8 अक्टूबर महज तारीख नही है
अक्टूबर एक पीड़ा और संत्रास का भी महीना है, आज छोटे भाई का जन्मदिन होता था, डेढ़ साल छोटा था मुझसे, पिता की मृत्यु के समय बहुत छोटा था, शायद उसे जीवन - मृत्यु की समझ तो थी पर भान नही था कि इसके बाद क्या, उसे अपने भाई की तरह नही बेटे की तरह बड़ा किया था, हर जिद उसकी पूरी की और उसने मेरी, मेरे लिये वह ढाल था एक संकट मोचन की तरह हर समस्या का हल और मेरे होने का असली अर्थ
दिखने में सुंदर, गोरा, घुँघराले बाल, हष्ट-पुष्ट, ताक़तवर, स्वभाव से मृदुल, सबका सहयोगी और हर मामले में हम तीनों भाइयों में सबसे आगे, जब वह सायकिल चलाता तो देखने वाले काँप जाते थे, माँ, मुझे एवं बड़े भाई को लोग कहते कि "बाबा क्या सायकिल चलाता है उसे कहो कि धीरे चलाया करें', पर वो हवा पर सवार था उसे किसी की नही सुननी थी, एक दिन ना जाने किस दिशा में वह बहुत जल्दी ऐसा चला गया कि फिर लौटा ही नही - हम आज भी उसका इंतजार कर रहे हैं
एक फैक्ट्री में काम करता तो आधे घण्टे लंच की छुट्टी होती, पाँच किमी आना-जाना करता लंच में और पंद्रह मिनिट में खाना खाकर लौट जाता था, कभी लेट नही हुआ, पापा की जगह उसे सरकारी नौकरी लगवाई तो 60 किमी दूर पिपलरवां रोज जाता, बस में अपडाउन करने वाले उसकी जिंदादिली की तारीफ़ करते नही अघाते, कभी आकर कहा हो कि थक गया - याद नही पड़ता मुझे
जब 2003 में जब बीपी की शिकायत के बाद उसकी किडनी खराब होने लगी तो उसे तनाव नही था, क्योंकि हिम्मत थी उसमें लड़ने की - लम्बे इलाज के बाद जब डायलिसिस से लेकर बाकी दीगर इलाज शुरू हुआ तो साहसी और प्रसन्नचित्त बना रहा, आखिरी दिनों में उसे खून की जरूरत पड़ने लगी, कभी डोनर उपलब्ध नही हो पाता तो 3 और 4 MG / Ltr के हीमोग्लोबिन में भी वो घर लौट आता और हिम्मत करके दफ्तर जाता था, थोड़ी देर वहाँ रहता अपने स्टॉफ को नाश्ता, चाय- पानी करवाता, लोगों के काम की जो फाइलें पड़ी रहती उन्हें निपटाता और ठहाके लगाता फिर घर लौट आता, सितंबर 2014 उसके लिये भारी था, नवरात्रि के पहले यानी इन्हीं श्राद्ध पक्ष के दिनों में उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था इंदौर
अस्पताल की बेहद मुश्किल घड़ियों में रोज लड़ता, डाक्टर, दवाइयां, जाँच और अपने आप से, उसकी चीखें आज भी कानों में गूंजती है जब रीढ़ की हड्डी से किसी टेस्ट के लिये बोनमेरो निकाला जा रहा था बून्द - बून्द, पर हम सबको हिम्मत देता कि कुछ नही - दशहरा घर मनाएंगे, नवरात्रि के तीसरे दिन यानी 27 सितंबर को सुबह से ही हिम्मत हार गया था , मुझे कहता था - "कुछ भी हो जाये वेंटीलेटर पर मत रखना", सूर्यास्त के बाद हार गया, हम सबको बुलाकर बोला - "बहुत हो गया अब जाने दो और करीब 7 बजे के समय हम सबको छोड़ गया"
उम्र के बयालीसवें साल का जन्मदिन भी नही मना पाया, तब से अक्टूबर से दुश्मनी है, मई में पिता गए, जुलाई में माँ और अक्टूबर में भाई - सहोदर की लाश का कंधे पर बोझ संसार का सबसे बड़ा बोझ होता है
यह वही माह है जब हरसिंगार झरता है, रात-रानी फुलती है, मोगरे की सुवास चहूं ओर महकती है, गुलाब, बेला, जूही, चंपा की सुंदरता से समूचा वातायन सुंदर हो उठता है, सदाफूली से लेकर शेवन्ती और वे तमाम फूल अपने यौवन को प्राप्त कर खुशियाँ बिखेरते है, पर जाने वाले लोगों की याद उस सप्तपर्णी के फूलों की तरह है जो शाम ढले अंधेरों में चमकते है और हमें दूर स्मृतियों के जंगल में ले जाते है , यह जंगल के महकने का समय है और हवाओं में जो नमी है वह उन लोगों के आँसुओं की है जो काल के विशाल गाल एवं उद्दाम वेग के प्रवाह में असमय कलवित हो गए
अब जब लगभग उन्ही हालातों से अपना शरीर गुजर रहा है, असहनीय पीड़ा और अनिश्चितता हर समय का टोटका हो गया है, उल्लास और हिम्मत दोनो खोने लगी है तो यह समझ आया है कि जीवन फूलों के समान ही होना चाहिये - छोटा, मुस्काता, महकता और सबको खुशियाँ देने वाला, ठूंठ के समान अंत तक जीने या बने रहने का कोई अर्थ नही जब आपके पत्ते झर जाए और जड़ें भी खोखली होकर सूख जाए तो क्या मतलब है बोझ बनकर रहने से
अक्टूबर मेरे लिए झरते हरसिंगार का महीना तो है, पर मैं एक फूल का नाम लेता हूँ और आसमान से एक तारा टूटता है, मैं चुपचाप देखता हूँ और भोर होने तक शुक्र तारे का इंतज़ार करता हूँ कि कोई मन्नत माँगू और धीरे से सदा के लिये आँखें मूंद लूँ अब
सहोदर के जाने का दुख वही समझ सकता है जिसने पीड़ा भोगी है और सबकुछ सहकर भी पुनः जीवन में लौट आया हो
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मैं अपने सपनों में सबसे धनवान होता हूँ, एक शहंशाह की भाँति जीता हूँ और मौत मेरे सामने पानी भरती है, सपनों में वो सारी सुख की फसलें काट लेता हूँ जो मुझे ज़िंदा रखने को ज़रुरी लगती है, अपने सपनों से प्यार करना और उन्हें जिलाये रखने से मुझे या हमें कोई रोक नही सकता - मैं उन सब के संग-साथ हूँ जो हसीन सपने देखते हैं
सुबह का होना इसलिये ज़रूरी है कि हम फ़िर से धरातल की हक़ीक़तों से रूबरू हो सकें कि फ़िर गाढ़ी नींद के आग़ोश में सो सकें - अक्टूबर शीतलता की सौगात लिए आता है और सपनों को जीने की मोहलत बढ़ा देता है
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हम सबकी ज़िंदगी में दर्द का स्थान सबसे ज़्यादा है और यह समझाने की या समझने की ज़रूरत नही है, कोई ज्ञानी या अज्ञानी इसे बहुत अच्छे से बता सकता है और इसे एक अकथ कहानी की तरह किस्सागो बनकर सदियों तक सुना सकता है, हमारी तमाम गाथाएँ और गीत - संगीत इनसे भरा पड़ा है - क्योंकि दर्द हम सबके जीवन का स्थाई भाव है
अब सवाल है कि हम इस दर्द को सहते रहें, जूझते रहें और एक दिन किसी सर्द सुबह को यूँ गुज़र जाये - मानो हम कभी यहॉं थे ही नही, दूसरा मार्ग कठिन है - जो कहता है कि नया राग रचें और राग दरबारी भाग दो रचकर अपनी छाप उन रास्तों पर छोड़ दें - भले वक्त की धूल उन्हें उड़ा दें, उन रास्तों पर उन्मुख हो - जिनपर कभी कोई ना चला हो
मैं जानता हूँ कि रोजी - रोटी, घर परिवार और दैनिक जीवन के दलदलों में फँसें हम लोग इसे चुनौती मानकर विचारेंगे भी नही, पर हममें से किसी ना किसी को तो नया राग, नया रास्ता, नया संघर्ष रचना होगा ना - नही तो हम सिर्फ़ भेड़चाल में धँसकर ही खत्म हो जाएंगे, समय के चक्र में हमारी उपस्थिति कैसे दर्ज़ होगी यह विचारना ही होगा
हम सबके पास समय बहुत कम बचा है, हमारे अंग ही नही इच्छा शक्ति, कौशल और दक्षताएँ भी लगातार क्षरित होते जा रही है, हमारे सोचने - विचारने की शक्ति अनंतिम रूप से धन इकठ्ठा करने, संपत्ति बनाने, अपने वारिसों को स्थापित करने में और अपनी बीमारियों पर केंद्रित होते जा रही है, हम सब बेहद कमज़ोर होते जा रहें है शारीरिक, मानसिक रूप से और यही दुर्बलताएँ हमें स्वार्थी और लोभी बना रही है - हम नये उत्तुंग पहाड़ों पर चढ़ने से और अतल गहराइयों में उतरने से बच रहें है
"जिसने दाँत दिए है वो खाने को भी देगा" - पिता कहते थे, अक्टूबर इस बात को दोहराने का और गहराई से समझने का मौका देता है, नये साल में लिये संकल्पों को पलटकर, दोहराने का और प्रतिबद्धता से पूरा करने की याद दिलाता है, इसलिये सब छोड़कर लौट आये और एक नया रास्ता चुने, नया पथ अपनाकर पाथेय बने - ताकि कम से कम हम तो अपने - आपको किसी उजले और स्वच्छ आईने में सम्पूर्ण स्वरूप में देख सकें - वरना तो जीवन सभी जी ही रहें है रोज जी और मर रहें है - इन्हीं विरोधाभासों के बीच बगैर प्रतिफल और अनुतोष के
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यात्राओं में पेड़, रास्तों, अपरिचित चेहरों, अनजानी मुस्कानों, लापरवाह दुखों, शून्य में जूझती आँखों, बन्द मुठ्ठियों, सिकुड़े पांवों, गिलहरी की दौड़, जुगनू की बोलचाल, अस्पष्ट आवाज़ों, भीड़ के कोलाहल, निस्तब्ध पसरे सन्नाटे, बेग़ैरत सुख, बेख़ौफ़ हँसी, पहाड़ों से छनकर आते उजालों से लेकर अंधेरों से जूझती चाँदनी को देखता - सुनता और समझता हूँ तो शरद पौर्णिमा के पहले वाली रातें याद आती है
शाम ठंडी हो चली है और ये कुनमुनी सी शुष्क रातें - जिनकी ढलान पर ओस की बूंदें जमा है किसी बचत खाते के ब्याज सी - ही असल अक्टूबर है, जो मन ही मन में ख़ुश होता है और मन ही मन अवसादग्रस्त और फिर अंत में छोटे होते जा रहे किसी चाँद की कलाओं सा लुप्त हो जाता है - मैं किसी यात्रा में भीगता सा समानांतर पटरियों पर रेंग रहा हूँ जहाँ अवसाद और सुखों की शिजोरी संग - संग दौड़ रही है, कभी इनसे मुक्त होकर ठहर पाया तो सोचूँगा कि किस यात्रा के लिये चला था
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अनगिनत यात्राएं जिसके नसीब में बदी हो और हर रास्ता और पगडण्डी किसी अंधे मोड़ पर जाकर खत्म हो जाये तो लगता है जीवन में सब कुछ पा लिया, आदतें कुछ ऐसी हो गई कि असफलताएं ही हाथ लगी और जब भी चौराहों पर कोई जोख़िम उठाकर नया रास्ता चुना तो हमेंशा ही वह एक अनजान डगर पर ले गया
अक्टूबर ऐसे ही किसी माह का नाम है जो हमेंशा ही संकुचित करता रहा है ; जब भी मैं हारा, ठहरा और लगातार चलता रहा - यह जाने बिना कि मंज़िल अभी और दूर है, निराशाएँ हर वक्त कड़ी परीक्षाएँ लेती रही और खाली झोले से उम्मीदें परोसकर गायब होती रही है - अभी तक तो यह मीठे अनुभव रहें है पाँच दशकों के
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|| बाग़ उजड़ गए खिलने से पहले
पंछी बिछड़ गए मिलने से पहले ||
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बड़े गुलाम अली ख़ाँ साहब को सुनता हूँ, हृदयनाथ मंगेशकर को, जुनून बैंड को या किशोरी अमोणकर को, कौशिकी चक्रवर्ती को सुनता हूँ या पंडित जसराज को, जाकिर साहब का तबला हो या बिस्मिल्ला ख़ाँ साहब की शहनाई, चौरसिया जी की बांसूरी हो या विश्वमोहन भट की मोहन वीणा, ओमप्रकाश चौरसिया या उस्ताद लतीफ ख़ाँ की सारंगी, डागर बन्धु या ध्रुपद संगीत, कुमार गन्धर्व का अख्खड़ कबीर हो या टिपानिया जी का खेत में खड़ा कबीर, गंगू बाई या असगरी बाई भी आकर कुछ कह जाती है कि बेगम अख़्तर से पंगा ना लेना वरना जो करार है टूट जायेगा
ये सारे सुर लगता है एकांत में यूँ चले आते है जैसे मेरे एकांत के साथी हो, लिखते-पढ़ते और चलते-फिरते ये मेरे संगी-साथी है, जो मेरे स्पेस में अपनी जगह बनाये हुए है, जब आँखे खुली रखता हूँ तो मेरे सामने ये सब गतिमान हो जाते है, हवा में चलते है और मंद मंद मुस्कुराते हैं, जब सोता हूँ तो अनहद नाद की तरह कान में भिनभिनाते है, भोर में सूरज की पहली किरणें जब पड़ती है तो ये सब छम-छम करते है कमरे में छन्नूलाल जी चले आते है धूम धड़ाका करते और सब आपस में गुत्थम गुत्था हो जाते है, काम करता हूँ तो वरवरराव याद आते है, ग़दर के गीत याद आते है - "ये गांव हमारा, ये गली हमारी, हर बस्ती हमसे है, हर काम हमसे है", दूर कही भूपेन हजारिका का डोला हिलता डुलता नजर आता है जो गंगा किनारे खड़े होकर पूछ रहे - "ओ गंगा तुमी बहिच्छो कैनो"
थककर चूर हो जाता हूँ - पस्त होकर बैठ जाता हूँ तो फिर कही से राहुल देशपांडे आ जाते है कहते हुए कि लता ताई माँ सरस्वती है संगीत की, शुभा मुदगल आलाप लेती है और फिर कही दूर शुक्रतारा अस्त होता नजर आता है तो अरुण दाते का अमर गीत "भातुकुली च्या खेळा मधले राजा आणिक रानी - अर्ध्यावर्ती दाँव मोडला अधूरी एक कहाणी" गुनगुना लेता हूँ और अंत में सुब्बालक्ष्मी की तमिल तान शुरू हो जाती है -
कौसल्या सुप्रजा राम पूर्वासंध्या प्रवर्तते ।
उत्तिष्ठ नरशार्दूल कर्तव्यं दैवमाह्निकम् ॥
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविंद उत्तिष्ठ गरुडध्वज ।
उत्तिष्ठ कमलाकांत त्रैलोक्यं मंगलं कुरु ॥
तव सुप्रभातम ॥
जीवन इन्ही सबके बीच गुजर रहा है अनकही फ़िल्म बार बार याद आती है और पंडित भीमसेन जोशी का अभंग - "रघुवर तुमको मेरी लाज, सदा - सदा मैं शरण तिहारी, तुम हो गरीब नवाज, रघुवर तुम हो गरीब नवाज"
जीवन एक बार ही मिलता है और मैं संतुष्ट हूँ कि लगभग इन सबको देख सुन पाया प्रत्यक्ष में, किसका आभार करूँ और कैसे - नही पता, पर कृतज्ञ हूँ - यह विनम्रता से स्वीकारता हूँ
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"हमारी हालत ही हमारी पहचान है और हमारी पहचान ही हमारा संघर्ष है, जिससे हम डरते नहीं - उभरते हैं और कभी पूरे और कभी अधूरे होते है"
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जनवरी से शुरू हुआ साल धीरे - धीरे बीत रहा है , हमने नज़रें बचाते हुए एक दूसरे की उपेक्षा करके और थोड़ी बहुत आँख मिचौली करके साल गंवा दिया है और अब समय है कि पूरे होशो हवास में सामने आकर, आँखें तरेरकर अपने दिल की बात को मानकर और बिना किसी संकोच के सब कुछ स्वीकार कर लें, शामें ठंडी हो चली है, दिन छोटे और रातें लम्बी हो गई है बस हमें इस छोटे - बड़े के बीच के फ़ासलों को छोड़कर, सब कुछ तोड़कर सामने आना है, जानता हूँ कि शरद का चाँद बड़ा हो रहा है और मैं इंतज़ार में हूँ कि जब वह अपने पूरे वैभव को प्राप्त करें तो कही कोई कसक बाकी ना रहें मन में, उसकी उजली चांदनी में सब संताप और क्षोभ घुल जाए और एक निर्मल मन से जीवन नैया पुनः रफ़्तार पकड़े
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जो गुज़र रहा है, जो दरवाज़े पर पदचाप के साथ आने को है, जो भोर की उजली किरण के संग घुस आया है, जो ऊंघती दोपहर के सन्नाटे को चीरकर चिंघाड़ रहा है, जो शाम के शफ़क़ से छलककर बिखर चुका है, जो रात की मदहोशी को बेसुध कर पसर चुका है और जो सपनों के झिलमिल संसार में इतना खो गया है कि अब रूपहली सी ज़िंदगी रेशा - रेशा सी उधड़ रही है इस आज को ठुकराकर कहाँ पीछे और आगे को देखें - बस इसी को थामे रहो, ये हसीन पल यूँ जुदा हो जायेंगे - जो है - अभी है - यही, इसी क्षण और हाँ - मैं, तुम, हम और सब इसी में जीते है - बाकी सब माया है और माया महाठगिनी हम जानी
अतीत का बोझ सिर पर ना रखो, हम सबने पाप किये है और इन पापों की सज़ा का कोई हिसाब नही - जब खुलेगा लेखा तो देखेंगे और भविष्य की मेरी कोई योजना नही, उद्देश्य विहीन होकर जीने का भी अपना एक मज़ा है और इसे भरपूर तरीके से भोगना चाहिये, कल सुबह का सूरज भी होगा नही पता, हो सकता है ये आकाश गंगा आज ही नष्ट हो जाये, भविष्य की आस में और दो पैसे जोड़ने की दुश्चिंता में अपना आज खत्म कर दूँ - इतना नैराश्यवादी और आततायी मैं नही
बस जी रहा हूँ और सांसों पर कड़ी नजर है
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अनुभवों, सहमतियों, स्वीकारोक्तियों, अदम्य साहस, स्व - संस्तुति और जिजीविषाओं से भी जीवन चल सकता तो हम सब शायद बेहतर जीवन की कामना कर सकते थे या कम से कम हम एक धुरी पर चलकर सुकून से अपना पार्ट अदा कर निकल जाते आहिस्ते से
जीवन होता नही ऐसा, हम सब मृत्यु की कामना करते हुए जीने का रोज़ स्वांग करते है और फिर एक दिन डरकर मृत्यु के ही आगोश में अंततः समा जाते है
यही हमारा वास्तविक प्रारब्ध है
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"हमारी हालत ही हमारी पहचान है और हमारी पहचान ही हमारा संघर्ष है, जिससे हम डरते नहीं - उभरते हैं और कभी पूरे और कभी अधूरे होते है"
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अनंत आकाश सी इच्छाओं का अनंत विस्तार है, हम सब जितने बाहर - उससे ज़्यादा भीतर है, बल्कि जितने बाहर है उसके लाख गुना भीतर है, और इसी भीतरी जमावड़े को हम कभी बाहर नही ला पाते, अपनी रिक्त आकांक्षाओं, अपेक्षाओं और बेहद छोटी - छोटी इच्छाओं का आसमान फ़ैला है कही गहरे में धँसा हुआ, जब भी हिम्मत करके हम झाँकते है तो अंदर से किसी फुफकार की भाँति वो इच्छाएँ बाहर आने को प्रबल हो जाती है जिन्हें हम कभी जान ही नही पाये, समझ ही नही पाये और कई बार जानते हुए भी इनकी उपेक्षा करते रहें
गाना सीखना था, सितार बजाना, हारमोनियम पर उंगलियाँ घुमाना थी और पांवों को थकने की हद तक किसी हॉकी की बॉल पर थिरकने देना था, किसी गोल पृथ्वी से नजर आते फुटबाल के पीछे दौड़कर हाँफते हुए विशाल मैदान के एक कोने में खड़े हो जाना चाहता था, बैडमिंटन की शटल को एकटक देखते हुए हमलावर होना था ऐसे कि जीवन का लक्ष्य पा लिया हो उस निर्जीव शटल में, पानी की उस अतल सतह को छू लेना चाहता था जहाँ से ऊपरी संसार की सतह भी नज़र ना आये और पानी के समान हर किसी मे घुल जाऊँ या उसी रंग में रंग जाऊँ कि कोई कहें - "आज रंग हे री" ; दुनिया को किसी वामन की तरह तीन डग में भर लेना था, एक ही ज़िंदगी में अशेष इच्छाओं का जन्मना क्या सच में कोई न्याय है या सबको अप्राप्य मानकर छोड़ देना ही अनन्तिम साहस है जीवन का
पनीली आँखों से देखें स्वप्नों को हक़ीक़त में बदलकर साक्षी भाव से सबका हिस्सेदार होना चाहता था - जो मन - मस्तिष्क पर हमेंशा हावी रहें, एक पर्दा हमेंशा तना रहा भृकुटियों के समान - जिसके पार सब सम था और विषम की कोई गुंजाइश नही थी, पर सब कुछ पा लेना एक ही जीवन में असम्भव था - खासकरके तब, जब एक दीन याचक की भांति जीवन में चंद कतरें बदे हो साँसों के स्वरूप में और हर पल आशा - निराशा की उहापोह में बंधे सांस-दर-सांस की देहरी पार करते जाये
हम सब खाली है - भीतर - बाहर से, ऊपर - नीचे से और लौकिक - अलौकिक रूप से, हममें जो कुछ भी रिक्त है वह कभी भर नही सकेगा और हम कभी इतना समय भी निकाल नही पायेंगे कि सरगम के सात सुरों की लयबद्धता ही सीख लें, हॉकी के आरोह - अवरोह को साध लें, पानी की पारदर्शी परत को बेधकर उसके नीचे एक बार तसल्ली से देख लें - सांस रोककर और किसी सुरीली या बेढब हारमोनियम के काली चार से उठकर किसी अनजान सुर से लग जाये और अनहद नाद की तरह और गुम्फित हो जाये व्योम में
समय का दुष्चक्र अब ऐसे मोड़ पर ले आया है कि मेरे पास ना आगे देखने को कुछ है, और ना ही पीछे पलटकर गुनगुने पछताओ को सहलाने का साहस, सब कुछ बुझ रहा है ; एक गहरी अंधेरी खाई में खड़ा हूँ - नीचे गर्भ गृह की सीढ़ियां है, ऊपर काला आसमान, चहूँ ओर लपलपाती लौ जल रही है, एक झींगुर गुनगुना रहा है - सरेआम किसी मदहोश हवा की तरह और मुझे इसकी आवाज़ तंग कर रही है
यह सपनों को देखने का सबसे उपयुक्त समय है - भुनसार, और यही सबसे सही समय भी है नींद उचटने का, शीतल हवाएँ मंद सप्तक में तीन ताल की संगत में कोई भोर का राग सुना रही है और मैं अपने भीतर के खाली स्थान खोज रहा हूँ और देखता हूँ कि यह धान कटने का समय है, खेतों में नमी और भोर की रश्मि किरणों के साथ ओस की बूंदों के जमने का समय है , ज़मीन पर हलचल हो रही है, गायें रम्भा रही है, सुजलाम की भूमि पर फसलों की सुवास है, स्त्रियों के खिलखिलाते स्वर सुनाई दे रहें है, बैलों की घण्टियाँ कह रही है - "तुम यहाँ से चले जाओगे पर थोड़ा सा यही रह जाओगे, जैसे रह जाती है मन्दिर में घण्टियों की गूँज" *
धान कटेगा तो ही गेहूँ की बालियों के लिये बीज रोपे जायेंगे - जगह खाली होगी - तभी ना नया सृजन होगा
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एक दिन सब सेटल हो जायेगा - नौकरी भी लग जायेगी, शादी ब्याह भी हो जायेगा, कैंसर - कीमो होने के बाद जीवन पटरी पर लौट आएगा, घर भी बन जायेगा और खेत भी बिक जायेगा, दिल के ऑपरेशन के बाद भी खून बहने लगेगा नसों में, किडनी भी काम करने लगेगी एक दिन, शक्कर भी कम हो जायेगी और आँखों की रोशनी भी लौट आएगी एक दिन, घर या खेत मे बोरिंग भी नया खुद जायेगा और चोरी हुए गहने भी जप्त हो जायेंगे, मौसम बदलते ही हालात भी बदलेंगे और डूबती सांसें भी फिर धड़ - धड़ चलने लगेंगी, असँख्य लाशों को काँधा देने और कपाल क्रियाओं के बाद हम लौट आयेंगे मुस्कुराते हुए कि हम अभी शेष है और स्पंदित है किसी में भले आधे - अधूरे ही सही - जीवन की गति कभी ठहरती नही है, जीवन कभी स्थिर नही होता
मेरे शहर में ढेरों कल - कारखाने थे, असँख्य लोग जगह - जगह से यहॉं आये, अपने हाड़ मांस गलाकर इन कारखानों की चिमनियों को ज़िंदा रखा और सब काल के गाल में समाते चले गये, मेरे देखते पाँचवी पीढ़ी शहर में अब इन कारखानों में काम कर रही है, लोग खत्म हो गए पर जीवन नही रुका कभी, कल - कारखाने मजबूती से खड़े रहें और खून पीते रहें
मैंने कहा ना कुछ नही रूकता - बस स्मृतियाँ धीरे - धीरे रगों में धँसती जाती है और हम आहिस्ते से सब कुछ भूलकर जीवन सेट करके आगे बढ़ते जाते है, हमारी समस्याएँ खत्म होते जाती है - बस नही रहते है तो हम, हम जो खत्म हो जाते है, हम जो टूट चुके होते है, हम जो विलोपित हो जाते है, हम जो बहुत थोड़े से शेष रहकर अपने अंतिम समय का इंतज़ार करते है
हम, हम नही, हम पगडंडी पर बिसरती धूल के सारथी है जो अपने में भी नही है अब
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जीवन में अक्टूबर आते जाते रहेंगे परन्तु इस अक्टूबर ने जो कसक दी, जीवन इस समय कहाँ है इसकी पहचान करवाई, एक कड़वी सच्चाई को एकदम सामने रख दिया वह घातक था, कसैला था - पर हक़ीक़त को ठुकराना मूर्खता थी
बहरहाल, एक अलग तरह से जीवन देखने और समझने की कोशिश अपने तई की और कुछ बड़े निर्णय भी लिये और अब घूमना थोड़ा कम, यायावरी कम, भटकाव कम, दोस्ती कम और जीवन में अब जो है उसी को समेट कर रहा जाए वही पर्याप्त है
अक्टूबर की कसक आज खत्म तो हो जायेगी पर जो घाव इसने तन और मन पर दिए वो कभी नही भर पायेंगे - एक शब्द समझ नही आता था "क्षरण" अब इससे वाकिफ़ ही नही जुड़ गया पूरी तरह से
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