होली का व्यंग्य
हिंदी साहित्य के घराने
क्लासिकल संगीत की तरह हिंदी साहित्य में भी घरानेदारी का रिवाज है और सिक्का जमाने के लिए कोई घराना पकड़ना ज़रूरी होता है। आज हम पढ़ेंगे है हिंदी साहित्य के घरानों के बारे में—
१. भोपाल स्कूल ऑफ़ पोयट्री:
यह हिंदी साहित्य का सबसे मशहूर घराना कहा जा सकता है क्योंकि इसकी घरानेदारी सीखना सबसे आसान है— इस घराने की विशेषता है- अमूर्तन, प्रत्येक वस्तु का अमूर्तन करना इस घराने की सबसे बड़ी विशेषता है जैसे इन्हें कहना हो पाखाने में पानी नहीं आ रहा तो भोपाल स्कूल ऑफ़ पोयट्री का आदमी कहेगा- जल पाखाने में बह रहा है। अब बुआ होकर आई है, अब पिता जी जा रहे है। अब रीता लोटा लुढ़क रहा है। अब पाखाने में पानी ख़त्म हो गया है। सूरज चढ़ आया है। आदि।
इस घराने के पितृपुरुष श्री अशोक वाजपेयी जी ने यह घराना बरसों हुए त्याग दिया है और उनके छोटे भाई और कई अन्य स्त्री पुरुष इस घराने के अंतर्गत लेखन कार्य कर रहे है जिसमें कहानी, कविता आदि शामिल है। रमेशचन्द्र शाह जी को इस घराने का इन दिनों मुखिया माना जाता है।
अपठनीयता इस घराने की मूल शर्त है। पठनीय रचना होने पर घराने की मोहर नहीं मिलती।
पूर्व में इस घराने के कुलदेवता निर्मल वर्मा, पश्चात विनोद कुमार शुक्ल, अब कोई कमलेश जी है। इस घराने में शामिल होने के लिए समास पत्रिका में अपनी रचना भेजे। इस घराने के कवि लेखक साफ़-सुथरे रहनेवाले, खुशलिबास और पढ़े लिखे पुराने मध्यवर्ग से आते है। यह घराना धनवान है।
२. यूपी के दो घराने
यूपी के दो घराने है- बाँदा जनवादी कविता घराना और दूसरा बीएचयू पीएचडी कवि आलोचक घराना।
बाँदा एक बर्बाद हो चुका घराना है, बड़ी मुश्किल से इसे केदारनाथ अग्रवाल और रामविलास शर्मा ने बनाया था मगर अब ज़्यादा चहलपहल नहीं है और स्थानीयता का आलम है।
इस घराने की विशेषता है - आवश्यक नहीं कि इस घराने के सभी कवि बाँदा से ही आए, यूपी के डिग्री कॉलेज से आनेवाले विद्यार्थी और प्राध्यापक सभी इस घराने में शामिल होते है। प्रचलित छंदों में मोटी मोटी कविता करना इस घराने की प्रमुख विशेषता है, ग्रामीण परिवेश का आधिक्य और प्रकृति के अत्यंत साधारण दृश्यों को महान मानना इस घराने की परिपाटी रही आई है।
इस घराने में खुद को किसान बताए बिना प्रवेश सम्भव नहीं न शहराती मर्दुम की इस घराने में कोई जगह है। सालों से प्रोफेसरी करनेवाले भी इस घराने में खुद को किसान आदि बतलाते है।
इस घराने के कुलदेवता केदारनाथ अग्रवाल है और फ़िलहाल इस घराने के सबसे दादापुरुष अष्टभुजा शुक्ल है। राकेश रंजन और मृत्युंजय इस घराने के कुलदीपक समझे जाते है। ब्राह्मणों की इस घराने में बहुलता है। साथ ही एक दूसरे की तारीफ़ करना, बाहर दुनिया से रत्तीभर मतलब न रखना, एक जैसी कविताओं को पढ़ना-बढ़ावा देना, बाहर के प्रत्येक लेखन को निकृष्ट समझना भी इस घराने की विशेषता है। जैसे पुराने जमाने में स्त्रियाँ जिस घर में पालकी से आती वहाँ से अर्थी से निकलना मान की बात मानती थी उसी प्रकार इस घराने के कवि लेखक जहाँ से शुरू करे वहीं के वहीं रह जाने को मान का कारण जानते है। कविता यहाँ की विधा मानी जाती है साथ ही किसानी तथा पशुपालन जाननेवाले आलोचना भी करते है।
ब: बीएचयू पीएचडी कवि आलोचक घराना
यह बाँदा का जुड़वा घराना माना जा सकता है मगर बाँदा से दस गुना अधिक प्रतिष्ठित क्योंकि यहाँ यूनिवर्सिटी का घराने को समर्थन है और साथ ही काशी में होने के कारण इस घराने में खुद को काशी के साहित्य इतिहास से जोड़ने की सुविधा है। इस घराने की विशेषता है एक दूसरे का समर्थन करना चाहे कोई कितना ही बुरा क्यों न लिखे, इस घराने में वफ़ा सबसे बड़ा गुण माना गया है। स्त्रियों की इस घराने में सबसे अधिक उपेक्षा होती है और आज तक कोई स्त्री साहित्यकार इस घराने से नहीं आई। लड़ाई झगड़े करना-लगाना इस घराने की दूसरी विशेषता है।
किसानी और पशुपालन जाननेवाले इस घराने के अंतर्गत आलोचना या कविता करे तो सफल हो सकते है, बस उन्हें हर बात पर कहना होगा कि क्या कभी नरकुल का फूल देखा है या आपने कभी अलसी की कली देखी है? यदि देखी है तो आप एक आलोचक या कवि बन सकते है।
बात बात पर बनारस को बना रस कहना, उसकी पुरातन संस्कृति की दुहाई देना, अस्सी की फक्कड़ी की दुहाई देकर पैसे का जुगाड़ जमाना, गाली को साहित्य मानना इस घराने के अन्य गुण है। इस घराने में पितृपुरुषों को गाली देकर पूजने का रिवाज है। बीच बीच बोलियाँ बरतने पर वाहवाही करने की रीत है।
इलाहाबाद घराना—
धर्मवीर भारती, नरेश मेहता, मलयज, अश्क़ और विजयदेव साही द्वारा प्रतिष्ठित यह घराना मृतप्रायः है इसलिए इसपर विचार करना दुःख का कारण है। ममता कालिया इस घराने की आख़िरी शमा है।
बिहार के घराने और अन्य घरानों पर विचार अगले पाठ में किया जाएगा।
हिंदी साहित्य के घराने भाग २
बिहार के घराने
बिहार में घरानेदारी की प्रथा बहुत मज़बूत है और घरानेदार इसके पीछे मरने मारने पर उतारू हो जाते है, इस घराने के लोग राँची से दिल्ली तक आपको मिल जाएँगे। बिहार के घराने में संख्याबल है। बिहार में वैसे तो नौ कनौजिए ग्यारह चूल्हे की तरह ठौर ठौर पर लघु घराने आप पाएँगे मगर बिहारी घराने मूलतः दो घरानों में विभाजित है-
पटना कलम: हिंदी के पुरातन घरानों में से एक पटना कलम घराना अब भी फलफूल रहा है और हर साल कवियों की नए खेंप तैयार कर देता है। इस घराने में ब्राह्मण, भूमिहार और कायस्थ बन्धु आपको अधिक मिलेंगे।
इस घराने की सबसे बड़ी विशेषता है उपनाम या सरनेम छुपाना, इस घराने के मेम्बर केवल अपना प्रथम नाम उपयोग में लाते है या कविनाम रखकर उससे काम चलाते है। औसत मगर निरंतर (mediocre but consistent) साहित्य चाहे वह कविता या कथा उपन्यास हो देने में इस घराने का कोई जोड़ नहीं और प्रकाशक इनके आसरे ही धंधे में टिके रहते है क्योंकि पटना कलम घराने के कवि साहित्य सरकारी नौकरियों, प्रोफ़ेसरी आदि में लगकर अपने घराने (पढ़े खुद की) किताबों की बिक्री करवाने में पारंगत होते है।
भले खेती बाड़ी, मकान दुकान, लैप्टॉप और मोबाइल हो मगर तब भी दरिद्रता को दामन से लगाए रखना इस घराने की एक अन्य विशेषता है। जिसे प्रकट करने के लिए इस घराने के कवि लेखक बहुत विशिष्ट रीति अपनाते है जैसे कविता या कहानी में जगह जगह “भात भात लिख देना”, जैसे किसी ने लिखा “भात ही भगवान है” तो घराने में उसे तुरंत प्रवेश दे दिया जाता है। जनेऊ पहनना मगर जातिविरोधी साहित्य की रचना भी इस घराने की विशेषता है। दैन्य का माहात्म्य गान करनेवाले को इस घराने का चिराग़ माना जाता है।
इस घराने के कुलदेवता है रामधारी सिंह दिनकर, जिन्हें भूमिहार साहित्यकार बन्धु विशेष रूप से पूजते है, पूजने का ढंग है बार बाद उनकी कविताएँ सोशल मीडिया पर शेयर करना। आलोकधन्वा इस घराने में विशेष प्रसिद्ध है।
इस घराने की एक अति विशिष्ट रीति इस गाइड के लेखक ने दृष्टिगोचर की है वह है सुन्दर स्त्रियों की फ़ेस्बुक प्रोफ़ाइल के नीचे मादक कविताएँ या वचन लिखने की, निश्चय ही उसने हिंदी साहित्य को तारीफ़ी/फ़्लर्टी लेखन से समृद्ध किया है।
रेणु नामक आंचलिक भैरव को पूजे बिना पटना कलम घराने का मंत्र नहीं मिलता।
पटना घराने के पुरुष नाम के पीछे रंजन छाप लगाते है और बाँदा जनवादी कवि घराने के अपेक्षा सुथरे कपड़े धारण करते है। चाहे भगवा हो लाल पिंक या हरी पॉलिटिक्स हो अपने घरानेदार की निंदा सख़्त वर्जित है।
मिथिला की मण्डली:
मिथिला घराने का उन्नयन वैसे तो इसके पितृपुरुष नागार्जुन और प्रवर्तन विद्यापति ने किया किन्तु इसमें इन दिनों बोलबाला स्त्रियों का है। यह सामान रूप से कथा और कविता के क्षेत्र में सक्रिय है किन्तु इसकी प्रसिद्धि झुण्ड बनाकर हमला करने, शत्रु को झँझोड़ झँझोड़कर मारने में है और सोशल मीडिया पर बड़ी बड़ी बहस और बखेड़े खड़े करने में भी है।
इस घराने की एक और विशेषता है चाहे जहाँ मैथिली में बोलने लगना या फ़ेस्बुक पर अचानक मैथिली में कविता या टिप्पणी कर देना। झा सरनेम न हो तो मिथिला घराने के कवि लेखकों में भी अपना सरनेम त्यागने का रिवाज है। झा उपनाम वाले गर्व से अपना उपनाम लगाते है।
इस घराने की एक और विशेषता है मैथिल ब्राह्मण संस्कृति का गुणगान करना, उन्हें अति श्रेष्ठ बतलाना और इस मामले में यह कुमाऊँनी ब्राह्मणों का थोड़ा बहुत मुक़ाबला कर सकते है।
इस घराने की महामाई भामती नामक उपन्यास की प्रसिद्ध लेखिका श्रीमती उषाकिरण खान है और उनके लाइव के दौरान घराने के सभी सदस्य लाइव में दंडवत अवश्य ही करते है, मिथिला घराने की महामाई उषामैया गाइड लेखक का कल्याण करें।
बिहार के दोनों घरानों का सेनापतित्व दिल्ली की एक उपन्यासकारा के हाथों में है ऐसा माना जाता है।
मिथिला घराने के भैरो राजकमल चौधरी माने जाते है।
बिहार घरानों का प्रमुख त्यौहार छठ बताते है, जिसके बारे में सभी सवर्ण घरानेदारों का कहना है कि यह एकमात्र त्यौहार है जिसमें पुरोहित की दरकार नहीं जैसे भारतवर्ष के अन्य सभी त्यौहार पंडों के बिना नहीं हो सकते और छठ में खर्चा भी कम है क्योंकि सूपड़े में रखे फल, अनाज आदि घराने के कवि लेखक खुद ही कविता और लेखों की तरह उत्पन्न करते है।
बिहार के अन्य घराने
जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि बिहार में कई छोटे बड़े घराने भी है किन्तु उनकी विशिष्टताएँ इतनी दृष्टिगोचर नहीं कि गाइड में उन्हें स्थान दिया जाए।
बिहार घराने की सेनापति एक वीरांगना ने दिल्ली के क़स्बाती घराने के सदस्य प्रभात रंजन के साथ संधि करके मुज़फ़्फ़रपुर घराना चलाना चाहा जिसके हेतु लाइवमेध यज्ञ भी बहुत दिनों तक चला किन्तु वह अभियान सफल न हो सका। इतिहास सबसे संग इतना सहिष्णु होता भी कहाँ है!
दिल्ली और अन्य घरानों के विषय में अगले पाठ की प्रतीक्षा करे।
हिंदी साहित्य के घराने भाग अंतिम
दिल्ली के घराने
महात्मा गांधी के दिल्ली में प्रार्थना प्रवचन हिंदी में देने से ही दिल्ली में हिंदी साहित्य के घरानों का आरम्भ इतिहासकारों ने माना है और हम भी मानते है। उससे पहले घराने काशी, प्रयाग, पटना आदि में थे मगर दिल्ली में उर्दू का बोलबाला था।
घरानों का संगीत के घरानों की तरह ही कोई विशेष भूगोल नहीं होता, भले हम उन्हें स्थान विशेष से पुकारते हो, होते वे आधारित चारित्रिक विशिष्टताओं पर ही है जैसे संगीत का किराना घराना बड़ौदा से धारवाड़ तक विकसित हुआ जबकि किराना नामक स्थान उत्तर प्रदेश में है। दिल्ली में भी इसी तरह बहुत से घराने विकसित हुए और उनके बीच वर्चस्व को लेकर युद्ध होते रहे।
दिल्ली में साहित्य के मुख्य दो ही घराने माने जा सकते है- दिल्ली का शहराती घराना और दिल्ली का क़स्बाती घराना।
दिल्ली का शहराती घराना: इस घराने के प्रवर्तन का श्रेय डॉक्टर नगेंद्र को जाता है। उसके बाद से आज तक यह घराना कई बार टूट-फूट, उजाड़-लड़ाइयाँ और महायुद्धों का केंद्र रहा मगर ईश्वरीय माया से अब भी फलफूल रहा है।
दिल्ली के शहराती घराने की बैठक लोधी गार्डन के निकट किसी क्लब में होती है और घरानेदारों का हाज़िरी देना आवश्यक समझा जाता है। घराने में दाख़िले की शर्तें है अंग्रेज़ी में संभाषण की क्षमता होना, रईस होना, महँगे फ़ैशनबल लिबास पहनना और क्लब की गोष्ठी में बीच बीच में बाहर बग़ीचियों में जाकर अचानक सिगरेट पीते हुए बेकेट की नाटकों के संवाद बोलने लगना, स्त्री सदस्य को हैंडलूम की महँगी लॉंड्री धुली साड़ियाँ पहनना, चाँदी के बड़े बड़े ठीकरे गहनों के नाम पर पहनना और कुशल केशसज्जा करना आवश्यक है। पुरुष दिल्ली के विश्वविद्यालयों के ऐसे प्रोफ़ेसर होते जो यूपी बिहार की संस्कृति से सर्वथा मुक्त होकर मुहावरेदार अंग्रेज़ी में गोष्ठी करे और मीठे मीठे संवाद कहने में कुशल हो। शराब पीकर बहके नहीं और बहक जाए तो खूब हंगामे बरपा करे दूसरे दिन उच्चकुलीन शैली में सबको फ़ोन करके अपने नशीले व्यवहार की क्षमा माँगे।
दिल्ली के शहराती घरानों के सदस्य साहित्य के उच्चतम स्तर के पुरस्कार आदि समितियों में होते है। सोशल मीडिया पर प्रोफ़ाइल बनाने पर दिल्ली के शहराती घराने से निकाला देने की पृथा है।
दिल्ली के शहराती घराने की कुलदेवी कृष्णा सोबती को माना जाता है, कुलदेवता निर्मल वर्मा कहे जाते है। इस घराने के मुखिया अशोक वाजपेयी माने जाते है, गीतांजलिश्री नामक लेखिका के व्यवहार से इस घराने के रंगढंग देखकर आप इस घराने में शामिल होने का प्रयास कर सकते है।
ऊँची सरकारी नौकरी या स्कॉलर पति या पत्नी, वाइन और चीज़ की पहचान इस घराने की एक और विशिष्टता है। इस घराने के सदस्य बनने के लिए आपको अपनी क़स्बाई वृत्ति से छुटकारा पाना आवश्यक है।
दिल्ली क़स्बाती घराना:
वे अभागे जो दिल्ली आकर भी लिट्टी चोखा और चूड़ा-जलेबी और गुटखा-खैनी में पड़े रहते है वे दिल्ली के क़स्बाती घराने में शामिल हो जाते है। डॉक्टर नगेंद्र पर विजय पानेवाले नामवर सिंह को इस घराने का आदिपुरुष माना जा सकता है।
अपने क़स्बों के बालक बालिकाओं के उद्धार करने की ललक, निम्नकोटि का साहित्य और ख़राब लिबास पहनना, अंग्रेज़ी पर पकड़ न होना, सस्ती शराब का चस्का इस घराने की विशेषताएँ है।
पीएचडी न कर पाए किन्तु जिन्होंने एमए हिंदी में किया हो ऐसे लोगों की भी इस घराने में बहुतायत है, यह लोग पत्रकार बन जाते है या सम्पादकी के फेर में पड़ जाते है जिसके कारण यह साहित्य के दूसरे घरानों के लोगों पर रौब जमाते है। प्रभात रंजन, अविनाश मिश्र इस घराने के कुलभूषण माने जाते है।
हँस कुटुम्ब: दिल्ली का एक बिसरा हुआ घराना
राजेंद्र यादव ने नारीमुक्ति के नाम पर सनसनीखेज़ कामुक कथाएँ लिखाकर इस घराने का प्रवर्तन किया था किन्तु उसकी मृत्यु के बाद यह घराना असमय काल कवलित हुआ दिखाई देता है।
राजपूताने के घराने:
राजपूताने के राजघराने मशहूर है मगर साहित्य के घरानों में यह फिसड्डी ही साबित हुआ। जयपुर और बीकानेर में घरानें स्थापित होने की लेखक को सुगबुगाहट पहले दिखाई दी थी मगर जयपुर आपसी खींचतान और झगड़े की वजह से कभी मजबूत घराने के रूप में स्थापित नहीं हो सका।
बीकानेर घराना
यह घराना भोपाल स्कूल ऑफ़ पोयट्री की एक उपशाखा बनके रह गया, वैसी ही अपठनीयता और अमूर्तन को यहाँ भी तरजीह दी जाने लगी। इस घराने के लोगों ने भोपाल घराने से रिश्तेदारियाँ भी स्थापित की मगर अफ़सोस कि भोपाल घराने का ही जब पतन हो चुका तो उसकी उपशाखा का क्या प्रभुत्व होता?
राजपुराने के जयपुर घराने के कुलदेवता विजयदान देथा है जिन्हें बिज्जी कहकर पूजा अर्पित की जाती है। बीकानेर घराने के कुलदेवता अज्ञेय है, भोपाल घराने ने भले अज्ञेय को त्याग दिया हो किन्तु बीकानेर घराने में अब भी उनके नाम का व्रत रखा जाता है।
मालवा के घराने:
मध्यप्रदेश को साहित्य संसार में गाँव माना जाता रहा मगर सबसे अधिक महान साहित्यकार यहीं से आना लेखक ने दृष्टिगोचर किया है चाहे वह माखनलाल चतुर्वेदी हो, प्रदीप हो या हरिशंकर परसाई हो शरद जोशी मुक्तिबोध या नरेश मेहता हो या विनोद कुमार शुक्ल मगर मालवा घराना कभी विकसित नहीं हो सका। इसका कारण सम्भवतः समान विशेषताओं का अभाव और अपने घराने के आदमी की बेइज्जती करने की परम्परा रही है।
कलकत्ता और लखनऊ : कलकत्ता हिंदी साहित्य का बहुत बड़ा केंद्र रहा मगर उसका भी कोई घराना नहीं बन पाया जैसे लखनऊ घराना न बन सका जबकि उर्दू में लखनऊ दो बड़े घरानों में से एक है। कलकत्ता में अभी एक नवीन संस्था नीलांबर कलकत्ते में घरानेदारी स्थापित करने के लिए अत्यंत गम्भीर प्रयास कर रही है। अमृतलाल नागर और यशपाल जैसे साहित्यकार देनेवाले लखनऊ में अब हिंदी के गम्भीर साहित्य की झलक तक नहीं मिलती। क़िस्से कहानी और बतोलेबाज़ी की झांकियाँ ज़्यादा है।
कुमाऊँनी पंडितों का घराना: शिवानी ने यह घराना चलाया मगर उनके बच्चों, भतीजों और भाँजों ने कुमाऊँनी पंडितों की अतिप्रशंसा कर करके यह घराना ख़त्म कर लिया। पालतू बोहीमियन में पुष्पेश पंत की भूमिका जो पुस्तक के विषय में कम और कमाऊँनी ब्राह्मणों के विषय में अधिक बात करती है, इस लेखक की बात का साक्ष्य है।
उपसंहार: घराने बनते बिगड़ते रहते है। हिंदी में काशी घराने की भारतेंदु युग से छायावादी युग और फिर नामवर सिंह के काशी रहने तक धूम थी मगर अब वहाँ कौएं उड़ते है उसी तरह एक वक़्त पर इलाहाबाद घराने का बोलबाला था, स्वातन्त्र्योत्तर हिंदी में इलाहाबाद घराने ने सम्भवतः सबसे उत्कृष्ट साहित्य दिया।
(व्यंग्य भाव से पढ़े। हृदय पर न ले। (विशेष सूचना: व्यंग्य भावना से पढ़ें। व्यक्तिगत होने पर दुखी होने की ज़िम्मेदारी आपकी खुद की होगी।)
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