"To A Friend's House the Road is Never Long"
2010 -11 का समय था और हम अपने कैरियर के मध्य में थे, अचानक हम लोगों को एक मौका मिला और "टाटा सामाजिक संस्थान, मुंबई" में पढ़ाई करने के लिए हम लोग चले गए, टाटा सामाजिक संस्थान समाज विज्ञान के क्षेत्र के लिए एक स्वर्ग है और इस क्षेत्र में काम करने वाले हर व्यक्ति को लगता है कि अगर यहां पर नहीं पढ़ा तो क्या खाक जीवन जिया और यहां से पढ़ने वाले को लगता है कि उसको जो आता है या उसकी जो समझ है - उसके आगे पूरी दुनिया मूर्ख है
यूँ तो हम दशकों से समाज विज्ञान का काम कर रहे थे, समाज में जीवन्त लोगों के साथ काम कर रहे थे, समुदाय के साथ काम कर रहे थे - परंतु वहां पर जाकर डॉक्टर परशुरामन (जो निदेशक थे ), प्रदीप प्रभु से लेकर शिराज, डॉ रामकुमार, प्रोफेसर पुष्पेंद्र, प्रोफेसर नसीम, प्रोफ़ेसर अश्विनी कुमार, डॉक्टर पदमा सारंगपाणी और तमाम तरह के लोगों के साथ जो हमने चर्चा की, समूह में गम्भीरता से काम किया, और फील्ड एक्सपोजर में नई समझ के साथ लोगों के साथ बातचीत करके सीखा - वह अपने आप में ना मात्र अनूठा था, बल्कि ज़्यादा विश्वसनीय था - क्योंकि जमीनी स्तर पर काम करना और उसके पीछे के सिद्धांतों और परिकल्पनाओं पर अकादमिक अध्ययन करके लिखने - पढ़ने का कौशल और दक्षता विकसित करना सर्वथा भिन्न था और टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान के प्राध्यापकों ने और देश भर के अलग-अलग लोगों ने उस लम्बे आवासीय प्रशिक्षण में हमें जो सीखाया - वह अपने दैनिक जीवन और व्यवसायिक काम के साथ संतुलन करके विचारधारा, कानून, सिद्धांत और परिकल्पनाओं को आपस में बहुत खूबसूरती से जोड़ता था
इस दौरान हमने अमर्त्य सेन से लेकर तमाम तरह के कानून और दुनिया भर की खूबसूरत किताबें पढ़ी - जिसमें बदलाव और विकास का परस्पर और समानुपातिक संतुलन था
प्रशिक्षण के उपरांत हम सब लोग देश के कोने-कोने में बिखर गए और उसके बाद मिलना नहीं हो पाया, मध्यप्रदेश की कुछ साथियों से जरूर में दो-चार बार मिला, कभी छत्तीसगढ़ गया, कभी उड़ीसा गया, कभी राजस्थान, कभी दिल्ली, कभी कर्नाटक, कभी बिहार या झारखण्ड और कभी मुंबई तो गाहे - बगाहे इस गैंग के मित्रों से मिलना हुआ, परंतु व्यवस्थित रूप से मिलना बहुत कम हो पाया, फोन से अभी सम्पर्क में हूँ
अभी थोड़े दिन पहले जयंत मुंशी का कोलकाता से फोन आया कि मैं मध्यप्रदेश आ रहा हूँ, वे आजकल कोलकाता में "केरिटास" नामक एक संस्था के प्रभारी हैं और आजीविका, गरीबी उन्मूलन और विकास से जुड़े मुद्दों पर काम करते हैं ; जयंत मुंशी ने लंबे समय तक पश्चिम बंगाल, असम, उड़ीसा, राजस्थान और झारखंड में काम किया है और देश के लगभग हर हिस्से में घूमकर विकास के पहलुओं का जायजा लिया है
जब जयंत ने कहा कि मैं मध्यप्रदेश आ रहा हूँ तो मैंने कहा कि - "कहीं भी आओ, मुझसे मिले बगैर गए तो गोली मार दूंगा, जयंत भाई पक्के थे वे कल खंडवा से सीधे देवास आए और हम लोग रात भर खूब गप्प करते रहे, खूब बात की, खूब सारे मुद्दों पर चर्चा हुई - घर - परिवार, एनजीओ के बदलते ट्रेंड, सरकार का रुख, एफसीआरए आदि-आदि, जयंत को मेरा बनाया हुआ खाना बहुत पसंद आया, बाद में हमने कुछ मित्रों से वीडियो कॉल पर बात की, आज सुबह जयंत को विदा किया - क्योंकि इंदौर से उनका हैदराबाद होते हुए कोलकाता का फ्लाइट था 11:00 बजे हम लोग लगभग तेरह वर्षों बाद मिले थे
यह एक दिन की मुलाकात इतनी अद्भुत और इतनी रोचक थी कि दोनों को पास कहने और सुनने के लिए बहुत कुछ था और समझने के लिए भी बहुत कुछ था, तेरह सालों में दुनिया इतनी बदल गई थी कि लगता है हम किसी 15 वीं या 16 वीं शताब्दी की बात कर रहे हैं और सुकून यह था कि हम लोग दिल से जुड़े हुए थे
एकमात्र दुख यह था कि हम सब लोग जो 50 - 55 की उम्र पार हैं - रात को वीडियो कॉल पर बात करते समय इंसुलिन के इंजेक्शन लगा रहे थे और भोजन कर रहे थे अफ़सोस कि समाज सेवा और एनजीओ सेक्टर ने हमें कुछ दिया हो या ना दिया हो - परंतु भरपूर तनाव और अवसाद जरूर दिए हैं और इतने कि सब लोग शुगर, ब्लड प्रेशर और हृदय की समस्याओं से बुरी तरह परेशान है - विशुद्ध रूप से इंसुलिन और दवाओँ पर जिंदा है और कब किसका बैंड - बाजा बज जाएगा - मालूम नहीं, मेरे से तीन साल छोटे है जयंत मुंशी
आज सुबह जब जयंत को विदा कर रहा था और बस तक छोड़ने गया तो आंखों में आंसू थे, दूर तक बस को जाते हुए देखता रहा और मुंबई - तुलजापुर में साथ बिताया हुआ समय रह - रहकर सामने आ रहा था, लग रहा था समय यही ठहर जाए क्योंकि अब जीवन में कब मिल पाएंगे - यह कहना मुश्किल है, हालांकि मैंने जयंत से वादा किया है कि मैं "शांति निकेतन" देखने जरूर आऊंगा, जीते जी एक बार वहां पर जाना है कूच करने से पहले और तब शायद जयंत से पुनः एक बार मुलाकात हो सके - उसकी प्यारी सी बिटिया से मिल सकूं, यह उम्मीद तो जिंदगी से कर ही सकता हूँ, जाते समय कुछ किताबें भेंट की जो शायद वह पढ़े कभी और अपने पास रख सके, जयंत की प्यारी सी बिटिया के लिए संविधान की दो किताबें दी हैं
गीत याद आया
"एक बार वक्त से लम्हा गिरा कही
वहां दास्ताँ मिली, लम्हा कहीं नहीं
आने वाला पल जाने वाला है
चाहो तो इसी में जिंदगी बिता दो
पल जो यह जाने वाला है"
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