कवि यश: प्रार्थियों के लिए क्यों आवश्यक है भारतीय शास्त्रीय संगीत
भोजन और संगीत में किसी भी संस्कृति का रस: सार है। यह सबसे धीमी गति से परिवर्तित होते है और इससे ही किसी भी सभ्यता की आत्मा का साक्षात्कार किया जा सकता है। भोजन चूँकि इंद्रियों का विषय अधिक है और लगभग हम सभी भारतीय भारतीय भोजन ही करते है, भोजन, पाककला और साहित्यकार इससे क्या सीख सकते है इसके विषय में उपकार गाइड के किसी और पाठ में चर्चा करेंगे।
संगीत आत्मा का भोजन है यह रूढ़ोक्ति आप सभी ने सुनी होगी। मैं आज आपको कवि संगीत से क्या सीखे, उससे कैसे प्रेरणा प्राप्त करे इसके बारे में बताना चाहता हूँ।
भारतीय संगीत संसार की सबसे सूक्ष्मतम, सबसे गूढ़ और सबसे दिव्य कला है, उसमें भी उत्तर भारतीय संगीत अपने खुलेपन, लचीले स्वभाव के कारण कर्नाटक शास्त्रीय संगीत पर भारी है जबकि उत्तर भारतीय नृत्य कथक ओडिसी, भारतनाट्यम या मोहिनीअट्टम की तुलना में हल्का है उसमें रस की सृष्टि के बजाय चमत्कार, सलाम बजाना, चक्कर काटना, ताल के छोटे छोटे चमत्कार दिखाना जैसे मुर्गी, मोर, हिरन आदि की चाल इत्यादि हल्के आइटम अधिक है।
किन्तु उत्तर भारतीय संगीत में परिवेश को बदलने की क्षमता होती है, यह वायुमंडल को चार्ज कर देता है।
इसे सुनने के अभ्यास से जो कवि को सर्वप्रथम प्राप्त होता है वह रसलीन एकाग्रता, गणित का अभ्यास करने पर या परीक्षा देते काल लगनेवाली एकाग्रता से यह इस तरह भिन्न है कि इसे सुनते हुए अपने भीतर आत्मा की गति को अनुभव कर सकते है। यह संगीत आपको एक साथ कसता और शिथिल करता है। यही कारण है कि रस को ब्रह्मानन्द सहोदर कहा जाता है और यह शुद्धतम रूप में आपको उत्तर भारतीय संगीत में मिलेगा।
दूसरी महत्त्वपूर्ण सिद्धि जो यह सुनने से मिलती है वह है अमूर्तन में तत्त्व के आविष्कार की। एक बार कवि अनामिका ने मुझसे कहा था कि मुख में अग्नि का वास होता है इसलिए जो भी हम कह देते है वह जल जाता है। जो भी शब्द में स्पष्ट है वह जला हुआ है। कविता इसलिए महान है कि यह सबकुछ नहीं कहती। यह बहुत सी बात बिना कहे छोड़ देती है। भारतीय शास्त्रीय संगीत शब्दों पर आधारित नहीं है, ग़ज़ल, ठुमरी, दादरा अवश्य शब्द संगीत है किन्तु राग संगीत केवल स्वर, एक विशेष फ़्रीक्वन्सी पर वायुमंडल में कम्पन करने पर आधारित है फिर भी हम इसे सुनते हुए विशेष भावदशा को प्राप्त होते है, हम समझ जाते है कि संगीतकार क्या अभिव्यक्त करना चाहता है— यह कवियों को अमूर्तन में प्रवेश करने की सिद्धि देता है। इससे दृष्टि निर्मित होती है।
राग गांधारी में केसरबाई केरकर (YouTube में इच्छुक ढूँढकर सुन सकते है) जब अचानक धैवत लगाती है तो अकस्मात् आपका मन एक झटका खाकर थिरता है और उस क्षण में आपको अपनी ही आत्मा ऐसी स्पष्ट दिखाई देने लगती है जैसे थिरे जल में चन्द्रमा। यह दिव्यता है।
उपकार गाइड मार्क्सवादियों के विपरीत दिव्यता में बहुत श्रद्धा रखती है। दिव्यता से धर्म का अर्थ न लेकर उन अभी तत्त्वों से लेती है जिसे अनुभव तो किया जा सकता है किन्तु पूर्णरूपेण समझा नहीं जा सकता। बर्गसाँ के elan vital की भाँति (इसकी चर्चा समय आने पर आगे के पाठ में की जावेगी)।
हीगल अपनी सौंदर्यशास्त्रीय थियरी में कला को सरल शब्दों में यों कहता है कि बाहर एक वृक्ष है। हमारा मन रंगों की एक बाल्टी है। वृक्ष लेकर हम मन की बाल्टी में डुबोते है और फिर उसे बाहर रख देते है- यह कविता, चित्र, संगीत कोई भी कला हो सकती है। तब जो वृक्ष कला में प्रकट होता है वह संसार के वृक्ष से भिन्न कैसे होता है? इसके उत्तर में दो मत है- पहला यह कि हम सभी भिन्न है और निजता के कारण कला में सबके वृक्ष भिन्न दिखाई देते है। यह मत पश्चिम में इन दिनों अत्यंत प्रचलित है और अस्मिता विमर्श के लेखक इसी तर्क का उपयोग करते है। खेद का विषय है हिंदी के अस्मिता विमर्श वाले इतने कंगले है कि उन्हें इस तर्क की कोई खबर नहीं और इसके दार्शनिक सिद्धान्त का उन्होंने कभी विचार किया हो लगता नहीं। पाठकों को किसी पुस्तक या लेख में इसकी विवेचना की गई है ऐसा पता हो तो लेखक को अवगत करवाए।
पहले मत का खंडन करनेवाले कहते है कि यदि निजता मात्र ही कला के लिए पर्याप्त होती तो प्रत्येक व्यक्ति की अभिव्यक्ति कला होती। सबका रोना-चिल्लाना संगीत होता, सबकी कही कविता और सबकी लकीरें चित्र होती किन्तु देखा जाता है कि ऐसा होता नहीं है। हमारे भीतर कोई दिव्य तत्त्व भी होता है जिससे कलाकार या कवि अपनी अभिव्यक्ति रंगने में समर्थ होते है और यह करने के लिए पहले सहृदय होना पड़ता है मतलब अच्छी कविता का, संगीत का पहचाननेवाला बनना होता है ताकि आप उस दिव्य स्पर्श से परिचय पा सके। फिर उसकी खोज अपने भीतर करना होती है।
इसी खोज को संस्कृत के काव्यशास्त्री विदग्ध होना कहते है, दग्ध होना माने जलना। जब हम पर दुःख पड़ता है, हमें शोक होता है या अत्यंत आनंद होता है तो कोई तत्त्व हम अपने भीतर जलता भी अनुभव करते है। प्रेम में पड़ने पर हमारी कैसी विकल दशा होती है— जैसे अंदर कुछ जल रहा हो। जल जलकर जो दिव्य तत्त्व है वही शेष रहता है और इससे अपनी अभिव्यक्ति को रंगनेवाला कलाकार होता है। विदग्ध की कविता और फ़ेस्बुक पर आए दिन कविता लिखनेवाले भाई बहनों की कविता में अंतर पाठक अनुभव कर सकते है। विदग्ध की कविता में आँच होती है जैसे जीवित व्यक्ति के आलिंगन करने पर नहीं होती है, दूसरों की नक़ल करनेवालों की कविता ऐसी है जैसे कोई जापानी सेक्स डॉल से आलिंगन करता हो।
तीसरी सिद्धि जो भारतीय शास्त्रीय संगीत से हमें मिलती है वह है स्ट्रक्चर से मुक्ति। यह बहती हुई विद्या है। जहाँ जी चाहता है जाती ही और इसकी कसौटी पाठक के हृदय के अलावा और कहीं नहीं है। यह बाहर किसी आलोचना की पुस्तक में आपको प्राप्त न होगी। यही कारण है कि आलोचक बन्धु द्वारा तिरस्कृत कई किताबें आज भी पाठकों का हृदयहार बनी हुई है।
चौथी सिद्धि है- संयम की। जहाँ दूसरी अभी कलाओं ने किसी भी विधा या अनुशासन द्वारा लगाए सभी निषेधों का निषेध कर दिया है संगीत में अब भी विधा के सभी अनुशासनों का पालन होता है। कितनी भी ऊँची तान हो, सधा सुर हो गायक ताल के अनुसार सम पर आता ही है। जो कवि सम पर नहीं आते, वे त्रिशंकु की तरह ऊपर ही लटके रह जाते है।
#उपकार_गाइड_पाठ ९७
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