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कुपोषण के दैत्य से मुक्ति पाए बिना बाल विकास अधूरा 3 September 2018


कुपोषण और बच्चे अब एक दुसरे का पर्याय बन गए है जोकि दुखद ही नही वरन बड़ी चिंता का विषय है. मप्र, छत्तीसगढ़, बिहार, उत्तरप्रदेश, झारखंड और उडीसा जैसे राज्य पिछले कई वर्षों से कुपोषण की गिरफ्त में है और इनमे मप्र की हालत बहुत ही खराब है. राष्ट्रीय पोषण मिशन द्वारा सितम्बर माह में पुरे देश में राष्ट्रीय पोषण माह मनाया जा रहा है जिसमे पोषण जागरूकता, गर्भावस्था में देखभाल, स्तनपान, स्वच्छता, एनीमिया, सूक्ष्म पोषाहार, बालिका शिक्षा, सही उम्र में विवाह जैसी थीम को लेकर देश की सभी आँगनवाडियों में माहभर गतिविधियाँ आयोजित की जाकर समुदाय को जागृत करने का प्रयास किया जाएगा.
अभी तक समन्वित रूप से कुपोषण को हल करने के कई प्रयास हुए है परन्तु आंकड़ों को देखे तो हालात खराब ही है, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण- चार के अनुसार मप्र में कुपोषण की दर अभी भी स्थिर ही है बावजूद इसके कि कई प्रयास किये गए है. विशेषकर आदिवासी जिलों जैसे मंडला, डिंडौरी, छिंदवाडा, झाबुआ, आलीराजपुर, बडवानी, श्योपुर, शिवपुरी आदि में हालात बहुत ही खराब है. कम वजन, ठिगना और दुबला पतला होना कुपोषित होने के घातक लक्षण है. मप्र में कुल कम वजन के बच्चे 42. 8 % अर्थात 4300000 है, ठिगने बच्चे 42% अर्थात 4200000 और दुबले पतले बच्चे  25.8 % यानी 2600000 है. इन तीनों पैमानों के आधार पर देखें तो बडवानी में सबसे ज्यादा कम वजन के ठिगने और दुबले पतले बच्चे है, श्योपुर में लगभग बडवानी के बराबर है और शिवपुरी का नम्बर तीसरा आता है. छत्तीसगढ़ में भी हालात समान ही है बल्कि वहाँ आदिवासी बहुलता होने से बच्चों की स्थिति और सेवाओं का जाल बहुत कमजोर है जिसके कई कारण है. मुख्यमंत्री के जिले कवर्धा में ही लगभग 60 % कुपोषण है और राज्य यह दावा कर रहा है कि उसने 28 % कम किया है जबकि हालात बिगड़े है.
ठिगना (स्टंटिंग) होना कुपोषण का एक महत्वपूर्ण परिणाम है जिसे ठीक करने में सदिया लग जाती है और ठिगनगनेपन  के कारण शरीर का समूचा विकास ही नही रुकता बल्कि यह बच्चों की मानसिकता, सीखने के अवसर, समझने की शक्ति, निर्णय लेने और क्रियान्वित करने के मौकों पर भी नकारात्मक असर डालता है. दुर्भाग्य से इसे एक जीवन में ठीक नही किया जा सकता क्योकि यह आनुवंशिकी समस्या है, दुबले पतले होने के कारण बच्चे शारीरक रूप से अक्षम रह जाते है और वे अक्सर बीमार रहते है इस कारण अपनी प्रतिरोध क्षमता खत्म कर वे शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त करते है. दुर्भाग्य से महिला बाल विकास विभाग के समूचे प्रयास सिर्फ वजन बढाने के है - दुबला पतला और ठिगना होने से रोकने के लिए विभाग के पास कोई कारगर नीति नही है. इसके लिए पोषक तत्वों में सूक्ष्म पोषक तत्व, वसा, प्रोटीन, मोटा अनाज, विविध खाद्य पदार्थों को नियमित रूप से दिए जाने के साथ साथ सुरक्षित गर्भावस्था, संस्थागत प्रसव, स्तनपान और सम्पूर्ण टीकाकरण जैसी महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान देने की जरुरत है. अभी हालात ये है कि पोषाहार हेतु जो मेन्यु बना है - आंगनवाडी या मध्यान्ह भोजन का उसी को शिक्षा एवं महिला बाल विकास विभाग ठीक से लागू नही करवा पा रहा. पोषण में स्वास्थ्य की भी भूमिका बड़ी है मप्र और छग में स्वास्थ्य सुविधाओं के हाल से हम सब वाकिफ है डाक्टरों से लेकर पैरा मेडिकल स्टाफ की कमी से दोनों राज्य बुरी तरह जूझ रहें है जाहिर है इससे संस्थागत प्रसव, टीकाकरण, गर्भवती और धात्री माताओं की नियमित जांच पर बुरा असर पड़ता है जिससे भी बच्चे जन्म से कुपोषित पैदा हो रहे है.
सरकारी स्तर पर जंगलों में जाने पर जो प्रतिबन्ध लगा है उससे आदिवासी और ग्रामीणजन जो लघु वनोपज बीनकर ले आते थे और वर्ष भर भोजन की थाली में विभिन्न प्रकार का खाद्यान्न उपयोग करते थे वह बंद हो गया है और अब भोजन में सिर्फ गेहूं, चावल रह गया है, सब्जियां ना के बराबर है, दूध गायब है और मांसाहार भी महंगा होने के कारण माह में एकाध बार ही खा पाते है और इसका सबसे ज्यादा असर बच्चों के पोषण पर पड़ रहा है. स्थानीय स्तर पर रोजगार में अवसर उपलब्ध ना होने के कारण परिवार पलायन पर निकल जाते है और बच्चों को भी ले जाते है जहां वे देखभाल नही कर पाते फलस्वरूप बच्चे और बीमार होते है और मृत्यु तक हो जाती है. राष्ट्रीय रोजगार क़ानून के अमल को देखें तो पिछले बरस मप्र में औसतन 40 से 42 दिन का काम एक परिवार को मिला है और यदि परिवार की आय ही नहीं होगी तो कैसे कोई पोषाहार की बात सोच सकता है. आवश्यकता इस बात है कि कारगर नीतियों को लागू भी किया जाएँ और समाज में भी बच्चों के पोषण को लेकर जागरूकता बढ़ें ताकि वे अकारण मृत्यु का वरण ना करें

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