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Amber Pandey on FB

 हिंदी साहित्य के लाइव में लोग जुटाने के लिए कौन से हथकण्डे अपनावे?


हिंदी साहित्य के लाइव दिनबदिन उजाड़ होते जा रहे है। यदि आप भी रोज़ाना के लाइवकर्ता है तो निम्नलिखित हथकण्डे अपनाए।
लोग आपके लाइव में चित्रलिखित बैठे रहे जावेंगे-

१. जैसे ही आप लाइव हो और आपको भली भाँति यह ज्ञान हो जाए कि जनता आपको ठीक से सुन पा रही है, आप कहने लगिए, “क्या मेरी आवाज़ आप तक पहुँच पा रही है? सुश्री जी क्या आपको मेरी आवाज़ आ रही है? मैं तकनीक के विषय में नितान्त भोला हूँ” आदि। इससे लोग आपको वरिष्ठ साहित्यकार मानेंगे और आपका क़द बिना कुछ किए धरे बढ़ जाएगा। वरिष्ठों को सुनने का चाव जनता में फ़रिश्तों और सनी लेओनी को देखने से अधिक है।

२. लाइव के दौरान भले विषय नारीवादी साहित्य में स्त्रियों के अंतःवस्त्रों का बखान हो या लम्पट आलोचकों का हिंदी साहित्य को अनुदान— किसी बहाने से इस्पहानी, इतालवी, फ़्रांसीसी, चेक या हंगारी साहित्य का कोई विवरण देने से न चूके- जैसे कहे — साहित्यकारों के आपसी प्रेम सम्बन्धों के इस लाइव के दौरान लेमीना का प्रसिद्ध कवि नाब्लू पेरोदा को लिखा एक पत्र याद आ गया जिसमें वह कहती है- “पापी ओ पापी”। अब पापी शब्द के दो अर्थ है एक तो वह जो पवित्र पाप करता है और दूसरा पापी का अर्थ डैडी भी स्पानी ज़ुबान में होता है - तो यह उन्होंने सुंदर यमक का ही प्रयोग नहीं किया बल्कि अपनी संस्कृति से हमारी संस्कृति को जोड़ा भी है। यह साहित्य में प्रेमसम्बन्धों का उत्थान है।

३. स्त्री लाइव करने बैठे तो देह अवश्य दिखाए बिना बोले दर्शक जुट जाएँगे। लाख वर्जिश से भी बदन में बराबर आकार नहीं आ रहा तो किसी भी बहाने से लाइव में कहने लगे, “ हिंदी वाले आप लोग क्या स्त्रियों को केवल एक जोड़ा स्तन, एक जोड़ा नितम्ब और योनि समझते है?” या “हाँ हाँ हाँ मैं काम खिलौनों का उपयोग करती हूँ”। भगवत्कृपा से  उपकार गाइड के लेखक को अब तक कामुक खिलौनों की आवश्यकता नहीं पड़ी है और वह प्रकृतिनिर्मित खिलौनों से ही खेल रहा है इसलिए इस विषय में आपको अधिक न बता सकेगा।

४. दिल्ली के पुराने आदमी या लेडिस आप है या ऐसे किसी नगर से है जहाँ साहित्य की पुरानी परम्परा है तो लाइव का कोई विषय हो तुरंत कोई अफ़वाह (gossip) छोड़ने लगिए जैसे पद्मभूषण प्राप्त साहित्यकार रामोपकार सिंह “कचनार” का सम्बन्ध प्रसिद्ध कहानीकार गुल्लाराम रस्तोगी की साली से था और उससे उन्हें दो बेटे भी थे जिन्हें कचनार जी ने कभी स्वीकार न किया और अपनी विवाहित पत्नी सेमल सिंह के साथ ही हमेशा बने रहे। थोड़े अधिक दबंग है तो अपने बारे में ऐसी अफ़वाह जो अस्तित्त्व में है भी नहीं उसकी सफ़ाई देने लगिए- जैसे “मैं आज इस गम्भीर मंच से आप सबको सूचित कर दूँ कि मशहूर खण्डकाव्यकार सोनाबाई शर्मा “सुनहरी” जी से मेरा कोई नाता कभी नहीं रहा। बोलती बेला
नैना बीते ज़माने की गुज़री अदाकारा मनोरम जी जैसी मटकाना न भूले।

५. लाइव के दौरान अत्यंत विवादास्पद बयान देने से भी आपके लाइव सफल हो सकते है जैसे आप कहे कि नारीवादी साहित्यकार हुस्न का बहुत उपयोग साहित्य में आगे आने को करती है या आलोचक बंधु केवल अपनी प्रेमिकाओं को बड़ा कवि बताते है या बनिया समाज का साहित्य सर्वोच्च है आदि।

लाइव को किसी भी मोल पर लोकप्रिय बनाना आपका धर्म है। आख़िर हम लिखते क्यों है? लाइवों और गोष्ठियों में सम्मिलित होने के लिए तो यदि आपके लाइव में जनता न जुटेगी तो क्योंकर कोई आपको लाइव या गोष्ठियों में निमंत्रित करेगा। माना कि कालूमल कुमार से आपकी अच्छी सेटिंग है मगर वह केवल लाइव तक लाने में आपका सहाय हो सकता है आगे तो खेल आपको ही करना है। बीच बीच में लाइव लिटफ़ेस्ट आयोजित करनेवाले ऐसे लोगों को फ़ोन करते रहिए जो कभी कवि बनना चाहिए थे मगर उनकी बुद्धि चेती और उन्होंने कवियों का सरताज अर्थात् लिटफ़ेस्ट आयोजक बनने का सुनिर्णय किया। कलिंग से सुलभशौचालय तक ऐसे लाइव लिटफ़ेस्ट रोज़ हो रहे है।

#उपकार_गाइड_पाठ १०४
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ज़्यादा पढ़ने के नुक़सान 

मानक हिन्दी भाषा जिसे हम लिखते बोलते है उसकी बनावट विचित्र इसलिए है क्योंकि इसे बहुसंख्यक जनता (खड़ी बोली के इलाक़े को छोड़ दे तो) ने लिखा पहले और बोलना बाद में शुरू किया। 

दुनिया की अधिकांश भाषाएँ पहले बोली जाती है फिर लिपि बनाई जाती है और भाषा को लिखा जाता है। खड़ी बोली अंग्रेज़ी की तरह अन्य कारणों से प्रसारित नहीं हुई बल्कि इसे सोच विचारकर अपनाया और प्रचारित किया गया। 

यही वजह है कि इसमें वर्तनी का ऐसा वक़ार चलता है, मात्रा इधर की उधर हुई तो पंडितों की त्यौरी चढ़ जाती है, एक तरह का ठसपन इसमें पाया जाता है, इसे लिखने, पढ़ने, चाहनेवालों को हमेशा यह डर खाए जाता है कि कहीं एक मात्रा किसी ने गलत लगाई तो ठेकेदारों की बनाई हिंदी की इमारत ये ढही वो ढही। अरे इतनी जल्दी तो मक़बरे भी नहीं ढहते या बस मक़बरे नहीं ढहते क्योंकि वहाँ मुर्दों का आना जाना होता है— जो लोग भाषा के बदलने से डरते हो वह मुर्दे ही है और मक़बरे उनके घर। 

अंग्रेज़ी के शब्द क्यों कह रहे है, यह फ़ारसी का लफ़्ज़ क्यों ले आए लेख में- इतनी पाबंदियों में आजकल  छोकरे नहीं रह रहे तो कोई भाषा कैसे रहेगी! भाषा तो कहानी क़िस्सों की तरह आवारा जीव है। हिंदी की अम्माँ इस अर्थ में हमेशा उर्दू ही रहेगी, रेख़ता का तो मतलब ही होता है घालमेल- pidgin।

जैसी सुनी वैसी लिखी- भाषा का असल रूप यही है इसलिए मध्यकालीन भाषा इतनी सुंदर होती थी क्योंकि वे लोग हमारी तरह पढ़ाकू नहीं होते है कि आज चेखोव पढ़ रहे है तो कल कजाओ इशिगुरु को लेकर बैठ गए। उन्हें वर्तनी/मात्रा के हिसाब की खबर ही नहीं थी।

जिस चीज़ का हमारे समय सबसे ज़्यादा मोल बढ़ा है उसमें एक ज़्यादा पढ़ने को लेकर जोर भी है, पहले ग्रंथ मिलना ही मुहाल थे और मिल भी जाते थे लोग इतना नहीं पढ़ते थे। वह वहीं चीजें पढ़ते थे जो उनके मतलब और पसंद की होती थी। ज़्यादा पढ़ने को इश्क़ की तरह दिमाग़ी ख़लल माना जाता था, आपने भी बड़े बूढ़ों को कहते सुना होगा ज़्यादा पढ़ने से बावले हो जाते है। देखा जाता है ज़्यादा पढ़नेवालों की ज़बान बिगड़ जाती है, काँचबिन्द की तरह अकड़ जाती है (crystallised)।

जैसे विश्वविद्यालय भाषा के कारख़ाने नहीं वैसे ही पत्रकार और लेखक भी खुद को भाषा घड़नेवाला न समझे। भाषा बनती है बाजार में, हाथ से काम करनेवाले मजूरों में, हलवाइयों, कुम्हारों, मेहतरों, कहारों, सुनारों, नानबाइयों, बाईजियों, तबलचियों, हत्यारों, सिकलीगरों, ठठेरों, मालियों, मवालियों से- ऐसी भाषा पहले हाथ का माल है और यही भाषा काम की है क्योंकि यह किताब से बाहर भी काम की है। 

किताबों से जो भाषा बनती है वह incestous है, घर घर में शादियाँ करके पैदा हुई औलादों की तरह वे बेदम होती है भले सुन्दर हो मगर उनमें जिजीविषा (vitality) और सकत नहीं होती, न बरकत होती है। किताब चाहे वह शब्दकोश हो या दूसरे की लिखी कोई पुस्तक हो आपके उतने तो काम नहीं आनेवाली कि आपको ढंग का लेखक बना दे। किताब लेखक बनाने के लिए नहीं लिखी जाती वह तो पाठकों के लिए छापी जाती है।

तो इस मुग़ालते में न रहिए कि संस्कीरत या फ़ारसी या अंग्रेज़ी पोथों में दीदे फोड़कर आप महाकवि या उपन्यासकार बन जाएँगे। सड़क की धूल फाँके बिना न रोग लगता है न हकीम मिलता है। 

#उपकार_गाइड_पाठ १

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