"दीयों की जगमगाहट में साँसों का सफ़र" टिमटिमाते दियो की एक लंबी श्रृंखला थी अंधेरे को चीरते हुए ये नन्हे दिये जब एक साथ जलते तो लगता मानो आसमान से कोई रोशनी की लड़ लटक रही है धरा पर और आहिस्ता-आहिस्ता सारा अंधेरा भाग जाएगा और तिमिर में छिपे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे. यही दिये थे छोटे-छोटे जिनमें कोई डिजाइन नहीं था, कोई लकदक चमक नही थी, परंतु मिट्टी के बने हुए इन दियों की जो खुशबू थी वह आज भी जेहन में बसी हुई है, ठेलों पर या बाजार में नीचे बैठकर बेचती कोई बूढी माई से मोल भाव कर दियों के साथ लक्ष्मी की मूर्ति लाना और उसे आँगन में बने अस्थाई मिटटी के घर में बसाना कितना कौतुक भरा काम होता था. इसके सुकून का वर्णन करना आज बहुत ही मुश्किल है. नवरात्रि से शुरू हुए त्योहारों की श्रृंखला आरम्भ होती. बचपन में हम जब महू जाते थे, दादी के घर जहां जन्मा था, तो दयाशंकर पान वाले के चौराहे से दशहरे के दिन एक लंबा जुलूस निकलता था और इस जुलूस में सारे लोग शामिल होते थे, दिन भर दौड़ होती, खेल होते, कुर्सी दौड़ होती, जगह - जगह पर मिलना जुलना होता और शाम को एक बग्गी में सजधज ...
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