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Drisht Kavi and Khari Khari - Posts of 30 Sept and 1 Oct 2023

"इसमें मेरी कविता छपी है, सोचा आपको पढ़वा दूँ फिर फोटो खींचकर फेसबुक पर लगा देता हूँ" - चाय पीने आया था लाईवा
"अबै क्या है यह "उपला जगत" पत्रिका, कौन निकालता है यह, 652 पेज में 437 तो विज्ञापन है सोमरस से लेकर संगम तेल के, 300 कवियों की कविताएँ है, 252 शायरों की नज़्में है और बाकी ना जाने कितनों के मुक्तक और छंद है - तू यह फेसबुक पर चैंपेगा तो पढ़ेगा कौन " - मैंने कहा
उदास हो गया, चाय का कप रख दिया और बोला - "दो हज़ार दिए थे छपवाने के और गणतंत्र दिवस की बधाई वाला विज्ञापन दिया था, अब गांधी जयंती पर अंक आया है भाई जी"
"निकल बै चमन बहार, यह काम विवि, महाविद्यालयों और हिंदी के पीजीटी के लिये छोड़ दें, वो हरामखोर दे सकते है दो हजार, तू साले शिफ्ट में नौकरी करने वाले क्यों कवि बना फिर रहा, भाग"
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हिंदी के शोधार्थियों की सारी क्रांति और विचारधारा ससुरी सरकारी नौकरी लगने तक रहती है, गाइड की पूजा-पाठ करने में जिंदगी गुजर जाती है, शोध तो कॉपी पेस्ट से हो जाता है, डिग्री भी गाइड दिलवा देता है यदि उनकी मैडम और बच्चों के फोटोज़ फेसबुक पर पेले हो तीन-चार वर्ष जमकर
यदि गाइड ने नौकरी लगवा दी तो शादी में बुलवा लेते है उसे खानदान सहित और डेढ़-दो साल झेलते है - उसके बाद खुद हिंदी के मठाधीश होकर रोज़ साहित्य के अंबेडकर बन मॉरल साइंसनुमा सँविधान पेलने लगते है - क्या कहते है ज्ञानी
जेएनयू , दिल्ली, जामिया, बीएचयू, मगा हिंदी वर्धा, इलाहाबाद, अलीगढ़, इंदिरा गांधी मुक्त, हैदराबाद, केरला, विक्रम, सागर हो या मोहनलाल सुखाड़िया या कोई और गली - मुहल्ले में लायसेंस लेकर डिग्री बेचूँ विश्व विद्यालय - हर जगह के हिंदी शोधार्थी की कमोबेश यही स्थिति है, इसलिये इसका सीधा असर साहित्य की विविध विधाओं और अपराधों में नजर आता है, वेब पेज पर छपने वाले कूड़े में नज़र आता है जो या तो माड़साब लोग्स निकाल रहे और कमा रहे विज्ञापनों से या अवसाद ग्रस्त वो लौंडे जिनका पीएचडी में कही भी चयन नही हुआ और वे नेट जेआरएफ तो दूर पटवारी भी नही बन पाए, विवि परिसरों में बड़े अनुष्ठानिक ढंग से व्यवस्थित तरीके से संचालित किए जाने वाले अपराधों की अलग की कहानी है और छपने - छपाने के उपक्रम श्रद्धा से किये जाते है, सोशल मीडिया में यह उछाल और गिरावट बदस्तूर जारी है और इन छर्रों का इसमें हर्षद मेहता या तेलगी की तरह पूरा हाथ होता है
ये दुख काहे कम नही होता बै
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◆ और कुछ तो नही पर देवास में जब टाटा इंटरनेशनल में चमड़े का काम जमकर होता था तो मजदूर से लेकर अधिकारी तक ठाकुर हुआ करते थे और मजदूर यूनियन भी ठाकुरों की थी, केरल के नम्बूदरीपाद ब्राह्मण और तमिलनाडु के नायर ब्राह्मण क्वालिटी कंट्रोल के हेड हुआ करते थे - हर शाम घर आकर, नहाकर इन्हें पूजा करते और शिव - शिव करते मैंने देखा है किशोरावस्था में और ये मुहल्ले में सफाई कर्मचारियों को छूते नही थे
◆ महू में जब आर्मी स्कूल में था तो फ़ौज की टेनरी में ठाकुर, वैश्य, कायस्थ, साहू, गुर्जर, जाट, जायसवाल, या पंजाबी कर्नल और ब्रिग्रेडियर्स को हाथ से गाय, भैंस की खाल उतारते देखा है - मुंह पर कपड़ा बांध करते थे सब काम बापड़े , एकलव्य हरदा के केंद्र में कई लोग चमड़े का काम करते थे डॉक्टर अनवर जाफरी की टेनरी में, और हरदा के संभ्रात लोग महू यही चमड़ा बेचने जाते थे, अनवर भाई ने पूरे जिले में मरे हुए मवेशियों की खाल निकालने के बाकायदा टेंडर लिए थे और ठेके पर काम करते थे
◆ अभी भी देवास में कई लोग है जो जूते बनाने का काम धंधे की तरह कर रहे है और पर्स से लेकर लेदर जैकेट आदि हाथों से बनाकर बेचते है
◆ धंधे, काम, रोजी - रोटी और जाति को कभी साथ रखकर मत देखना , मनोज झा और उसका भाई दोनो समाज कार्य के प्रोफ़ेसर है - ये दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल वर्क में था और इसका भाई टाटा सामाजिक संस्थान, मुंबई में है, ऊपर से बिहारी है - चालू तो है ही और इनकी मूल आदत ही स्कैंडल खड़ा करना है
◆ और वाल्मीकी जी की कविता अब एकदम अप्रासंगिक है जिन्हें यह कविता अभी भी लगती है वे बुद्ध के साथ ही खड़े रह गए है मित्रों
बाकी सब ठीक है
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