|| हिंदी लेखक - संगठन का दूसरा नाम गिरगिट और शुतुरमुर्ग है ||
विनोद शुक्ल के घिघियाते वीडियो देखें आज
विनोद कुमार शुक्ल को अब समझ आया जब मानव कौल ने रायता फ़ैलाया, हिंदी प्रकाशक घाघ और बेहद धूर्त है - यह हमें तो तभी समझ आ गया था जब लिखना शुरू किया था, एक दो को छोड़ दें तो फेसबुक पर ही इनकी बदमाशियाँ देख लें - एक महीने में 100 शीर्षक का कचरा छापने वाले ये लोग अपने लेखकों को ही भूल जाते है, रॉयल्टी देना तो दूर, ₹ 20 - 25000 लेखक से लेकर कुछ भी कचरा छापकर ये लोग गन्द फैलाये हुए है
सबसे ज्यादा प्रकाशन का नुकसान हिंदी अँग्रेजी के प्राध्यापकों, पीजीटी, टीजीटी ने किया है - जो एक लाख से लेकर ढाई तीन लाख हर माह बोनस लेते है मक्कारी का, फिर ब्यूरोक्रेट्स जो थोड़ा बहुत काम करते है और फिर कारपोरेट के दल्ले जो इधर आईटी में इफ़रात कमा रहे है, ये सब अपनी चूल मिटाने को हर माह 30 हजार खर्च करने को तैयार है - वरना क्या कारण है जो मुक्तिबोध एक किताब नही ला पाये मरने तक, इनकी 85 - 90 किताबे आ गई - जबकि अभी 40 - 45 के नही हुए है उम्र से - काम करते है या यही कबाड़ी का व्यवसाय करते है
विनोद कुमार शुक्ल भी अब रो रहें है, बड़े सम्मान से लिख रहा हूँ कि अब दांत बचे नही तो रॉयल्टी का करेंगे क्या, सारे हिंदी के लोग जो 50 पार हो गए है - रुपयों की हवस में कुछ भी करने को तैयार है, आप 11/- ₹ का पुरस्कार दो आ जाएंगे बेशर्मी से लेने , आप सविता भाभी विशेषांक निकालो आधे घण्टे में नई कहानी दे देंगे लिखकर , आप वियतनाम या शौचालय पर वेबीनार रखों बोलने को तैयार है ये, इधर पाँव कब्र में है पर अपने छर्रों के साथ दिल्ली लखनऊ या नाशिक कही भी चले जायेंगे - प्रलेस के हो या जलेस के, कोई उसूल नही कोई विचारधारा नही
और प्रकाशक का अपना स्वैग है - अनपढ़, कुपढ़, नौकरी से हकाला हुआ, शादी ब्याह की पत्रिकाएँ छापने वाला बुद्धिजीवी बनकर प्रकाशक बना बैठा है और अड्डेबाजी कर रहा है, अपनी बीबियों, बेटियों या बहुओं के चमकदार फिल्टर वाले फोटो चैंपकर लेखकों को फँसाता है - रॉयल्टी देने के बजाय ये चम्पा चमेलियाँ लेखक को फांसकर रुपया ऐंठ लेती है रॉयल्टी क्या देंगे ये चोट्टे
विनोद जी रोना - धोना बन्द करिये, आप चूक गए है - भजन करिये, वाणी और राजकमल से लेकर बाकी सब भी महाचालू है - दिल्ली, बम्बई, इलाहाबाद, जयपुर, इंदौर, भोपाल, चंडीगढ़ या कोलकाता - हर जगह फ्रंट डेस्क पर बेवकूफ बनाते लेखक, कवि, कवयित्रियाँ है और अंदर वही ओसवाल, जायसवाल, अग्रवाल, जैन, शर्मा, भारद्वाज या अपुर - कपूर जो ऊपर से विनम्र और सफेदी की झंकार पर अंदर कुटिल और कमीनापन
लिखते क्यों हो - किस डाक्टर ने बोला तुमको, ये सब जानते है कि ये क्या कर रहे है इन्हें ईश्वर माफ नही करेगा और विनोद जी इस उम्र में स्कैंडल आपको अब शोभा नही देता
कोई दुखती रग नही छेड़ रहा हूँ इनकी, इन्होंने रमनसिंह से भी पुरस्कार लिए और बघेल से भी, अभी बीमार थे तो भूपेश बघेल देखने गए थे और 2020 में जब पहला कोविड था तो राजकमल के पेज से खूब लाईव किये थे - तब याद नही आया कुछ - इतने भोले नही ये, जो आदमी नौकर की कमीज , हताशा जैसी कविता या दीवार में खिड़की रहती थी जैसी भाषा लिखें - वह इतना सहज और भोला होगा, भोपाल की चकमक और अब सायकिल पत्रिका ने इन्हें खूब छापा, एकलव्य ने किताबें छापकर पारिश्रमिक दिया, फेलोशिप दी, इफ़रात मानदेय दिया - क्या बात कर रहे है विनोद जी, लेखक को बिल्कुल मिलना चाहिये इसका समर्थक हूँ मैं पर ये रोना धोना शोभा नही देता गुरु अब
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महिला दिवस की
बधाई
सबको •••••
महिला दिवस पर कि हो कही भी आग लेकिन आग जलना चाहिए।
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सबसे पहले कानून सीखो जो इस समय सबसे ज्यादा तुम्हारे फेवर में है तब तक कोई लड़ाई नही लड़ी जा सकती
सदा सुहागन रहो, दूधो नहाओ, घर की इज्जत, पति के चरणों में स्वर्ग है, ससुराल ही स्वर्ग है, चुड़ियों से लबरेज, मातृत्व के बिना अधूरी है स्त्री, जैसे मुहावरों से मुक्ति पाओ.
आर्थिक स्वालम्बी बनो, अपने आने - जाने पर पाबंदी हटवाओ, घर - परिवार से लेकर समाज के हर निर्णय में भागीदारी करो, अपनी जिंदगी अपनी मर्जी से खुलकर जियो, श्मशान में जाने की हिम्मत करो, अपने लोगों को मुखाग्नि देने का हौंसला रखो, शक्तिशाली बनो, छेड़छाड़ करने वाले को पटकनी दो, बलात्कारी को ऐसा सबक सिखाओ कि कही मुंह दिखाने लायक ना रहें
अपनी मर्जी से पसंद के आदमी से शादी करो या एकाकी जीवन बिताओ, दुनिया घूमो, राजनीती में आओ और सत्ता पर काबीज हो, आदि ऐसे मुद्दे है जिन पर लड़ाई करना अभी बाकी है
मस्जिद , गिरजे, गुरुद्वारे और मन्दिर में घुसकर और एक पत्थर पर तेल चढ़ा लेने से कोई क्रान्ति नही होगी, संतान को प्राप्त करने के लिए जैविक प्रबंध करो, बाबाओं के आशीर्वाद और मन्नत मनवाने बैठी पाषाणकाल से उपेक्षित और जर्जर हो चुकी पत्थर की मूर्तियों से संताने प्राप्त नहीं होती - इन्हें तो पुरातत्व विभाग भी सम्हालने को तैयार नहीं तो तुम क्यों घिस- घिसकर अपना जीवन बर्बाद कर रही हो इनके पीछे ? इसलिए इन्हें तत्काल छोड़ दो और लात मारो, ये ढकोसले है. प्यार, समर्पण और त्याग सिर्फ महिलाओं को नहीं शोभा देता, अगर ये सब मानवीय और शाश्वत मूल्य है तो पुरुषों को भी लाद दो इस तरह के प्रपंचों से तुम सब मिलकर
सती सावित्री जैसे त्यौहार वट सावित्री, हल छट, संतान सप्तमी, संक्रांत, करवा चौथ, से लेकर हर हफ्ते भूखे रहना बंद करो तुम्हारे भूखे रहने से कुछ नहीं होने वाला है, ये मर्द बड़ा जालिम है....
जेंडर और स्त्री स्वतन्त्रता के मुद्दे इस समय में एकदम अलग है, समाज के बनाए भरम और अपने विश्वासों पर ही सवाल खड़े करो - जो सिर्फ तुम्हारे लिए बनाए गए है, इनसे लड़ो और आगे बढ़ो, ये सब तरीके भी तुम्हे उकसाकर परम्परा और पद्धति में ही धकेल रहे है -
इनसे बचो, ये स्वतंत्रता नही
अपने - आप से लडो पहले, अपने घर, समुदाय, समाज की लड़ाई है यह, इन धूर्त लोगों के कहने में मत आओ और कोई देवी कहें तो दांत तोड़ दो उस कमीने के, जब तक तुम इंसान नही बन जाती तब तक इन सबको पछाड़ती रहो
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संविधान निर्माता और विद्वान कानूनी पुरुष डॉक्टर अम्बेडकर को सड़क छाप बैंड के नाच में इस्तेमाल करना कितना घातक है यह कोई नही सोच रहा
यह नही देख रहें हम कि इसी तरह से हमने सभी को सड़क पर ला दिया यहाँ तक कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भी जिसकी दुहाई देते थे लोग
कहाँ है सम्मान और शिष्टाचार संविधान निर्माताओं के लिए , हमारे बच्चे क्या सीखेंगे कि होली दीवाली गणेश दुर्गा पूजा या मिलादुन्नबी की तरह चंदा वसूलों, बैंड पर जुलूस निकालो और डांस करते हुए इन प्रतीकों के फोटो लगाओ - धोया, भिगोया और हो गया मतलब
और शायद यही कारण है कि अब ना संविधान की इज्जत है ना कानून की और बचा खुचा जो है उसे भी बदल देंगे फिर करते रहना लोककल्याणकारी राज्य, सम्प्रभु, समता मूलक, पंथनिरपेक्ष समाज की बातें
मूर्तियां बनाकर वैसे ही गांधी, आजाद, पटेल, नेहरू, अम्बेडकर से लेकर भगतसिंह और तमाम लोगों को सस्ता कर ही दिया है, गांधी गोडसे विवाद से हम वाकिफ़ है ही - जो इज्जत बाबा साहब की बची है उसे भी नाच कर खत्म कर दो
बस थोड़े दिनों में आमी काका बाबा नी पोरिया रे, या काला कव्वा काट खायेगा टाइप गाने और लिख दो सभी स्वतंत्रता सेनानियों पर तो सबको चैन मिल जाएगा - वैसे भी देश 2014 के बाद ही आजाद हुआ है, नया संविधान भी लिख ही दो - ताकि साला टंटा ही खत्म "Liberty, Equality & Fraternity" का
सबकी जय जय
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|| नागराज का लोगों को पोपट बनाना शौक है ||
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#झुंड - समय पास करना हो तो देख डालिये, बाकी कोई खास है नही दम इसमें
नागराज पोपटराव मंजुले सुलझे हुए एक बदमाश क़िस्म के और चतुराई से काईयाँपन की हद पार कर जाने वाले स्वीट से निदेशक है
झुग्गी के बच्चों में प्रतिभा देखकर फुटबॉल के बहाने से वे गरीबी, अपराध, पुलिस, न्याय, हिन्दू, मुस्लिम, तीन तलाक, पासपोर्ट, अतिक्रमण, रिटायर्ड मेन्ट, महिला बराबरी, जेंडर, भाषा, दलित, वंचित और सामाजिक नजरिये के साथ साथ अमीरी - गरीबी और शिक्षा व्यवस्था पर भी चोट करते है, इसी सारी गंदगी के बीच प्यार भी महकता है - किसी कीचड़ में कमल की तरह और बड़ी शातिरी से अम्बेडकर जयन्ति मनाते हुए एक नाच - गाने वाला जुलूस फ़िल्म के बीच में रखकर अपने मुद्दे को थोपकर वर्ग विशेष की लिजलिजी भावनाएँ भी बटोरना चाहते है - जबकि इस तरह के भौंडे गीत की कतई जरुरत नही थी फ़िल्म में , यह सिर्फ नागराज के विषाक्त दिमाग़ की उपज है, फ़िल्म की मांग नही थी और यह गाना एकदम अप्रासंगिक है
बहरहाल, अमिताभ का एक डायलाग है अदालती बहस में कि "स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों की दीवारों के उस पार भी एक भारत है और वे आप तक नही पहुंच सकते योर ऑनर पर आपको यह दीवार गिराकर उन तक पहुंचना होगा", - और यही थीम है और फ़िल्म की सार्थकता है
फ़िल्म बाँधे रखती है पर इसे कम से कम चलताऊ बम्बईया फार्मूलों से दूर रखते तो और बेहतर होता - सब कुछ जीवन में इतना आसान नही होता नागराज बाबू और अब समाज को जोड़ने की बात करो, घटिया दलित - सवर्ण लड़ाई की आग लगाकर समाज को बांटने की कोशिश मत करो
महाराष्ट्र, और वो भी विदर्भ का एक छोटा सा हिस्सा - पूरा भारत नही है, दुनिया "सैराट" से आगे निकल गई है और तुम अभी भी दलित का तड़का लगाकर जबरन वीरप्पन बन रहे हो और यही करते रहें तो निदेशन तो दूर, फिल्मी इतिहास में कोई नही पूछेगा क्योंकि फिल्मों की अपनी कोई राजनीति नही होती, वो कहावत है ना फिल्में सिर्फ "इंटरटेन, इंटरटेन और इंटरटेन" से ही चलती है जिसने भी यह प्रयास किये वो बर्बाद हो गए
बहरहाल, ठीक फ़िल्म है देख सकते है मसाला टाईप है और जो लोग इसमें अम्बेडकर, दलित और वंचितों की लड़ाई, सामाजिक समस्या के हल खोज रहें है उनके लिए RIP रहेगा मेरी ओर से
समाज में जब तक जमीन और संपत्ति का समता मूलक वितरण नही होगा तब तक कैसे होगा यह सब, दूसरा गांवों से पलायन और शहरों में बढ़ती झुग्गियाँ सबसे बड़ी समस्या है, कहने वाले कहते है कि समस्या आबादी है सारी जड़, जबकि आज कार्पोरेट्स और सरकारें भी खेती को खत्म करके मजदूरी में झोंक रही है एक बड़े तबके को और फिर इसे दलित - सवर्ण कहना शायद अन्याय है
आज 80 से 85 % लोग भुखमरी के कगार पर है आजीविका का बड़ा मुद्दा है, रोज़गार शब्द ही खत्म कर दिया है, शिक्षा से सबको बाहर कर दिया है तीन सालों में , इसे चालाकी से छुपाकर फालतू के भौंडे गीतों से यदि कोई अम्बेडकर जयन्ति पर बैंड पर नाच दिखाएंगे तो समस्या क्या हल होगी, वे आदिवासी कहाँ है इस बहस या फ़िल्म में जो हम छग, झारखंड, उड़ीसा, नार्थ ईस्ट , अंडमान या मण्डला डिंडोरी या रायगढ़ में देखते है
खैर, नागराज यह सब समझते है, पर इस पर ना बोलकर वे मुद्दे भटकाते है ऐसा मुझे लगता ही फिर वो झुंड हो या सैराट
जय भीम और जोहार, लाल सलाम फर्जी कामरेडों और अम्बेडकरवादियों को जो इस फ़िल्म में मसीहाई की उम्मीद कर रहे हैं
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