बलात्कार के लिए बालिग होना जरूरी नहीं बच्चे भी पर्याप्त है इस "नेक काम" के लिए, लगातार मोबाईल पर तमाम तरह का ज्ञान प्राप्त कर उनके हार्मोन्स ज़्यादा उत्तेजित होकर कम उम्र में सक्रिय हो रहे है, बच्चियों की मेनारकी की उम्र भी घट गई है और हम 14 - 15 साल के किशोर को बच्चा मानकर ट्रीट कर रहें हैं - यह हमारी कमजोर समझ का नतीजा है , वे हत्या, लूट, डकैती से लेकर बलात्कार में भी सहज शामिल है और हम बाल अधिकारों की बात कर रहें है
नई दुनिया की खबर है आज कि 7 साल की बच्ची के साथ तीन नाबालिगों ने गैंगरेप किया
ये नाबालिक 14- 15 साल के बच्चे हैं - जो सातवीं और नवमी में पढ़ते हैं , अच्छी बात है कि इनमें से एक उसका चचेरा भाई है
देश में मोबाइल में फ्री डाटा की बहार है , प्रातः स्मरणीय अंबानी जी, आदित्य बिरला जी और भारतीय जी के कारण डेढ़ जीबी डाटा रोज निशुल्क मिल रहा है और हम जिम्मेदार अभिभावकों ने अपने बच्चों को स्मार्ट फोन हाथ में दे दिए हैं - बेटा खूब देखो पोर्न फिल्में और मजे करो
हम में से कितने अभिभावक अपने बच्चों के मोबाइल के लॉक पेटर्न जानते हैं, कितनों को पासवर्ड पता है , कितनों ने अपने बच्चों के मोबाइल में गैलरी को झांक कर देखा है
अमा, कहां फुर्सत है - रुपया कमाए , मजदूरी करें या यह साला मोबाइल ही चेक करते रहें- बच्चे भी खुश हैं - पढ़ाई के वीडियो देखने के बहाने खूब देख रहे हैं -धार्मिक, अधार्मिक और जोशीले खेल भावना से ओत प्रोत फिल्में व्हाट्सएप चला रहे हैं और फिर मोहल्ले में लड़की अपने अड़ोस पड़ोस में है ही और कोई नहीं मिली तो साली अपनी बहन है ना - दोस्तों को भी बुलाओ - बड़ा भंडारा करो और एंजॉय करो - जीवन है तो सब सुख है- भाड़ में जाए नैतिकता और बाकी सब बातें
बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर - हमारा समाज
[ अभी तात्कालिक इलाज नज़र आता है तुरन्त वह है कि अपने बच्चो को समय दो, बात करो उनके साथ, घूमो, उनके सच्चे दोस्त बनो और दोस्तो पर नजर रखें और उनके असामान्य व्यवहार पर कड़ी नजर भी रखें और जाईये अपने बच्चों के मोबाइल खोलने की कोशिश करें - नही खुलें तो स्कूल से आने के बाद उससे कहें कि दिखाएं मोबाईल - हां अगर वो छुपाकर स्कूल ना ले गया हो तो ]
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377 के बाद अब 497 भारतीय अपराध दण्ड संहिता से विलोपित करने के भद्दे मजाक और चुटकुले बनें
आज वाट्स एप 497 से गुलज़ार है - एक में तो यहां तक कहा गया कि 'सेवानिवृत्ति के बाद की व्यवस्थाएं की जा रही है अपने' ये कहां आ गए है हम जिसमे अपनी बात मनवाने और थोपने के चक्कर मे तानाशाह बन रहें हैं और जो नहीं सुनेगा उसे जलील करेंगें, मोब लिंचिंग करेंगे और अंत में मार डालेंगे
बहुत ही मानसिक दरिद्रता है हमारे सड़े गले समाज मे और अंततः ये सब पितृ सत्ता के ही संवाहक है ना - जो महिलाओं की समानता नही देख सकते और महिला को आज भी भोग्या और सिर्फ सम्पत्ति ही समझते है , असल मे दूसरों की इच्छा और राय को हम महत्व देना तो दूर - हम उसका सम्मान भी नही करते
फिर आज कहता हूँ कि परिवार, विवाह जैसे सामाजिक संस्थान बुरी तरह से सड़ गए है, मवाद की बदबू नथुनों तक भर गई है और फिर पितृ सत्ता और पुरुष प्रधान समाज इन जैसे बजबजाते संस्थानों को ढोते जा रहा है - बजाय यह देखें समझे नई पीढ़ी, नए मूल्य, नई संस्कृति और नए विश्व में क्या हो रहा है और इनकी जरूरतें क्या है, कब तक हम धर्म, रूढ़ि के नाम पर बकवास और सदियों पुरानी दकियानूसी बातों को थोपते रहेंगें
दुखद है , हालांकि अच्छा यह है कि निर्णयों में कही गई एक बात सबसे अच्छी थी कि "भीड़ के मन मुताबिक और जन मानस की इच्छा से न्याय और निर्णय प्रभावित नही हो सकते"
150 - 170 वर्ष पुराने शोषित करने वाले क़ानूनों से देश को मुक्ति बहुत जरूरी है और सीजेआई जस्टिस दीपक मिसरा के अन्तिम समय में लिए गए फ़ैसले पढ़ने - पढ़ाने वालों के साथ लोवर कोर्ट में बैठे रूढ़िवादी और परंपराओं को ढोते न्यायाधीशों , वकीलों, कानून पढ़ाने वाले जड़ बुद्धि प्राध्यापकों, बार काउंसिंल और अन्य मुद्दों से जुड़े व्यापक जन समुदाय के लिए नज़ीर बनेंगें यह अपेक्षा की जाना चाहिए
नई सुबहों का आगाज़ हो रहा है - बदलाव के लिए तैयार हो जाइए नहीं तो आपको पीछे छोड़कर ज़माना आगे निकल जायेगा और आप लकीर पीटते रहेंगें
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रायपुर में हाल ही में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सम्मेलन का बड़ा मजमा लगा
मेरे एनजीओ फील्ड के साथी पूछ रहे हैं कि मैं क्यों नही गया और वे अपने फोटो यहां शेयर कर रहें हैं - रँग, बिरँगे और हंसते- खिलते मुस्कुराते हुए
सबको बधाई और बहुत बड़ा धन्यवाद कि अपने जीवन के लंबे समय में से 5- 6 दिन आपने इस सम्मेलन, मजमे और यात्रा में दिए लम्बा प्रवास कर आप पहुंचें , इतिहास याद रखेगा आपके इस पुनीत कार्य को पर मेरे कुछ विचार है - उजबक समझकर माफ कर दीजिएगा
वही चेहरे - वही मोहरे और वही लोग जो पिछले 30 वर्षों से हर जगह देख रहा हूँ - गांव की बैठक हो, जिले से राज्य या राष्ट्रीय स्तर की - ये वही लोग और घिसे-पीटे कार्यकर्ता है जो हर जगह मौजूद है - वन अधिकार की बात हो, पोषण - कुपोषण, एच आय वी , एड्स, शिक्षा , स्वास्थ्य, नदी बचाओ, आजीविका , रोज़गार ग्यारंटी योजना, पंचायत ट्रेनिंग, महिला सशक्तिकरण, कानून की व्याख्याएं, जमीनी अधिकार, जेंडर, आदिवासी उत्थान या क्लाइमेट चेंज की - कमाल यह कि एक जीवन मे लोग इतने क्षेत्रों में महारत कैसे हासिल कर लेते है और फिर उसके बाद जमीनी स्तर पर काम
इनमे भी अधिकांश कार्यकर्ता है जो आठवीं दसवीं पास है और छह सात हजार से लेकर बीस हजार रुपया माह की नौकरी बजाते है और जो संस्थान प्रमुख है वे दिन के 24 में से 28 घँटे प्रोजेक्ट जुगाड़ने के चक्कर मे रहते है बेचारे इतने व्यस्त है कि देशभर में होने वाली गोष्ठियों सेमीनारों ने कार्यकर्ता भेजते भेजते थक जाते है, मुझे लगता है कि ये जलसे मासिक, अर्ध वार्षिक या वार्षिक जगहें है जहां लोग मस्ती में आते है और कुल मिलाकर ये सब मिलन समारोह बनकर रह जाते है
कुछ तो गड़बड़ है मेरे में या मेरी सोच में या .... वैसे सच तो यह है कि बेचारे ये सब लोग तो भले ही होते है और सक्षम, उत्साही और दबंग भी और आने जाने का तो ख़ैर जुगाड़ हो ही जाता है परियोजनाओं से
एक उत्सव सा बन गया है इनका जीवन और ये उसके भागीदार, नकारात्मक कमेंट नही पर जो कह रहा हूँ शायद तुम, हम और हम सब समझ पाएं या कोई और तो अँधेरों के बीच से रोशनी की दरार ही नज़र आ जाएं
नए सिरे से सब कुछ करने की जरूरत है बजाय इस तरह की सत्यनारायण की कथाएँ आयोजित कर प्रसाद बांटने से , देश भर के लोगों को इकठ्ठा कर थोड़ी बातचीत, मिलना जुलना, गीत संगीत की महफ़िलें और परियोजनाएँ कबाड़ने के अभ्यास से
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