाले किसी रास्ट्रीय अख़बार या मुफ्तखोर प्रकाशक के लिए
तैयार करता है एक और नई पाण्डुलिपि
या वही भाषा है जिसको इस मुल्क में हर बार कोई शरणार्थी, कोई तिजारती. कोई फिरंगी
अटपटे लहजे में बोलता और जिसके व्याकरण को रौदता
तालियों की गडगडाहट के साथ दाखिल होता है इतिहास में
और बाहर सुनाई देता रहता है वर्षों तक आर्तनाद
सुनो दायोनीसियस, कान खोलकर सुनो
यह सच है कि तुम विजेता हो फ़िलहाल, एक अपराजेय हत्यारे
हर छठे मिनट पर तुम जीभ काट देते हो इस भाषा को बोलने वाली एक और जीभ
तुम फ़िलहाल मालिक हो कटी हुई जीभों, गूंगे गुलामों और दोगले एजेंटों के
विरत संग्रहालय के
तुम स्वामी हो अन्तरिक्ष में तैरते कृतिम उपग्रहों, ध्वनी तरंगों,
संस्कृतियों और सूचनाओं
हथियारों और सरकारों के
यह सच है
लेकिन देखो,
हर पांचवे सेकण्ड पर इसी पृथ्वी पर जन्म लेता है एक और बच्चा
और इसी भाषा में भरता है किलकारी
और
कहता है - ''माँ''
(हंस, जनवरी 2006 अंक में प्रकाशित)
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