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बच्चों को बख्श दो मालिक 16 Sept 2018


बच्चों के साथ और बच्चों के लिए काम करना बहुत जरूरी है उन्नत राष्ट्र, वर्तमान के समाज में मूल्य बनाएं रखने को और सुसंस्कृत राष्ट्र के भविष्य के लिए
पर यह सेफ पैसेज है कामरेड्स , बहुत आसानी से कम्फर्ट ज़ोन्स में रह सकते हो और गुजर बसर बहुत ही सुलभ सरलता से हो सकता है ताउम्र
असली चुनौती समाज के दीगर क्षेत्रों की है , इन दिनों रोज कॉलेज जाता हूँ तो उज्जड, भयानक बदतमीज और हर छोटी सी बात पर लड़ने और माँ - बहन करने पर उतारूँ युवाओं को देखता हूँ जो किसी की भी बात सुनने को तैयार नही और इतना ख़ौफ़ है इनका कि ना प्राचार्य, प्राध्यापक , प्रशासक और ना ही पुलिस कुछ भी करने में सक्षम है और ना वो बर्रे के छत्ते में हाथ डालना चाहते हैं, इतने भयावह हालात है कि महिला प्राध्यापक तो कांपने लगती है - कक्षा में बातचीत, मोबाइल का इस्तेमाल, चाहे जब आना जाना, चलते व्याख्यान में अपने मवाली मित्रों को बुलाकर गुटखा खाना और ना जाने क्या क्या, पाठ्यक्रम से लेकर मास्टरों की अयोग्यता को भी कोई देखें जो दो लाख ले रहे है पर ना ज्ञान ना सीखाने के तौर तरीके , बेहद भयावह है उच्च शिक्षा के चक्रव्यूह
बताईये कोई है जो इनके साथ काम कर रहा है, कोई पत्रिका निकाल रहा है, कोई संस्कार शिविर लग रहे हैं , कोई एनजीओ दम ठोंककर मैदान में है या सरकारी या गैर सरकारी शिक्षाविदों के काफिलों में हिम्मत है, हिम्मत तो ग्यारहवीं बारहवीं के बच्चोँ के साथ काम करने की भी नही , कोई राजनैतिक दल या काडर - बल्कि अब तो हिंदी के चुके हुए साहित्यकार भी बच्चों की तरफ लौट आएं है और उन संस्थाओं और पत्रिकाओं को उपकृत कर रहें है मंच शेयर कर रहें है जो उनके कचरे को छापकर हर माह पांच दस हजार पकड़ा दे रहा है और कार्यशालाओं में ये बुढऊ चार से छह दिन ज्ञान पेल रहें है - यह भ्रष्टाचार का स्वीकृत और मान्य रूप है जिसे समाज विज्ञानी नहीं देख पा रहें है और इस खेल में रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट्स, सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षक, एक्टिविस्ट भी शामिल है जो और बड़ा दुर्भाग्य है , मजेदार यह है कि मीडिया के प्रवचनकार भी इस खेल में अब शामिल है - बंधी बंधाई तनख्वाह है और करना कुछ नही कॉपी पेस्ट और ज्ञान के सोते बहाना है - दस से पाँच के समय में
आप कुछ भी करें वो आपकी छूट है और रुचि पर फिर बच्चों के बहाने सेफ ज़ोन में रहकर समाज पर टिप्पणी मत करिए यदि आप कोई बड़े ज्वलन्त मुद्दे पर काम नही कर रहें, सिर्फ अनुवाद - पाठ्यक्रम या धंधेबाज बनकर प्रशिक्षण कर रहें है और अपने आपको सौ लोगों की भीड़ के साथ बन्द कमरों में समेट लिया और इतिहास की बात कर अब रायता फैला रहें हैं तो बहुत हुआ गुरु निकल लो - तुमसे तो राजनैतिक दल भले जो डंके की चोट पर हर बात पर बाहर निकल आते है , आप लोग विशुद्ध पाखंडी है
बच्चो के साथ काम करो - खूब करो- सेक्सुअल एब्यूज़ से लेकर पोषण कुपोषण और शिक्षा में नवाचार तक, विज्ञान के सस्ते प्रयोग से लेकर नुक्कड़ नाटक की नौटँकी तक पर हरियाणा में जो अभी बलात्कार हुआ उसके हीरो देखें जो कमसिन किशोर और विशुद्ध युवा है, है कोई मर्द जो आगे आये और काम करने का हुंकारा भरें , यह सब आसान है और इसमें किसी को ना दिक्कत है ना कोई ये मुद्दे खत्म होंगें, तमाम बड़े लोग बच्चों के नाम पर जीवन खपा देते है और मजे मजे में जीवन के मूलभूत सुख सुविधा जुटा लेते है - नोबल तक पा ले रहे है, पर ना ये रेडिकल है ना प्रयोगधर्मी
यूनिसेफ से लेकर तमाम पेज थ्री के ये संभ्रांत लोग सॉफ्ट टारगेट पर काम कर अपनी नौकरी, संस्थाएं और विभाग ही बचा रहें है, अनुदान जुगाड़ कर जीवित है और भारत जैसे पिछड़े देशों में तो यूएन के हरामखोर लोग टैक्स फ्री तनख्वाह लेकर सिर्फ आंकड़े बाजी कर रहें है और चन्द रुपयों का लालच देकर योग्य लोगों का इस्तेमाल कर रहें है और समाज के बड़े मुद्दों की साजिशन उपेक्षा करवा रहें हैं


बच्चों के साथ बहुत कर लिया , अब बख़्श दो उन्हें और मैदान में आओ - बहुत बड़े बड़े मुद्दे है - तुम सब जानते हो, पर सवाल यह है कि कम्फर्ट ज़ोन छोड़ने को तैयार हो तब ना
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माल हो तो ही बिकेगा लेखक या कवि का
किताब हो, नाटक हो, कविता हो आलोचना हो या कोई और प्रोडक्ट
और ध्यान रहें कि हर माल का खरीददार और पारखी भी रंगरेज हो तो माल बिकेगा, पुरस्कृत होगा या निरादृत होगा, कोई भी पारखी अपनी बेइज्जती नही करेगा बाज़ार में इसलिए वह समादृत करेगा हर सड़े गले माल को
एक बार बिक गया तो ब्रांड बनोगे कॉमरेड फिर किसी टेके की जरूरत नही
बेचो , बेचो और खूब बेचो गुरु
बाकी तो कुछ और साफ़ कहने की जरूरत नही

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